अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन! महादेव की आज्ञा पाकर बालक हनुमान विश्वकर्मादेव के शाप के कारण का पता लगाने के लिए महर्षि मातंग से सहायता माँगते हैं। बालक मारुति को साक्षात् भगवान शंकर का ही रूप जानकर मातंग मुनि ने उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात लोकोपचार की रीती निभाते हुए उन्होंने मारुति को अपना आशीर्वाद प्रदान कर विश्वकर्मादेव के साथ जो कुछ घटित हुआ वह सब अपने तपोबल की शक्ति से बताया।
तदनन्तर बालक मारुति ने विश्वकर्मा देव को शाप मुक्त करने का उपाय पूछा तब मातंग मुनि ने कहा - हे दुःख भंजक मारुति ! विश्वकर्मा देव को शाप मुक्त करने के लिए सर्वप्रथम आपको उनकी पुत्री चित्रांगदा और राजा सूरत का मिलन करवाना होगा। जब दोनों का पुनर्मिलन हो जाएगा तब यदि विश्वकर्मा देव अपने हाथों से उन दोनों का पाणिग्रहण करवाएं तो उनकी पुत्री को दिया हुआ शाप समाप्त हो जाएगा। इसके पश्चात् विश्वकर्मा देव को शाप से मुक्ति दिलाने के लिए उनका देवी गृताची से पुनर्मिलन करवाना होगा। जब दोनों के मिलन के पश्चात उन्हें संतान होगी तभी वे (विश्वकर्मा देव) वानर से देव योनि प्राप्त कर लेंगे।'
'हे मारुति यह कार्य बताने में जितना सहज है उतना करने में अत्यंत ही दुष्कर है। चित्रांगदा को दिया हुआ शाप भी अवश्य फलीभूत होगा क्योंकि दिया हुआ शाप कभी निष्फल नहीं होता। अर्थात जब चित्रांगदा और राजा सूरत मंडप में बैठेंगे उसी समय राजा सूरत की मृत्यु निश्चित है। अतः आपको किसी तरह इस विपदा से निपटना होगा। महादेव आपका भला करें ! हे बजरंग बलि ! आप स्वयं रुद्रांश है अतः रुद्रदेव का आशीर्वाद आप पर सैदव बना रहेगा। मुझे पूर्ण आशा और विश्वास है की आप अवश्य ही इस संकट को समाप्त करेंगे। यदि आप इस कार्य में सफल हुए तो सम्पूर्ण जगत आपको संकट मोचन पुकारेगा।'
इस प्रकार मातंग मुनि से उपाय जानकर मारुति ऋषि ऋतिकध्वज के आश्रम में पहुंचते हैं। ऋषि ऋतिकध्वज जब बालक हनुमान को देखते हैं तो उन्हें लगता है मानो साक्षात् महादेव ही उनके सामने पधारे हैं। इस हेतु वे अपने तपोबल से ध्यान लगते हैं तब उन्हें बालक मारुति के रूप में स्वयं भगवान शंकर के दर्शन होते हैं। अपने समक्ष रुद्रांश को देखकर ऋषि ऋतिकध्वज के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लग जाती है। तब मारुति के रूप में प्रकट हुए भगवान शंकर कहते हैं - हे मुने ! इस समय तुम मुझे ध्यान अवस्था में देख पा रहे हो यह मेरा ही अंश है। मैंने ही मारुति के रूप में धरती पर प्रभु सेवा के लिए अवतार ग्रहण किया है। आप मेरे परम भक्त हैं अतः आप मेरे इस रुद्रांश की उसके कार्य में सहायता करें। वह आपके द्वारा शापित विश्वकर्मा देव को पुनः मुक्त करवाना चाहते हैं। इसलिए आप मारुति को उनकी पुत्री चित्रांगदा से मिला दें।
मारुति के रूप में प्रकट हुए भगवान शिव इतना कहते ही वहां से अंतर्ध्यान हो जाते हैं। ऋषि ऋतिकध्वज अपनी ध्यान अवस्था से बाहर आते हैं। तब लोकोपचार की रीती को निभाते हुए वह बालक हनुमान को आशीर्वाद देते हैं। मारुति जैसे ही कुछ कहना चाहते है उसी समय ऋषि ऋतिकध्वज बोले - हे मारुति ! आपको कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। महादेव की कृपा से मुझे सब ज्ञात हो गया है। आप जैसा चाहते हैं मैं वैसा ही करूँगा।
'ऋषि ऋतिकध्वज और बालक हनुमान के प्रयास से चित्रांगदा राजा सूरत से विवाह को राजी हो जाती है। किन्तु अब भी उसे यह शंका बानी हुई थी कि कहीं वह राजा सूरत की मृत्यु का कारण नहीं बन जाए। अब बालक हनुमान राजा सूरत को खोजते हैं। राजा सूरत वन में भटकते हुए अत्यंत दीन अवस्था में पाए जाते हैं। ऋषि ऋतिकध्वज, वायुदेव और देवर्षि नारद तथा चित्रांगदा के सहयोग से बालक हनुमान राजा सूरत को मना लेते हैं। चित्रांगदा को जीवित अवस्था में देखकर राजा सूरत बहुत प्रसन्न होते हैं।'
'एक दिन विश्वकर्मा देव वानर रूप में भटकते हुए दिखाई देते हैं। उस समय विश्वकर्मादेव शाप के प्रभाव के कारण अपनी स्मरण शक्ति खो चुके थे। उन्हें इस बात का भी स्मरण नहीं था की वे विश्वकर्मा हैं। स्वयं के ही परिचय से अनजान विश्वकर्मा देव एक पागल पशु की भांति क्रोधित अवस्था में सभी प्राणियों को कष्ट देते। जो भी उनके पास जाता वे उसे मार-मार कर घायल कर देते। जब बालक मारुति उनके सामने आते हैं तो वे उन पर भी प्रहार करते हैं, लेकिन मारुति उनके प्रहारों से बार-बार बच निकलते हैं। यह देखकर विश्वकर्मा देव का क्रोध बढ़ जाता है किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी मारुति उनके सभी प्रहार विफल कर देते हैं। बहुत थक जाने से विश्वकर्मा देव को मूर्छा आ जाती है। उनकी मूर्छा का लाभ उठाकर मारुति उन्हें वायु मार्ग से ऋषि ऋतिकध्वज के आश्रम में ले आते हैं।'
'उस समय आश्रम में ऋषि ऋतिकध्वज, चित्रांगदा, राजा सूरत, वायु देव तथा नारदजी उपस्थित रहते हैं। मूर्छा टूटने पर जैसे ही विश्वकर्मा देव की दृष्टि अपनी पुत्री पर पड़ती है उन्हें सब स्मरण हो आता है। ऋषि ऋतिकध्वज को देखकर विश्वकर्मा उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगते हैं।'
विश्वकर्मा देव के नेत्रों से पश्चाताप के अश्रु बहते हैं तथा वे ऋषि ऋतिकध्वज से कहते हैं - मुनिवर! मुझे अपनी भूल का पछतावा है। अपने अभिमान और क्रोध के कारण मैंने अपनी ही पुत्री का जीवन संकट में डाल दिया। मैं ना ही एक अच्छा पिता बन पाया और ना ही पति। मैं अब आपकी शरण हूँ या तो मुझे मृत्यु आ जाए अथवा मेरी पुत्री को दिया मेरा शाप नष्ट हो जाए।
विश्वकर्मा देव को पश्चाताप के अश्रू बहाते देख ऋषि ऋतिकध्वज बोले - विश्वकर्मा देव ! जो होता है सब विधि के अनुसार ही होता है। मैंने भी क्रोध में आकर आपको ऐसा शाप दे दिया जो उचित नहीं था। क्रोध के कारण मुझे इस बात का भान ही नहीं रहा कि आप देव शिल्पी हैं। किन्तु अब महादेव की इच्छा से सब ठीक हो जाएगा। यह बालक हनुमान कोई साधारण बालक नहीं है। इनमे स्वयं रूद्र विराजमान हैं। अब आप सबकुछ भूलकर अपनी पुत्री और राजा सूरत का पाणिग्रहण करवाएं। तभी आपकी पुत्री का शाप नष्ट होगा।
'रघुनन्दन ! दोनों वर और वधु को सजाया गया। आश्रम में ही भव्य और सुन्दर मंडप बनाया गया। किन्तु सभी को इस बात की चिंता थी की राजा सूरत की मृत्यु तो मंडप में बैठते ही अटल है तो फिर दोनों का विवाह कैसे संपन्न होगा और यदि विवाह नहीं हुआ तो विश्वकर्मा देव को शाप से मुक्ति किस प्रकार मिलेगी?'
इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-२ का भाग-८(8) समाप्त !
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