भाग-११(11) शिवगणों द्वारा भगवान शिव को देवी सती के आत्मदाह का वृतांत सुनाना तथा महादेव का अत्यंत क्रोधित होकर वीरभद्र और महाकाली को प्रकट करना




सूतजी कहते हैं -  जब दक्ष के उस महान यज्ञ में घोर उत्पात मचा हुआ था और सभी डर के कारण भयभीत हो रहे थे तो उस समय वहां पर एक आकाशवाणी हुई।

'हे मूर्ख दक्ष! तूने यह बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया है। तूने शिव भक्त दधीचि के कथन को प्रामाणिक नहीं माना, जो तेरे लिए परम मंगलकारी और आनंददायक था। तूने उनका भी अपमान किया और वे तुझे शाप देकर तेरी यज्ञशाला से चले गए। तब भी तू कुछ भी नहीं समझा। तूने अपने घर में स्वयं आई, साक्षात मंगल स्वरूपा अपनी पुत्री सती का अपमान किया। तूने सती और शंकर का पूजन भी नहीं किया। अपने को ब्रह्माजी का पुत्र समझकर तुझे बहुत घमंड हो गया था। तूने उस सती देवी का अपमान किया जो सत्पुरुषों की भी आराध्या हैं। वे समस्त पुण्यों का फल देती हैं। वे तीनों लोकों की माता, कल्याणस्वरूपा और भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी हैं।' 

'सती देवी प्रसन्न होने पर सुख और सौभाग्य प्रदान करती हैं। वे परम मंगलकारी हैं। देवी सती की पूजा करने से समस्त भयों से छुटकारा मिल जाता है और मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। देवी सभी उपद्रवों को नष्ट कर देती हैं। वे ही पराशक्ति हैं तथा कीर्ति, संपत्ति, भोग और मोक्ष प्रदान करती हैं। वे ही जन्मदात्री हैं अर्थात जन्म देने वाली माता हैं। वे ही इस जगत की रक्षा करने वाली आदि शक्ति हैं और वे ही प्रलयकाल में जगत का संहार करने वाली हैं। सती ही भगवान विष्णु सहित ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र, अग्नि, सूर्यदेव आदि सभी देवताओं की जननी हैं। वे साक्षात जगदंबा हैं। वे ही दुष्टों का नाश करने वाली और भक्तों की रक्षा करने वाली हैं। ऐसी उत्तम महिमा और गुणों वाली भगवान शिव की प्राणप्रिया धर्मपत्नी का तूने इस यज्ञ में अपमान किया है।'

'भगवान शिव तो परमब्रह्म परमेश्वर हैं। वे सबके स्वामी हैं। वे सबका कल्याण करते हैं। सभी मनुष्य प्रभु का दर्शन पाने की अभिलाषा सदैव अपने मन में रखते हैं। दर्शनों की इच्छा लिए घोर तपस्या करते हैं। वे भगवान शिव ही जगत को धारण कर उसका पालन-पोषण करते हैं। वे ही समस्त विद्याओं के ज्ञाता और मंगलों का भी मंगल करने वाले हैं। वे ही समस्त मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। हे दुष्ट दक्ष! तूने उन परम शक्तिशाली भगवान शिव की शक्ति की अवहेलना करके बहुत बुरा किया है। इसलिए तेरे इस महायज्ञ के विनाश को कोई नहीं रोक सकता। जिनके चरणों की धूल शेषनाग रोज अपने मस्तक पर धारण करता हैं, जिनके चरणकमल का ध्यान करने से ब्रह्मा को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ है, तूने उनका और उनकी पत्नी सती का पूजन न करके बहुत अनिष्ट किया है। भगवान शिव ही इस संपूर्ण जगत के पिता और उनकी पत्नी देवी सती इस जगत की माता हैं। तूने उन माता-पिता का सत्कार न कर उनका घोर अपमान किया है। अब तेरा कल्याण कैसे हो सकता है? तूने स्वयं दुर्भाग्य से अपना नाता जोड़ लिया है। तूने देवी सती और भगवान शिव की भक्तिभाव से आराधना नहीं की।' 

'तेरी यह सोच ही कि कल्याणकारी शिव का पूजन किए बिना भी मैं कल्याण का भागी हो सकता हूं, तुझे ले डूबी है। तेरा सारा घमंड नष्ट हो जाएगा। यहां बैठा कोई भी देवता शिवजी के विरुद्ध होकर तेरी सहायता नहीं कर पाएगा। यदि करना भी चाहेगा तो स्वयं भी नष्ट हो जाएगा। अब तेरा अमंगल निश्चित है। सभी देवता और मुनिगण यज्ञ मण्डप को छोड़कर तुरंत यहां से अपने-अपने धाम को चले जाएं अन्यथा सबका नाश हो जाएगा।'

सूतजी कहते हैं - हे मुनियों ! इस प्रकार यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोगों को चेतावनी देकर वह आकाशवाणी मौन हो गई। उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवता और मुनि आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे। उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। वे अत्यंत भयभीत हो गए। उधर, भृगु के मंत्रों से उत्पन्न गणों द्वारा भगाए गए शिवगण, जो कि नष्ट होने से बच गए थे, शिवजी की शरण में चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने प्रभु को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और वहां यज्ञ में जो कुछ भी हुआ था, उसका और सती के शरीर त्यागने का सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया।

शिवगण बोले - हे महेश्वर ! दक्ष बड़ा ही दुरात्मा और घमंडी है। उसने माता सती का बहुत अपमान किया। वहां उपस्थित देवताओं ने भी उनका आदर-सत्कार नहीं किया। उस घमंडी दक्ष ने यज्ञ में आपका भाग भी नहीं दिया। 

'हे प्रभु! दक्ष ने आपके प्रति बुरे शब्द कहे। आपके विषय में ऐसी बातें सुनकर माता क्रोधित हो गईं और उन्होंने पिता की बहुत निंदा की। जब दक्ष ने उनका भी अपमान किया तो वे शांत होकर सोचने लगीं। फिर उन्होंने वहां उपस्थित सभी देवताओं और मुनियों को फटकारा, जिन्होंने आपका अनादर किया था। उन्होंने कहा कि शिव निंदा सुनकर मैं जीवित नहीं रह सकती। यह कहकर उन्होंने योगाग्नि में जलकर अपना शरीर भस्म कर दिया। यह देखकर बहुत से पार्षदों ने माता के साथ ही अपने शरीर की आहुति दे दी। तब हम सब शिवगण उस यज्ञ को विध्वंस करने के लिए तेजी से आगे बढ़े परंतु भृगु ऋषि ने मंत्रों द्वारा गणों को उत्पन्न कर हम पर आक्रमण कर दिया। हममें से बहुत से गणों को उन भृगु के गणों ने मार डाला।' 
'तब वहां आकाशवाणी हुई, जिसने कहा कि दक्ष ! तुम्हारा अंत अब निश्चित है तथा जो भी देवता एवं मुनि तुम्हारा साथ देंगे वे भी पाप के भागी बनकर मृत्यु को प्राप्त होंगे। यह सुनकर सभी उपस्थित लोग वहां से चले गए और हम यहां आपको इस विषय में बताने के लिए आपके पास चले आए। हे कल्याणकारी भगवान शिव! हे हरे ! आप उस महादुष्ट अधर्मी दक्ष को उसके अपराध का कठोर दंड अवश्य दें। यह कहकर सभी गण चुप हो गए।'

'हे मुनियों ! अपने पार्षदों की बातें सुनकर भगवान शिव ने उस यज्ञ की सारी बातें और जानकारी जानने के लिए देवर्षि नारद का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही नारद वहां जा पहुंचे और भक्तिभाव से नमस्कार करके चुपचाप खड़े हो गए। तब महादेव जी ने नारदजी से दक्ष के यज्ञ के विषय में पूछा। तब देवर्षि ने उत्तम भाव से उस यज्ञशाला में जो-जो हुआ था, वह सब वृत्तांत उन्हें सुना दिया। सारी बातों से अवगत होते ही भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। पराक्रमी शंकर के क्रोध का कोई अंत न रहा। तब लोकसंहारी शंकर ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर उसे कैलाश पर्वत पर दे मारा। जैसे ही वह बाल जमीन पर गिरा उसके दो टुकड़े हो गए।' 

'उस समय वहां बहुत भयंकर गर्जना हुई। बाल के प्रथम भाग से महापराक्रमी, महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणों में शिरोमणि हैं। उनका शरीर बहुत बड़ा और विशाल था। उनकी एक हजार भुजाएं थीं। उस जटा के दूसरे भाग से अत्यंत भयंकर और करोड़ों भूतों से घिरी हुई महाकाली उत्पन्न हुई। उस समय रुद्र देव के क्रोधपूर्वक सांस लेने से सौ प्रकार के ज्वर और अनेक प्रकार के रोग पैदा हो गए। वे सभी शरीरधारी, क्रूर और भयंकर थे। वे अग्नि के समान तेज से प्रज्वलित थे। तब वीरभद्र और महाकाली ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव को प्रणाम किया।'

वीरभद्र बोले - हे महारुद्र! आपने सोम, सूर्य और अग्नि को अपने तीनों नेत्रों में धारण किया है। हे प्रभु! कृपा कर मुझे आज्ञा दीजिए कि मुझे क्या कार्य करना है? क्या मुझे पृथ्वी के सभी समुद्रों को एक क्षण में सुखाना है या संपूर्ण पर्वतों को पीसकर पल भर में ही मसलकर चूर्ण बनाना है? 

'हे प्रभु! मैं इस ब्रह्माण्ड को भस्म कर दूं या मुनियों को जला दूं। भगवन्, आपका आदेश पाकर मैं समस्त लोकों में उलट-पुलट कर सकता हूं। आपके इशारा करने से ही मैं जगत के समस्त प्राणियों का विनाश कर सकता हूं। आपकी आज्ञा पाकर मैं इस संसार में सभी कार्यों को कर सकता हूं।' 

'हे प्रभु! मेरे समान पराक्रमी न तो कोई हुआ है और न ही होगा। भगवन्, आपकी आज्ञा से हर कार्य सिद्ध हो सकता है। मुझे ये सभी शक्तियां आपकी ही कृपा से प्राप्त हुई हैं। बिना आपकी आज्ञा के एक तिनका भी नहीं हिल सकता है। हे करुणानिधान! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। आप अपने कार्य की सिद्धि की जिम्मेदारी मुझे सौंपिए। मैं उसे पूर्ण करने का पूरा प्रयास करूंगा।' 

हे प्रभु! आपके चरणों का मैं हर समय चिंतन करता रहता हूं। आपकी भक्ति परम उत्तम है। आप बिना कहे ही अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूरा करके उन्हें मनोवांछित और अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। आप भक्तवत्सल हैं। भगवन्, मुझे कार्य करने का आदेश दें तथा साथ ही उस कार्य की सफलता का भी आशीर्वाद दें।

सूतजी बोले - हे मुनिश्रेष्ठ! वीरभद्र के ये वचन सुनकर शिवजी को बहुत संतोष हुआ तथा उन्होंने वीरभद्र को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। भगवान शिव बोले पार्षदों में श्रेष्ठ वीरभद्र! तुम्हारी जय हो । ब्रह्माजी का पुत्र दक्ष बड़ा ही दुष्ट है। उसे अपने पर बहुत घमंड है । इस समय वह एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहा है। उसने उस यज्ञ में मेरा बहुत अपमान किया है। मेरी पत्नी ने मेरा अपमान होता हुआ देखकर उसी यज्ञ की अग्नि में अपने शरीर को भस्म कर दिया है। अब तुम सपरिवार उस यज्ञ में जाओ। वहां यज्ञशाला में जाकर तुम उस यज्ञ को विनष्ट कर दो। यदि देवता, गंधर्व अथवा कोई अन्य तुम्हारा सामना करे और तुम्हें ललकारे तो तुम उसे वहीं भस्म कर देना।

'दधीचि की दी हुई चेतावनी के बाद भी जो देवतागण वहां यज्ञ में मौजूद हैं, तुम उन्हें भी भस्म कर देना क्योंकि वे सभी मुझसे बैर रखते हैं। तुम उन सभी को बंधु-बांधवों सहित जलाकर भस्म कर देना। वहां कलशों में भरे हुए जल को पी लेना। इस प्रकार वैदिक मर्यादा के पालक, भक्तवत्सल करुणानिधान शिव ने क्रोधित होकर वीरभद्र को यज्ञ का विनाश करने का आदेश दिया।'

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-११(11) समाप्त ! 

 

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