सूतजी बोले - हे ऋषियों ! इस प्रकार दैत्यराज जलंधर का देवाधिदेव भगवान शिव के हाथों से वध देखकर सब ओर प्रसन्नता छा गई। सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी और श्रीहरि विष्णु भी हर्षित हुए।
तब वे करुणानिधान भगवान शिव को धन्यवाद देने लगे और उनकी स्तुति करने लगे और बोले - हे करुणानिधान! हे कृपानिधान देवाधिदेव भगवान शिव! आप प्रकृति से परे हैं। भगवन्! आप ही परमब्रह्म परमेश्वर हैं। प्रभो! हम सब देवता आपके दास हैं और आपकी आज्ञा की पूर्ति करने हेतु कार्य करते हैं । हे देवेश! आप हम पर प्रसन्न हों। हे प्रभु! जब भी देवताओं पर कोई विपत्ति पड़ी है, आपने हमारी सहायता की है और हमें अनेक दैत्यों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई है। हम सदा ही आपके चरणों की वंदना करते हैं और आपके अनोखे दिव्य स्वरूप का ही स्मरण करते हैं। आपके ही कारण हमारा भी अस्तित्व है। आपके बिना हम कुछ भी नहीं हैं। आप भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों का हित करते हैं। इस प्रकार भगवान शिव की वंदना करके सभी देवता चुप हो गए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
तब भगवान शिव बोले - हे देवताओ! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि मैं हमेशा तुम्हारे अभीष्ट कार्यों की सिद्धि करूंगा। तुम्हारे दुखों को मैं सदा दूर करूंगा। इसके अतिरिक्त तुम और कुछ भी चाहो तो मुझसे मांग सकते हो। परंतु उन्होंने उनकी कृपादृष्टि बनाए रखने के अतिरिक्त उनसे कुछ नहीं मांगा। तब उन देवताओं को आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता करने का आश्वासन देकर देवाधिदेव भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए।
'इस प्रकार जब त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल शिव ने देवताओं को उनकी सहायता का आश्वासन दिया तो सभी देवता हर्ष से फूले नहीं समाए और भगवान शिव की महिमा का गुणगान और जय-जयकार करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम को वापस चले गए।'
ऋषिगण बोले – हे महामुनि सूतजी ! जब भगवान श्रीहरि विष्णु की माया से मोहित होकर जलंधर पत्नी वृंदा छद्म भेष धारण किए विष्णुजी को अपना पति मानकर उनके साथ रमण करने लगी तब श्रीहरि की भी उनसे प्रीति जुड़ गई। वास्तविकता जान लेने के बाद कि जलंधर के रूप में भगवान श्रीहरि ने उसके साथ छल किया है, उसने अग्नि में जलकर अपने प्राणों की आहुति दे दी। तब फिर आगे क्या हुआ? भगवान विष्णु कहां गए और उन्होंने क्या किया? तुलसी के रूप में वृंदा का जन्म कैसे और कब हुआ? कृपया वह कथा हमें बताइए।
सूतजी बोले – हे ऋषिगणों ! मैं आपके सभी प्रश्नों का उत्तर देता हूं। मेरी कथा सुनिए, आपकी सभी जिज्ञासाएं दूर हो जाएंगी। जलंधर ने भगवान् शिव के हाथों मृत्यु पायी। किन्तु वृंदा के शाप के फलस्वरूप यहीं जलंधर त्रेता युग में महाबलशाली रावण के रूप में जन्मा। जब वृंदा ने विष्णुजी द्वारा ठगे जाने पर अपने शरीर का त्याग कर दिया तो भगवान विष्णु को बहुत दुख हुआ और वे वृंदा की चिता की राख को अपने शरीर पर लपेट कर इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे।
'इधर, जब देवताओं को भगवान श्रीहरि विष्णु की इस हालत के बारे में पता चला तो वे सब बहुत चिंतित हुए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु को इस तरह दर-दर भटकना शोभा नहीं देता। जब देवताओं को इस समस्या का कोई हल नहीं सूझा तब वे देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्माजी को साथ लेकर देवराज इंद्र देवताओं सहित कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात शिव के पूछने पर देवताओं ने वहां आने का प्रयोजन शिवजी को बताया।'
देवताओं ने कहा - हे देवाधिदेव! करुणानिधान! भक्तवत्सल शिव! आप तो सर्वेश्वर हैं, सर्वज्ञाता हैं। इस संसार की कोई बात आपसे छिपी नहीं है। भगवन्! भगवान श्रीहरि विष्णु ने दैत्यराज जलंधर की पत्नी वृंदा को जलंधर का रूप लेकर ठगा परंतु उसके साथ-साथ रहते श्रीविष्णु की उनमें प्रीति हो गई और अब वे उनका वियोग सह नहीं पा रहे हैं। वे अपने शरीर पर वृंदा की चिता की आग लपेटकर जोगी बनकर इधर-उधर घूम रहे हैं। प्रभो! आप उन्हें समझाइए कि वे ऐसा न करें। भगवन्! यह जगत आपके अधीन है और आपको ही इस समय उनकी सहायता करनी है, जिससे वे पहले की भांति होकर अपने कार्यों को पूरा करें।
देवताओं की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव बोले - हे ब्रह्माजी! हे देवराज इंद्र व अन्य देवताओ! यह सारा जगत माया के अधीन है परंतु इस जगत की जननी मूल प्रकृति परम मनोहर महादेवी पार्वती इस माया के वशीभूत नहीं हैं। उन पर इस माया जाल का कोई असर नहीं पड़ता। इसलिए आप भगवान श्रीहरि विष्णु के इस मोहमाया के जाल को दूर करने के लिए आदि देवी प्रकृति की आधारभूत देवी पार्वती की शरण में जाइए। यदि आपके द्वारा वे प्रसन्न हो गईं तो आपकी हर एक समस्या का समाधान हो जाएगा और वे आपके कार्यों को पूर्ण करेंगी।
देवाधिदेव महादेव भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं को अत्यंत प्रसन्नता हुई और वे भगवान शिव से आज्ञा लेकर मूल प्रकृति की शरण में चले गए। इस प्रकार जब देवता प्रकृति देवी की शरण में जा रहे थे, उस समय वहां आकाशवाणी हुई - हे देवताओ! मैं ही तीन प्रकार से तीनों प्रकार के गुणों से अलग होकर निवास करती हूं। मैं सत्यगुण में गौरा बनकर, रजोगुण में लक्ष्मी और तमोगुण में ज्योति बनकर इस जगत को आलोकित करती हूं। इसलिए आप अपनी इच्छापूर्ति हेतु देवी जगदंबा की शरण में जाओ। वे अवश्य ही तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगी।
यह आकाशवाणी सुनते ही सभी देवता गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती को हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे और मन में उनका वंदन और स्तुति करने लगे। इस प्रकार जब देवताओं ने शुद्ध हृदय से तीनों देवियों का स्मरण किया। तब वे तीनों देवियां वहां प्रकट हो गईं। देवियों को साक्षात अपने सामने पाकर देवता बहुत हर्षित हुए और गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती की वंदना और पूजन-अर्चन करने लगे।
तब तीनों देवियों ने मुस्कराकर कहा - हे देवताओ! हम तीनों देवियां तुम्हारी स्तुति से बहुत प्रसन्न हैं। तुम जो कुछ चाहते हो, हमें बताओ। हम तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगी।
'देवियों के इस कथन को सुनकर देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए देवराज इंद्र ने भगवान श्रीहरि विष्णु के बारे में सबकुछ गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती देवी को बता दिया। तब उन्होंने कुछ बीज देवताओं को दिए और कहा कि ये बीज ले जाकर तुम देवी वृंदा की चिता की राख में बो दो। ऐसा करने से तुम्हारे अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होगी। उन बीजों को लेकर देवताओं ने तीनों देवियों का धन्यवाद व्यक्त किया। तब देवियां वहां से अंतर्धान हो गईं।'
'तत्पश्चात ब्रह्माजी सहित सभी देवता उस स्थान पर पहुंचे, जहां देवी वृंदा ने अपने प्राणों की आहुति अग्नि में दी थी। वहां पहुंचकर उन्होंने देवी द्वारा दिए गए उन बीजों को वृंदा की चिता की राख में डाल दिया। तब उन बीजों में से कुछ दिन पश्चात धात्री, मालती और तुलसी नामक वनस्पतियां पैदा हुईं। देवी सरस्वती द्वारा दिए गए बीजों से धात्री, देवी महालक्ष्मी के बीजों से मालती और देवी गौरी के बीजों से तुलसी का आविर्भाव हुआ। जैसे ही धात्री, मालती और तुलसी नामक ये स्त्री रूपी वनस्पतियां उत्पन्न हुईं और भगवान श्रीहरि विष्णु ने उन्हें देखा तो उन पर से माया का परदा हट गया और वे पहले की भांति हो गए। वे उन वनस्पतियों पर अपनी कृपादृष्टि रखने लगे और तभी से धात्री, मालती और तुलसी नामक इन वनस्पतियों को भी विष्णुजी से विशेष अनुराग हो गया। तब भगवान श्रीहरि विष्णु पुनः बैकुण्ठ लोक को चले गए।'
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