तदनन्तर उन श्रेष्ठ देवताओं द्वारा इस प्रकार रावणवध के लिये नियुक्त होने पर सर्वव्यापी नारायण ने रावणवध के उपाय को जानते हुए भी देवताओं से यह मधुर वचन कहा - देवगण! राक्षसराज रावण के वध के लिये कौन-सा उपाय है, जिसका आश्रय लेकर मैं महर्षियों के लिये कण्टक रूप उस निशाचर का वध करूँ?
उनके इस तरह पूछने पर सब देवता उन अविनाशी भगवान् विष्णु से बोले – प्रभो! आप मनुष्य का रूप धारण करके युद्ध में रावण को मार डालिये। उस शत्रुदमन निशाचर ने दीर्घकाल तक तीव्र तपस्या की थी, जिससे सब लोगों के पूर्वज लोकस्रष्टा ब्रह्माजी उसपर प्रसन्न हो गये। उस पर संतुष्ट हुए भगवान् ब्रह्मा ने उस राक्षस को यह वर दिया कि तुम्हें नाना प्रकार के प्राणियों में से मनुष्य के सिवा और किसी से भय नहीं है।
‘पूर्वकाल में वरदान लेते समय उस राक्षस ने मनुष्यों को दुर्बल समझकर उनकी अवहेलना कर दी थी। इस प्रकार पितामह से मिले हुए वरदान के कारण उसका घमण्ड बढ़ गया है। शत्रुओं को संताप देनेवाले देव ! वह तीनों लोकों को पीड़ा देता और स्त्रियों का भी अपहरण कर लेता है; अत: उसका वध मनुष्य के हाथ से ही निश्चित हुआ है।'
समस्त जीवात्माओं को वश में रखने वाले भगवान् विष्णु ने देवताओं की यह बात सुनकर अवतार काल में राजा दशरथ को ही पिता बनाने की इच्छा की। उसी समय वे शत्रुसूदन महातेजस्वी नरेश पुत्रहीन होने के कारण पुत्रप्राप्ति की इच्छा से पुत्रेष्टियज्ञ कर रहे थे। उन्हें पिता बनाने का निश्चय करके भगवान् विष्णु पितामह की अनुमति ले देवताओं और महर्षियों से पूजित हो वहाँ से अन्तर्धान हो गये।
तत्पश्चात् पुत्रेष्टि यज्ञ करते हुए राजा दशरथ के यज्ञ में अग्निकुण्ड से एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उसके शरीर में इतना प्रकाश था, जिसकी कहीं तुलना नहीं थी। उसका बल पराक्रम महान् था।
उसकी अंगकान्ति काले रंग की थी। उसने अपने शरीर पर लाल वस्त्र धारण कर रखा था। उसका मुख भी लाल ही था। उसकी वाणी से दुन्दुभि के समान गम्भीर ध्वनि प्रकट होती थी। उसके रोम, दाढ़ी-मूंछ और बड़े-बड़े केश चिकने और सिंह के समान थे। वह शुभ लक्षणों से सम्पन्न, दिव्य आभूषणों से विभूषित, शैलशिखर के समान ऊँचा तथा गर्वीले सिंह के समान चलने वाला था।
उसकी आकृति सूर्य के समान तेजोमयी थी। वह प्रज्वलित अग्नि की लपटों के समान देदीप्यमान हो रहा था। उसके हाथ में तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्ण की बनी हुई परात थी, जो चाँदी के ढक्कन से ढकी हुई थी। वह (परात) थाली बहुत बड़ी थी और दिव्य खीर से भरी हुई थी। उसे उस पुरुष ने स्वयं अपनी दोनों भुजाओं पर इस तरह उठा रखा था, मानो कोई रसिक अपनी प्रियतमा पत्नी को अङ्क में लिये हुए हो। वह अद्भुत परात मायामयी- सी जान पड़ती थी।
उसने राजा दशरथ की ओर देखकर कहा - नरेश्वर ! मुझे प्रजापतिलोक का पुरुष जानो। मैं प्रजापति की ही आज्ञा से यहाँ आया हूँ।
तब राजा दशरथ ने हाथ जोड़कर उससे कहा - भगवन्! आपका स्वागत है । कहिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?
फिर उस प्राजापत्य पुरुषने पुन: यह बात कही - राजन्! तुम देवताओं की आराधना करते हो; इसीलिये तुम्हें आज यह वस्तु प्राप्त हुई है। नृपश्रेष्ठ! यह देवताओं की बनायी हुई खीर है, जो संतान की प्राप्ति कराने वाली है। तुम इसे ग्रहण करो। यह धन और आरोग्य की भी वृद्धि करनेवाली है। राजन्! यह खीर अपनी योग्य पत्नियों को दो और कहो – 'तुमलोग इसे खाओ।' ऐसा करने पर उनके गर्भ से आपको अनेक पुत्रों की प्राप्ति होगी, जिनके लिये तुम यह यज्ञ कर रहे हो।
राजा ने प्रसन्नतापूर्वक 'बहुत अच्छा' कहकर उस दिव्य पुरुष की दी हुई देवान्न से परिपूर्ण सोने की थाली को लेकर उसे अपने मस्तक पर धारण किया। फिर उस अद्भुत एवं प्रियदर्शन पुरुष को प्रणाम करके बड़े आनन्द के साथ उसकी परिक्रमा की।
इस प्रकार देवताओं की बनायी हुई उस खीर को पाकर राजा दशरथ बहुत प्रसन्न हुए, मानो निर्धन को धन मिल गया हो। इसके बाद वह परम तेजस्वी अद्भुत पुरुष अपना वह काम पूरा करके वहीं अन्तर्धान हो गया। उस समय राजा के अन्त: पुर की स्त्रियाँ हर्षोल्लास से बढ़ी हुई कान्तिमयी किरणों से प्रकाशित हो ठीक उसी तरह शोभा पाने लगीं, जैसे शरतकाल के नयनाभिराम चन्द्रमा की रम्य रश्मियों से उद्भासित होने वाला आकाश सुशोभित होता है।
राजा दशरथ वह खीर लेकर अन्त: पुर में गये और कौशल्या से बोले – देवि! यह अपने लिये पुत्र की प्राप्ति कराने वाली खीर ग्रहण करो।
ऐसा कहकर नरेश ने उस समय उस खीर का आधा भाग महारानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुआ आधा भाग रानी सुमित्रा को अर्पण किया । उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बच रही, उसका आधा भाग तो उन्होंने पुत्रप्राप्ति के उद्देश्य से कैकेयी को दे दिया। तत्पश्चात् उस खीर का जो अवशिष्ट आधा भाग था, उस अमृतोपम भाग को महाबुद्धिमान् नरेश ने कुछ सोच- विचारकर पुनः सुमित्रा को ही अर्पित कर दिया। इस प्रकार राजा ने अपनी सभी रानियों को अलग-अलग खीर बाँट दी।
महाराज की उन सभी साध्वी रानियों ने उनके हाथ से वह खीर पाकर अपना सम्मान समझा। उनके चित्त में अत्यन्त हर्षोल्लास छा गया। उस उत्तम खीर को खाकर महाराज की उन तीनों साध्वी महारानियों ने शीघ्र ही पृथक्-पृथक् गर्भ धारण किया। उनके वे गर्भ अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी थे। तदनन्तर अपनी उन रानियों को गर्भवती देख राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने समझा, मेरा मनोरथ सफल हो गया। जैसे स्वर्ग में इन्द्र, सिद्ध तथा ऋषियों से पूजित हो श्रीहरि प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार भूतल में देवेन्द्र, सिद्ध तथा महर्षियों से सम्मानित हो राजा दशरथ संतुष्ट हुए थे।
इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-८(8) समाप्त !
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