भाग-१६(16) महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश

 


सूतजी कहते हैं - हे बंधुओं! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदों का निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अंगिरा गोत्र के ऋषियों के यज्ञ में दूसरे दिन का कर्म बतलाया था। उसकी एक कमललोचना कन्या थी। उसका नाम था सुकन्या।

'एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्या के साथ वन में घूमते-घूमते च्यवन ऋषि के आश्रम पर जा पहुँचे। सुकन्या अपनी सखियों के साथ वन में घूम-घूमकर वृक्षों का सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थान पर देखा कि बाँबी (दीमकों की एकत्रित की हुई मिट्टी) के छेद में से जुगनू की तरह दो ज्योतियाँ दीख रहीं हैं। दैव की कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्या ने बाल सुलभ चपलता से एक काँटे के द्वारा उन ज्योतियों को बेध दिया। इससे उनमें से बहुत-सा खून बह चला। उसी समय राजा शर्याति के सैनिकों का मल-मूत्र रुक गया।' 

राजर्षि शर्याति को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकों से कहा- ‘अरे, तुम लोगों ने कहीं महर्षि च्यवन जी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हम लोगों में से किसी-न-किसी ने उनके आश्रम में कोई अनर्थ किया है'।

तब सुकन्या ने अपने पिता से डरते-डरते कहा कि ‘पिता जी! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजान में दो ज्योतियों को काँटे से छेद दिया है’। अपनी कन्या की यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बाँबी में छिपे हुए च्यवन मुनि को प्रसन्न किया। तदनन्तर च्यवन मुनि का अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकट से छूटकर बड़ी सावधानी से उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानी में चले आये। इधर सुकन्या परमक्रोधी च्यवन मुनि को अपने पति के रूप में प्राप्त करके बड़ी सावधानी से उनकी सेवा करती हुई उन्हें प्रसन्न करने लगी। वह उनकी मनोवृत्ति को जानकर उसके अनुसार ही व्यव्हार करती थी।'

कुछ समय बीत जाने पर उनके आश्रम पर दोनों अश्विनीकुमार आये। च्यवन मुनि ने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि ‘आप दोनों समर्थ हैं, इसलिये मुझे युवा-अवस्था प्रदान कीजिये। मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती स्त्रियाँ चाहती हैं। मैं जानता हूँ कि आप लोग सोमपान के अधिकारी नहीं हैं, फिर भी मैं आपको यज्ञ में सोमरस का भाग दूँगा’।

वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारों ने महर्षि च्यवन का अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक है।’ और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह सिद्धों के द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान कीजिये’। च्यवन मुनि के शरीर को बुढ़ापे ने घेर रखा था। सब ओर नसें दीख रही थीं, झुर्रियाँ पड़ जाने एवं बाल पक जाने के कारण वे देखने में बहुत भद्दे लगते थे। अश्विनीकुमारों ने उन्हें अपने साथ लेकर कुण्ड में प्रवेश किया। उसी समय कुण्ड से तीन पुरुष बाहर निकले। वे तीनों ही कमलों की माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पहने एक-से मालूम होते थे। वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियों को प्रिय लगने वाले थे। परमसाध्वी सुन्दरी सुकन्या ने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृति के तथा सूर्य के समान तेजस्वी हैं, तब अपने पति को  पहचानकर उसने अश्विनीकुमारों की शरण ली।'

उसके पातिव्रत्य से अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पति को बतला दिया और फिर च्यवन मुनि से आज्ञा लेकर विमान के द्वारा वे स्वर्ग को चले गये।

कुछ समय के बाद यज्ञ करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रम पर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्या के पास एक सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है। सुकन्या ने उनके चरणों की वन्दना की। शर्याति ने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले- ‘दुष्टे! यह तूने क्या किया? क्या तूने सबके वन्दनीय च्यवन मुनि को धोखा दे दिया? अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने काम का न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुष की सेवा कर रही है। तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुल में हुआ था। यह उल्टी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई? तेरा यह व्यवहार तो कुल में कलंक लगाने वाला है। अरे राम-राम! तू निर्लज्ज होकर जार पुरुष की सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनों के वंश को घोर नरक में ले जा रही है’।

राजा शर्याति के इस प्रकार कहने पर पवित्र मुस्कान वाली सुकन्या ने मुसकराकर कहा- ‘पिताजी! ये आपके जमाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’। इसके बाद उसने अपने पिता से महर्षि च्यवन के यौवन और सौन्दर्य की प्राप्ति का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने बड़े प्रेम से अपनी पुत्री को गले से लगा लिया।

'महर्षि च्यवन ने वीर शर्याति से सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से अश्विनीकुमारों को सोमपान कराया। इन्द्र बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढ़कर शर्याति को मारने के लिये वज्र उठाया। महर्षि च्यवन ने वज्र के साथ उनके हाथ को वहीं स्तम्भित कर दिया। तब सब देवताओं ने अश्विनीकुमारों को सोम का भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगों ने वैद्य होने के कारण पहले अश्विनीकुमारों का सोमपान से बहिष्कार कर रखा था।'

'शौनकादि ऋषियों ! शर्याति के तीन पुत्र थे- उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्त से रेवत हुए। महाराज! रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नाम की एक नगरी बसायी थी। उसी में रहकर वे आनर्त आदि देशों का राज्य करते थे। उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे कुकुद्मी। कुकुद्मी अपनी कन्या रेवती को लेकर उसके लिये वर पूछने के उद्देश्य से ब्रह्मा जी के पास गये। उस समय ब्रह्मलोक का रास्ता ऐसे लोगों के लिये बेरोक-टोक था।'ब्रह्मलोक में गाने-बजाने की धूम मची हुई थी। बातचीत के लिये अवसर न मिलने के कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये। उत्सव के अन्त में ब्रह्मा जी को नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया।' 

उनकी बात सुनकर भगवान् ब्रह्मा जी ने हँसकर उनसे कहा - ‘महाराज! तुमने अपने मन में जिन लोगों के विषय में सोच रखा था, वे सब तो काल के गाल में चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियों की तो बात ही क्या है, गोत्रों के नाम भी नहीं सुनायी पड़ते। इस बीच में सत्ताईस चतुर्युगी का समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान् नारायण के अंशावतार महाबली बलदेव जी पृथ्वी पर विद्यमान हैं। राजन्! उन्हीं नररत्न को यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदि का श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है-वे ही प्राणियों के जीवन सर्वस्व भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिये अपने अंश से अवतीर्ण हुए हैं।’

'राजा कुकुद्मी ने ब्रह्मा जी का यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणों की वन्दना की और अपने नगर में चले आये। उनके वंशजों ने यक्षों के भय से वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे। राजा कुकुद्मी ने अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री परमबलशाली बलराम जी को सौंप दी और स्वयं तपस्या करने के लिये भगवान् नर-नारायण के आश्रम बदरीवन की ओर चल दिये।'

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-१६(16) समाप्त !

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