भाग-९(9) नल और नील का जन्म, विश्वकर्मा की शाप से मुक्ति तथा भगवान सूर्य का अपने शिष्य हनुमान से दक्षिणा मांगना


अगस्त्यजी कहते हैँ - रघुनंदन! विश्वकर्मा देव को उनके वानर रूप से मुक्ति दिलाने के लिए बालक मारुति गहन विचार मुद्रा में आ जाते हैं। उनकी ऐसी अवस्था देखकर वायु देव नारदजी से कहते हैं - देवर्षि! आप बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं कृपा कर कोई मार्ग निकालें हमें क्या करना चाहिये। महादेवजी ने मारुति की सहायता करने का जो आदेश हमें दिया था उसे किस प्रकार पूर्ण किया जाए। 

वायु देव को विचलित देखकर नारद जी उन्हें कहते है - वायु देव आपके पुत्र मारुति शाप के कारण अपनी चमत्कारिक शक्तियों को भूल चुके हैं। इन्हें इनकी शक्ति का स्मरण करवाना अत्यंत आवश्यक है। 

'तदनन्तर वायुदेव और नारदजी बालक मारुति को उनकी शक्तियों का स्मरण कराते हैं। इसके उपरांत विश्वकर्मा देव की पुत्री चित्रांगदा के साथ जैसे ही राजा सूरत मंडप में बैठते हैं उसी क्षण उनको मूर्छा आ जाती है। उसके शरीर से जैसे ही प्राण निकलने वाले होते हैं तभी बालक मारुति अपना दायां हाथ राजा सूरत के शीश पर रख देते हैं। मारुति के तेज और असीम बल के प्रभाव से सूरत के प्राण उसके शरीर से निकल नहीं पाते हैं। तब ऋषि ऋतिकध्वज विश्वकर्मादेव से अपनी पुत्री का पाणिग्रहण अतिशीघ्र करने का अनुरोध करते हैं। जैसे ही पाणिग्रहण पूर्ण होता है राजा सूरत की मूर्छा टूट जाती है। इस चमत्कार को देख वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं।' 

मारुति द्वारा किये गए इस चमत्कार से प्रसन्न देवर्षि नारद बोले - हे मारुति ! तुम धन्य हो, तुम्हारे इस कार्य से अब तुम सदैव संकट मोचन के नाम से प्रसिद्ध हो जाओगे। तुम अत्यंत बलशाली होने के साथ बुद्धिमान भी हो। राजा सूरत जिस समय मूर्छित हुए थे वास्तव में वह मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। यदि उनके शरीर से प्राण निकल जाते तो उनका पुनः लौटना कदाचित संभव नहीं होता। किन्तु तुमने अपनी बुद्धि और बल से राजा सूरत के प्राणों को उसके शरीर से निकलने ही नहीं दिया। इस प्रकार विश्वकर्मा देव का अपनी पुत्री को दिया हुआ शाप भी निष्फल नहीं हुआ और राजा सूरत के प्राणों की भी रक्षा हो गयी। 

'नारदजी के मुख से बालक मारुति की प्रशंसा सुनकर सभी ने हनुमानजी के नाम का उच्च स्वर में 'जय घोष' किया। राजा सूरत और चित्रांगदा ने मारुति को भगवन रूद्र का अंश मानकर तथा उनके संकट का निवारण करने पर आदर सहित नमन किया।' 

'रघुनन्दन ! इस प्रकार राजा सूरत और चित्रांगदा के विवाह के पूर्ण होने के पश्चात बालक मारुति ने देवताओं के सहयोग से स्वर्ग की अप्सरा गृताची और विश्वकर्मा देव का पुनर्मिलन करवाया। गृताची से विश्वकर्मा देव को दो वानर पुत्रों नील और नल के पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन दोनों के जन्म लेने के पश्चात विश्वकर्मा देव को ऋषि ऋतिकध्वज से मिला शाप हट गया तथा उनका मुख पूर्व की भांति (वानर मुख हट गया) हो गया।'        

'नील और नल दोनों भाई अपने बाल्यकाल में नटखट थे। जहाँ कहीं वे ऋषियों को तप में लीन देखते वे अवसर का लाभ उठाकर उनके आश्रम का सामान पास की किसी नदी या सागर में फेंक देते। किन्तु उनके बालपन को देखकर ऋषियों ने उन पर क्रोध नहीं किया। जब उन दोनों की शरारत बहुत अधिक बढ़ गयी तो एक दिन ऋषियों ने शाप दिया कि जो भी वस्तु वे जल में फेंकेंगे वह तैरने लग जाएगी।' 

'श्रीराम ! उनको मिला यह शाप आपकी लीला से वरदान बन गया। अपने पिता कि भांति शिल्प कर्म में प्रवीण होने से उन दोनों भाइयों ने लंका पर चढ़ाई के समय कल्याणकारी सेतु का निर्माण किया। इस प्रकार आपके परम प्रिय हनुमानजी ने अपने बाल्यकाल में ही कई चमत्कार किये हैं। इनके अद्भुत पराक्रमों में से एक ओर पराक्रम मैं आपको सुनाता हूँ।'

जब हनुमानजी भगवान सूर्य से अपनी शिक्षा पूर्ण कर चुके थे। तब इन्होंने अपने गुरु से दक्षिणा लेने का विनम्र आग्रह किया। अपने शिष्य की सराहना करते हुए भगवान विवस्वान बोले - पुत्र हनुमान ! तुम्हारा कल्याण हो ! तुमने अपने सेवा-भाव और अपनी शिक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा से मुझे अत्यंत प्रभावित किया है। अब मैं तुम्हें जो कहता हूँ उसे सुनो। हे मारुति बल और बुद्धि में आज तुम्हारे समान कोई नहीं है। तुन्हे अष्ट सिद्धि और नव निधि का वरदान प्राप्त है। सर्वप्रथम यदि तुम मुझे दक्षिणा देना चाहते हो तो मैं तुमसे अपना पुत्र शनि मांगता हूँ। वह मेरा पुत्र भगवान शिव की कृपा से मेरे पश्चात सभी ग्रहों में उत्तम स्थान रखता है तथा न्यायाधीश कहलाता है। उसकी टेढ़ी दृष्टि जिस किसी पर पड़ जाए वह अपने किये हुए कर्मों के अनुसार उसका फल भोगता है। उसने मुझे कई बार अपनी उसी टेढ़ी दृष्टि से अपने वश में किया है। 

'जब अपने बाल्यकाल में तुम मुझे फल समझकर मेरा भक्षण करने आये थे उस समय शनि के आदेश पर ही राहु मुझे ग्रसित करने आया था। किन्तु तुम उसके मार्ग में अवरोध बन गए और मैं उसके द्वारा ग्रसित होने से बच गया। मेरे पुत्र शनि को अपने पद का अभिमान हो गया है। उसे लगता है जिस प्रकार वह संसार के सभी प्राणियों को नाचता है, उसे उसके कर्मों का फल देने वाला कोई नहीं है। वह मेरा भी अपमान करता है तथा मुझसे अलग-थलग रहता है। प्रिय हनुमान तुम पर मुझे पूर्ण विश्वास है। मेरे उस अभिमानी पुत्र को सन्मार्ग पर लाने में केवल तुम ही समर्थ हो। अपनी बुद्धि और कौशल से इससे पहले भी तुमने बहुत से प्राणियों के संकट हरे हैं। हे आंजनेय ! आज अपने गुरु के संकट को हरो।'

'अपने गुरु को प्रणाम कर हनुमानजी ने बिना इस बात का विचार किये कि शनि कि टेढ़ी दृष्टि अत्यंत मारक है वे उनका कष्ट हरने के लिए शनि लोक की तरफ बढ़ चले।'

इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-९(9) समाप्त !

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