भाग-८(8) श्रीविष्णु द्वारा वृंदा का पतिव्रत भंग तथा शिवजी द्वारा जलंधर का वध

 


ऋषियों ने कहा – सूतजी! जब माता पार्वती की आज्ञा पाकर भगवान विष्णु सागर पुत्र जलंधर की नगरी को चले गए, तब फिर आगे क्या हुआ? उन्होंने वहां जाकर क्या किया ?

ऋषियों का प्रश्न सुनकर सूतजी मुस्कुराए और बोले - हे ऋषियों ! दैत्यराज जलंधर की नगरी में पहुंचकर श्रीहरि विष्णु सोच में पड़ गए कि वे क्या करें परंतु अगले ही पल उन्हें समझ में आ गया कि जैसे को तैसा। उन्होंने सोचा कि जिस प्रकार जलंधर ने छद्म शिव रूप धारण करके देवी पार्वती को छलने की कोशिश की थी, वे भी वहां जाकर उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग करेंगे। वे जानते थे कि जलंधर अपनी पत्नी के पतिव्रत धर्म से ही अभी तक बचा हुआ है। इसलिए उसका पतिव्रत धर्म नष्ट करना आवश्यक है । मन में यह विचार आते ही वे नगर के राज उद्यान में जाकर ठहर गए।

'दूसरी ओर दैत्यराज जलंधर की पतिव्रता पत्नी वृंदा अपने कक्ष में सो रही थी। भगवान श्रीहरि विष्णु की माया के फलस्वरूप उन्होंने रात्रि में एक सपना देखा। उसने देखा कि उसका पति निर्वस्त्र होकर सिर पर तेल लगाकर और गले में काले रंग के फूलों की माला पहनकर भैंसे पर बैठा है और उसके चारों ओर हिंसक जीव-जंतु उसको घेरे खड़े हैं। उस समय चारों ओर घोर अंधकार फैला हुआ था और वह दक्षिण दिशा की ओर बढ़ता जा रहा था। ऐसा सपना देखकर वह भयभीत हो गई और उसकी आँखें खुल गई।' 

'तभी उसने देखा कि सूर्य उदय हो रहा है परंतु वह सूर्य अत्यंत कांतिहीन था और उसे सूर्य में एक छेद भी दिखाई दे रहा था। यह सब देखकर वृंदा का मन बहुत व्याकुल हो उठा और वह इधर-उधर टहलने लगी। कभी छज्जे और अटारी पर चढ़ती तो कभी जमीन पर बैठ जाती परंतु उसे चैन नहीं था?'

'जब इस प्रकार वृंदा का मन शांत नहीं हुआ तो वह मन की शांति प्राप्त करने हेतु उद्यान की ओर चल दी परंतु उस निर्जन उद्यान में उसके पीछे सिंह के समान दो भयंकर राक्षस पड़ गए। वृंदा उन्हें देखकर बहुत डर गई और अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए वहां से भागने लगी। भागते हुए उसे सामने से आते हुए एक तपस्वी दिखाई दिए। भयभीत वृंदा उन मुनि से अपने जीवन की रक्षा करने के लिए प्रार्थना करने लगी।' 

उन तपस्वी ने अपने कमण्डल से जल निकालकर उन राक्षसों को ललकारते हुए उन पर जल छिड़क दिया। जल छिड़कते ही दोनों राक्षस वहां से भाग खड़े हुए। तब वृंदा ने दोनों हाथ जोड़कर उन तपस्वी को प्रणाम किया तथा उनका धन्यवाद व्यक्त किया। तत्पश्चात उनको अत्यंत दिव्य और शक्तिशाली जानकर वृंदा ने उन मुनि से अपने पति दैत्यराज जलंधर के विषय में पूछा।' 

मुनि ने उत्तर दिया - देवी तुम्हारा पति तो युद्ध में मारा गया है। यह कहकर उन्होंने कुछ इशारा किया, जिसके फलस्वरूप दो वानर उनके सामने प्रकट हो गए। अगले ही पल उन तपस्वी का संकेत पाकर वे वानर आकाश मार्ग से उड़कर चले गए और कुछ समय पश्चात दैत्यराज जलंधर का कटा हुआ सिर और उसके अन्य सामान को लेकर लौट आए।

'अपने पति जलंधर का कटा हुआ सिर देखकर वृंदा मूर्छित होकर गिर पड़ी। कुछ समय पश्चात होश में आने पर रोते हुए वृंदा उन मुनि से प्रार्थना करने लगी कि वे उसके पति को पुनः जीवित कर दें। यह कहकर वह बहुत जोर-जोर से रोने लगी और बोली कि यदि आप मेरे पति को जीवनदान नहीं दे सकते तो मुझे भी मृत्यु दे दें।'

वृंदा के इस प्रकार के वचन सुनकर मुनि बोले - हे देवी! तुम्हारे पति का वध त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के द्वारा हुआ है। अतः उसको जीवित करना देवाधिदेव भगवान शिव का विरोध करना है परंतु अपनी शरण में आए हुए मनुष्य की रक्षा करना मेरा भी धर्म है। इसलिए मैं तुम्हारे पति को पुनः जीवित अवश्य करूंगा। 

'यह कहकर उन्होंने अपने कमण्डल से जल निकाला और मंत्रोच्चारण करते हुए जलंधर पर छिड़का, जिसके फलस्वरूप वह जीवित हो गया। जलंधर को जीवन दान देकर वे तपस्वी वहां से अंतर्धान हो गए। वस्तुतः उस तपस्वी ने ही सूक्ष्म रूप से जलंधर की काया में प्रवेश कर लिया था। दरअसल, तपस्वी का रूप धारण करने वाले वे मुनि और कोई नहीं स्वयं श्रीहरि विष्णु थे।' 

'अपने पति को अपने पास पाकर देवी वृंदा बहुत खुश हुई और तुरंत अपने पति के गले लग गई। उसने उन सब बातों को भयानक स्वप्न समझकर भुला दिया फिर बहुत समय तक उस छद्म वेशधारी जलंधर के साथ वन में ही रमण करती रही परंतु मायावी की माया भला कब तक छिप सकती थी? एक दिन वृंदा को ज्ञात हो गया कि उसके साथ विहार करने वाला पुरुष और कोई नहीं स्वयं श्रीहरि विष्णु हैं, जो कि उसके पति का रूप धारण करके उसे छल रहे हैं।'

सम्पूर्ण वास्तविकता जानकर देवी वृंदा बहुत दुखी हुई । तब वह श्रीहरि विष्णु से बोली - तुमने एक पराई स्त्री का उसका पति बनकर उपभोग किया है। तुम्हें धिक्कार है। मैं किस प्रकार अपने पति का सामना कर सकती हूं? अब मुझे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है पर तुम्हें तुम्हारी करनी का दंड अवश्य ही मिलेगा। तुमने मुझे अबला जानकर मेरा उपभोग किया है। मैं तुम्हें शाप देती हूं कि जिन राक्षसों से तुमने मुझे भयभीत कर मेरा विश्वास जीता था, वे ही राक्षस तुम्हारी पत्नी का भी हरण करेंगे और तुम उसके वियोग में चारों ओर भटकोगे। तब यही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। मेरा अगला जन्म तुलसी के रूप में होगा और मेरी संजीवनी-शक्ति ही मेरी पवित्रता का प्रमाण होगी।

भगवान श्रीहरि विष्णु को इस प्रकार शाप देकर असुरश्रेष्ठ जलंधर की पत्नी वृंदा ने अग्नि में प्रवेश कर लिया और उसमें अपने प्राणों की आहुति दे दी। उस अग्नि में से एक तेज प्रकट हुआ और वह जाकर देवी पार्वती में समा गया।

ऋषियों ने पूछा - हे तात! उधर, जब असुरराज जलंधर द्वारा फैलाई गई गंधर्व माया से मोहित होकर सभी देवताओं सहित भगवान शिव भी युद्ध को भूलकर अप्सराओं का नृत्य गान देखने में व्यस्त हो गए तब क्या हुआ? उधर, जब जलंधर को पहचानकर देवी पार्वती कैलाश पर्वत से अंतर्धान हो गईं तब वहां क्या हुआ? भगवान शिव ने क्या किया?

सूतजी बोले - हे ऋषिगणों ! जब जलंधर को अपने सामने भगवान शिव के रूप में देखकर देवी पार्वती ने यह जान लिया कि वह कोई बहुरूपिया है तो वे तुरंत वहां से अंतर्धान हो गईं। उनके अंतर्धान होते ही सारी माया वहां से गायब हो गई। माया के गायब होते ही सभी देवता अपनी-अपनी चेतना में आ गए। उधर, देवाधिदेव भगवान शिव की चेतना भी वापस लौट आई और जलंधर की माया को जानकर उन्हें अत्यधिक क्रोध आ गया। तब जलंधर भी देवी पार्वती के अचानक वहां से गायब हो जाने के कारण तुरंत ही युद्धभूमि में लौट आया। 

'तत्पश्चात भगवान शिव और असुरराज जलंधर में बड़ा भयानक युद्ध होने लगा। परंतु त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की वीरता और बल के सामने वह तुच्छ असुर कहां टिक पाता? यह बात जल्द ही उसे समझ आ गई कि सर्वेश्वर शिव को जीत पाना आसान नहीं है बल्कि असंभव है। तब असुरराज जलंधर ने भगवान शिव को जीतने के लिए माया का सहारा लिया। उसने तुरंत अपनी माया द्वारा पार्वती को प्रकट किया और उन्हें अपने रथ पर बांध लिया। जलंधर के दो सेनापति शुंभ और निशुंभ अपने हाथों में भयानक अस्त्र लेकर देवी पार्वती को मारने के लिए उन पर झपट रहे थे और देवी पार्वती रोते हुए अपनी सहायता के लिए अपने आराध्य भगवान शिव को पुकार रही थीं।'

'यह दृश्य देखकर भगवान शिव भी अत्यंत चिंतित हो गए। अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती को इस प्रकार कष्ट में देखकर वे व्याकुल हो उठे। तब अपनी प्रिया पार्वती को दैत्येंद्र जलंधर से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने बड़ा भयानक रूप धारण कर लिया। उनका वह रौद्र रूप देखकर राक्षसी सेना भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी और छिपने का प्रयास करने लगी।' 

'उधर, दैत्य सेना के प्रधान शुंभ और निशुंभ भी डर गए और युद्ध से बचने का प्रयास करने लगे। उनके भयभीत होते ही जलंधर की माया समाप्त हो गई। युद्धभूमि में हाहाकार मच गया। सब इधर-उधर दौड़ रहे थे। जब शुंभ-निशुंभ भी अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए भाग रहे थे, तब भगवान शिव ने उन्हें ललकारा परंतु वे फिर भी युद्ध के लिए तत्पर न हुए।' 

भगवान शिव बोले- तुम तो देवी पार्वती को मारने बढ़ रहे थे, अब क्यों भयभीत होकर भाग रहे हो? आओ और मेरे साथ युद्ध करके अपनी वीरता का परिचय दो। भगवान शिव के वचनों का उन दोनों पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा और वे भागते रहे। 

तब क्रोधवश भगवान शिव ने शुंभ-निशुंभ को शाप देते हुए कहा - हे दुष्ट असुरो ! युद्ध में कभी भी पीठ दिखाने वाले पर वार नहीं करना चाहिए। इसलिए मैं तुम दोनों को छोड़ रहा हूं परंतु जिनको तुम मारने का प्रयत्न कर रहे थे, वे ही देवी पार्वती तुम दोनों का एक दिन वध करेंगी। 

'भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर क्रोध से भरा जलंधर उन पर झपटा। उसने भयानक बाण चलाकर पूरी पृथ्वी पर अंधकार कर दिया। इससे भगवान शिव का क्रोध अत्यधिक बढ़ गया और उन्होंने अपने चरणांगुष्ट से बने हुए सुदर्शन चक्र को चला दिया। उस चक्र ने तुरंत जलंधर के सिर को उसके धड़ से अलग कर दिया।'

'जब चक्र ने असुरराज जलंधर का सिर काटा तो बहुत भयानक ध्वनि हुई और महादानव जलंधर पल भर में ही ढेर हो गया। जिस प्रकार अंजन (काजल) का विशाल पर्वत दो टुकड़ो में विभक्त हो गया था, उसी प्रकार जलंधर का शरीर भी दो टुकड़ों में बंट गया। सारे युद्ध भूमि में उसका रक्त फैल गया। भगवान शिव की आज्ञा से जलंधर का रक्त और मांस महारौरव में जाकर रक्त का कुंड बन गया।' 

'दैत्यराज जलंधर के शरीर से निकला अद्भुत तेज उस समय भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गया। जलंधर का वध होते ही चारों ओर हर्ष की लहर दौड़ गई। सभी देवता ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए। अप्सराएं और गंधर्व मंगल गान गाने लगे। सारी दिशाओं से भगवान शिव पर फूलों की वर्षा होने लगी।'

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-८(8) समाप्त !

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