भाग-३८(38) देव शिल्पी विश्वकर्मा की विवाह स्थान पर अद्भुत कला

 


सूतजी बोले - जब वे सप्तऋषि हिमालय से विदा लेकर कैलाश पर्वत पर चले गए तो हिमालय ने अपने सगे-संबंधियों एवं भाई-बंधुओं को आमंत्रित किया। जब सभी वहां एकत्रित हो गए तब ऋषियों की आज्ञा के अनुसार हिमालय ने अपने राजपुरोहित श्री गज से लग्न पत्रिका लिखवाई। उसका पूजन अनेकों सामग्रियों से करने के पश्चात उन्होंने लग्न पत्रिका भगवान शंकर के पास भिजवा दी। गिरिराज हिमालय के बहुत से नाते-रिश्तेदार लग्न-पत्रिका को लेकर कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के मस्तक पर तिलक लगाया और उन्हें लग्न पत्रिका दे दी। शिवजी ने उनका खूब आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात वे सभी वापिस लौट आए।

'शैलराज हिमालय ने देश के विविध स्थानों पर रहने वाले अपने सभी भाई-बंधुओं को इस शुभ अवसर पर आमंत्रित किया। सबको निमंत्रण भेजने के पश्चात हिमालय ने अनेकों प्रकार के रत्नों, वस्त्रों और बहुमूल्य आभूषणों तथा विभिन्न प्रकार की बहुमूल्य देने योग्य वस्तुओं को संगृहीत किया। तत्पश्चात उन्होंने विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री- चावल, आटा, गुड़, शक्कर, दूध, दही, घी, मक्खन, मिठाइयां तथा पकवान आदि एकत्र किए ताकि बारात का उत्तम रीति से आदर-सत्कार किया जा सके। सभी खाद्य वस्तुओं को बनाने के लिए अनेकों हलवाई लगा दिए गए। चारों ओर उत्तम वातावरण था।'

'शुभमुहूर्त में गिरिराज हिमालय ने मांगलिक कार्यों का शुभारंभ किया। घर की स्त्रियां मंगल गीत गाने लगीं। हर जगह उत्सव होने लगे। देवी पार्वती का संस्कार कराने के पश्चात वहां उपस्थित नारियों ने उनका शृंगार किया। विभिन्न प्रकार के सुंदर वस्त्रों एवं आभूषणों से विभूषित पार्वती देवी साक्षात जगदंबा जान पड़ती थीं। उस समय अनेक मंगल उत्सव और अनुष्ठान होने लगे। अनेकों प्रकार के साज-शृंगार से सुशोभित होकर स्त्रियां इकट्ठी हो गईं शैलराज हिमालय भी प्रसन्नतापूर्वक निमंत्रित बंधु-बांधवों की प्रतीक्षा करने लगे और उनके पधारने पर उनका यथोचित आदर-सत्कार करने लगे।'

'लोकोचार रीतियां होने लगीं। गिरिराज हिमालय द्वारा निमंत्रित सभी बंधु-बांधव उनके निवास पर पधारने लगे। गिरिराज सुमेरु अपने साथ विभिन्न प्रकार की मणियां और महारत्नों को उपहार के रूप में लेकर आए। मंदराचल, अस्ताचल, मलयाचल, उदयाचल, निषद, दर्दुर, करवीर, गंधमादन, महेंद्र, पारियात्र, नील, त्रिकूट, चित्रकूट, कोंज, पुरुषोत्तम, सनील, वेंकट, श्री शैल, गोकामुख, नारद, विंध्य, कालजंर, कैलाश तथा अन्य पर्वत दिव्य रूप धारण करके अपने-अपने परिवारों को साथ लेकर इस शुभ अवसर पर पधारे।' 

'सभी देवी पार्वती और शिवजी को भेंट करने के लिए उत्तम वस्तुएं लेकर आए इस विवाह को लेकर सभी बहुत उत्साहित थे। इस मंगलकारी अवसर पर शौण, भद्रा, नर्मदा, गोदावरी, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, विपासा, चंद्रभागा, भागीरथी, गंगा आदि नदियां भी नर-नारी का रूप धारण करके अनेक प्रकार के आभूषणों एवं सुंदर वस्त्रों से सज-धजकर शिव-पार्वती का विवाह देखने के लिए आईं। शैलराज हिमालय ने उनका खूब आदर-सत्कार किया तथा सुंदर, उत्तम स्थानों पर उनके ठहरने का प्रबंध किया। इस प्रकार शैलराज की पूरी नगरी, जो शोभा से संपन्न थी, पूरी तरह भर गई। विभिन्न प्रकार के बंदनवारों एवं ध्वज पताकाओं से यह नगर सजा हुआ था। चारों ओर चंदोवे लगे हुए थे। विभिन्न प्रकार की नीली-पीली, रंग-बिरंगी प्रभा नगर की शोभा को और भी बढ़ा रही थी।'

'हे मुनिश्रेष्ठ ! शैलराज हिमालय ने अपने नगर को बारात के स्वागत के लिए विभिन्न प्रकार से सजाना शुरू कर दिया। हर जगह की सफाई का विशेष ध्यान रखा गया। सड़कों को साफ कराया गया और उन पर छिड़काव कराया गया। तत्पश्चात उन्हें बहुमूल्य साधनों से सुसज्जित एवं शोभित किया गया। प्रत्येक घर के दरवाजे पर केले का मांगलिक पेड़ लगाया गया। आम के पत्तों को रेशम के धागे से बांधकर सुंदर बंदनवारें बनाई गईं। विभिन्न प्रकार के सुगंधित फूलों से हर स्थान को सजाया गया। सुंदर तोरणों से घर को शोभायमान किया गया। चारों ओर का वातावरण अत्यंत सुगंधित था। वहां का दृश्य दिव्य और अलौकिक था।'

'विश्वकर्मा को गिरिराज हिमालय ने आदरपूर्वक बुलवाया और उन्हें एक दिव्य मंडप की रचना करने को कहा। वह मंडप दस हजार योजन लंबा और चौड़ा था। वह दिव्य मंडप चालीस हजार कोस के विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था विश्वकर्मा, जो कि देवताओं के शिल्पी कहे जाते हैं, ने इस उत्तम मंडप की रचना करके अपनी कुशलता एवं निपुणता का परिचय दिया।' 

'यह मंडप अद्भुत जान पड़ता था। उस मंडप में अनेकों प्रकार के स्थावर, जंगम पुष्प तथा स्त्री-पुरुषों की मूर्तियां बनाई गई थीं जो कि इतनी सुंदर थीं कि यह निश्चय कर पाना कठिन था कि कौन ज्यादा सुंदर एवं मनोरम है? वहां जल में थल तथा थल में जल दिखाई रहा था। कोई भी मनुष्य इस कलाकृति को देखकर यह नहीं जान पा रहा था कि यहां जल है या थल। विभिन्न प्रकार के जानवरों की कलाकृतियां जीवंत बनाई गई थीं।' 

'अपनी सुंदरता से जड़ हृदयों को मोहित करते सारस कहीं सरोवर में पानी पीते दिखाई देते थे तो कहीं जंगलों में सिंह ऐसे लग रहे थे मानो अभी दहाड़ना शुरू कर देंगे । नृत्य करने की मुद्रा में बनाई गई स्त्री-पुरुषों की मूर्तियों को देखकर ऐसा लगता था मानो वाकई नर-नारी नृत्य कर रहे हों। द्वार पर खड़े द्वारपाल हाथों में धनुष बाण लेकर ऐसे खड़े थे जैसे सचमुच अभी बाणों की वर्षा शुरू कर देंगे।' 

इस प्रकार सभी कृत्रिम वस्तुएं बहुत ही सुंदर एवं मनोहर थीं, जो कि बिलकुल जीवंत लगती थीं द्वार के मध्य में देवी महालक्ष्मी की सुंदर मूर्ति की स्थापना की थी, जिन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो क्षीरसागर से निकलकर साक्षात लक्ष्मी देवी वहां आ गई हों। वे सभी शुभ लक्षणों से युक्त दिखाई दे रहीं थीं। मंडप में विभिन्न स्थानों पर हाथियों की कलाकृतियां भी बनाई गई थीं। कई स्थानों पर घोड़े घुड़सवारों सहित खड़े थे तो कहीं सुंदर अद्भुत दिव्य रथ जिन पर सफेद अश्व जुते हुए थे।' 

'मंडप के मुख्य द्वार पर नंदीश्वर, जो कि शिवजी की सवारी हैं, की मूर्ति बनाई गई थी, जो कि स्फटिक मणि के समान चमक रही थी। उसके ऊपर दिव्य पुष्पक विमान की रचना की गई थी, जिसे पल्लवों और सफेद चामरों से सजाया गया था। विश्वकर्मा द्वारा समस्त देवताओं की भी प्रतिमूर्ति की रचना की गई थी जो कि हू-ब-हू वास्तविक देवताओं से मिलती थी।'

'क्षीरसागर में निवास करने वाले श्रीहरि विष्णु एवं उनके वाहन गरुड़ की रचना भी उस मंडप में की गई थी, जिसका स्वरूप साक्षात विष्णुजी जैसा ही था । इसी प्रकार विश्वकर्मा द्वारा जगत के सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की भी प्रतिमा उनके पुत्रों और वेदों सहित बनाई गई थी। साथ ही वह प्रतिमा वैदिक सूक्तों का पाठ करती हुई दिखाई देती थी। स्वर्ग के राजा देवेंद्र अर्थात इंद्र एवं उनके वाहन ऐरावत हाथी की मूर्तियां भी जीवंत थीं।'

इस प्रकार विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई सभी कलाकृतियां कला का अद्भुत नमूना थीं जो कि दिव्य एव मनोरम थीं। जिन्हें देखकर यह जान पाना अत्यंत कठिन ही नहीं असंभव था कि वे असली हैं या फिर नकली।' 

'देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित यह दिव्य मंडप आश्चर्यों से युक्त एवं सभी को मोहित कर लेने वाला था। तत्पश्चात शैलराज हिमालय की आज्ञा के अनुसार विश्वकर्मा ने देवताओं के रहने के लिए कृत्रिम लोकों का निर्माण किया जो कि अद्भुत थे। साथ ही उनके बैठने के लिए दिव्य सिंहासनों की भी रचना की गई। ब्रह्माजी के रहने के लिए विश्वकर्मा ने सत्यलोक की रचना की जो दीप्ति से प्रकाशित हो रहा था। तत्पश्चात श्रीहरि विष्णु के लिए बैकुंठ का निर्माण किया गया।' 

'देवराज इंद्र के लिए समस्त ऐश्वर्यों से संपन्न दिव्य स्वर्गलोक की रचना की गई। अन्य देवताओं के लिए भी उन्होंने सुंदर एवं अद्भुत भवनों की रचना की। देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने पलक झपकते ही इस अद्भुत कार्य को मूर्त रूप दे दिया। सभी देवताओं के रहने हेतु उनके दिव्य लोकों जैसे कृत्रिम लोकों का निर्माण करने के पश्चात विश्वकर्मा ने भक्तवत्सल भगवान शिव के ठहरने हेतु एक सुंदर, मनोरम एवं अद्भुत घर का निर्माण किया। यह भवन भगवान शिव के कैलाश स्थित धाम के अनुरूप ही था।' 

'यहां शिव चिह्न शोभा पाता था । यह भवन परम उज्ज्वल, दिव्य प्रभापुंज से सुभासित, उत्तम और अद्भुत था इस भवन की सभी ने बहुत प्रशंसा की। यहां तक कि स्वयं भगवान शिव भी उसे देखकर आश्चर्यचकित हो गए और विश्वकर्मा की इन रचनाओं को उन्होंने बहुत सराहा। विश्वकर्मा की यह रचना अद्भुत थी। इस प्रकार जब सुंदर एवं दिव्य मनोरम मंडप की रचना हो गई और सभी देवताओं के ठहरने के लिए यथायोग्य लोकों का भी निर्माण कर दिया गया तो शैलराज हिमालय ने विश्वकर्मा को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। तत्पश्चात हिमालय प्रसन्नतापूर्वक भगवान शिव के शुभागमन की प्रतीक्षा करने लगे।

 इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-३८(38) समाप्त !


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