भाग-८(8) ध्रुव जी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

 


सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों! ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षों के वध से निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नर लोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुव जी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब कुबेर ने कहा।

श्रीकुबेर जी बोले - शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार! तुमने अपने पितामह (दादा) के उपदेश से ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग कर दिया; इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वास्तव में न तुमने यक्षों को मारा है और न यक्षों ने तुम्हारे भाई को। समस्त जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही है। यह मैं-तू आदि मिथ्या बुद्धि तो जीव को अज्ञानवश स्वप्न के समान शरीरादि को ही आत्मा मानने से उत्पन्न होती है। इसी से मनुष्य को बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओं की प्राप्ति होती है।

'ध्रुव! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें। तुम संसारपास से मुक्त होने के लिये सब जीवों में समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरि का भजन करो। वे संसारपाश का छेदन करने वाले हैं तथा संसार की उत्पत्ति आदि के लिये अपनी त्रिगुणात्मिक मायाशक्ति से युक्त होकर भी वास्तव में उससे रहित हैं। उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करने योग्य हैं। प्रियवर! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों के समीप रहने वाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पाने योग्य हो। ध्रुव! तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निःसंकोच एवं निःशंक होकर माँग लो।'

सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों ! यक्षराज कुबेर ने जब इस प्रकार वर माँगने के लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुव जी ने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसार सागर को पार कर जाता है। इडविडा के पुत्र कुबेर जी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये। 

'इसके पश्चात् ध्रुव जी भी अपनी राजधानी को लौट आये। वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना की; भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफल के दाता भी हैं। सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युत में प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुव जी अपने में और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को ही विराजमान देखने लगे।'

'ध्रुव जी बड़े ही शील सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादा के रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिता के समान मानती थी। इस प्रकार तरह-तरह के ऐश्वर्य भोग से पुण्य का और भोगों के त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया। जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुव ने इसी तरह अर्थ, धर्म और काम के सम्पादन में बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया। इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच को अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगर के समान माया से अपने में ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहार भूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का राज्य- ये सभी काल के गाल में पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रम (वर्तमान बद्रीनाथ धाम) को चले गये।'

'वहाँ उन्होंने पवित्र जल में स्नान कर इन्द्रियों को विशुद्ध (शान्त) किया। फिर स्थिर आसन से बैठकर प्राणायाम द्वारा वायु को वश में किया। तदनन्तर मन के द्वारा इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन को भगवान् के स्थूल विराट्स्वरूप में स्थिर कर दिया। उसी विराट्रूप का चिन्तन करते-करते अन्त में ध्याता और ध्येय के भेद से शून्य निर्विकल्प समाधि में लीन हो गये और उस अवस्था में विराट्रूप का भी परित्याग कर दिया। इस प्रकार भगवान् श्रीहरि के प्रति निरन्तर भक्तिभाव का प्रवाह चलते रहने से उनके नेत्रों में बार-बार आनन्दाश्रुओं की बाढ़-सी आ जाती थी। इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीर में रोमांच हो आया। फिर देहाभिमान गलित हो जाने से उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ’ इसकी स्मृति भी न रही।'

'इसी समय ध्रुव जी ने आकाश से एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। वह अपने प्रकाश से दसों-दिशाओं को आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमा का चन्द्र ही उदय हुआ हो। उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओं का सहारा लिये खड़े थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमल के समान नेत्र थे।' 

'वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरि के सेवक जान ध्रुव जी हड़बड़ाहट में पूजा आदि का क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान् के पार्षदों में प्रधान हैं-ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदन के नामों का कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। ध्रुव जी का मन भगवान् के चरणकमलों में तल्लीन हो गया और वे हाथ जोडकर बड़ी नम्रता से सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरि के प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्द ने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा।'

सुनन्द और नन्द कहने लगे- राजन्! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्ष की अवस्था में ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान् को प्रसन्न कर लिया था। हम उन्हीं निखिल जगन्नियन्ता सारंगपाणि भगवान् विष्णु के सेवक हैं और आपको भगवान् के धाम में ले जाने के लिये यहाँ आये हैं। आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णुलोक का अधिकार प्राप्त किया है, जो औरों के लिये बड़ा दुर्लभ है। परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँ तक नहीं पहुँच सके, वे नीचे से केवल उसे देखते रहते हैं।' 

'सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाम में निवास कीजिये। प्रियवर! आज तक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पद पर कभी नहीं पहुँच सके। भगवान् विष्णु का वह परमधाम सारे संसार में वन्दनीय है, आप वहाँ चलकर विराजमान हों। आयुष्मन्! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोक शिखामणि श्रीहरि ने आपके लिये ही भेजा है, आप इस पर चढ़ने योग्य हैं।'

सूतजी कहते हैं - भगवान् के प्रमुख पार्षदों के ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुव जी ने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्य-कर्म से निवृत्त हो मांगलिक अलंकारादि धारण किये। बदरिकाश्रम में रहने वाले मुनियों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया। इसके बाद उस श्रेष्ठ विमान की पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदों को प्रणाम कर सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिव्यरूप धारण कर उस पर चढ़ने को तैयार हुए।

'इतने में ही ध्रुव जी ने देखा कि काल मूर्तिमान् होकर उनके सामने खड़ा है। तब वे मृत्यु के सिर पर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमान पर चढ़ गये। उस समय आकाश में दुन्दुभि, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी। विमान पर बैठकर ध्रुव जी ज्यों-ही भगवान् के धाम को जाने के लिये तैयार हुए, त्यों-ही उन्हें माता सुनीति का स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माता को छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधाम को जाऊँगा? नन्द और सुनन्द ने ध्रुव के हृदय की बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगे-आगे दूसरे विमान पर जा रही हैं। उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे। मार्ग में जहाँ-तहाँ विमानों पर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलों की वर्षा करते जाते थे।'

'उस दिव्य विमान पर बैठकर ध्रुव जी त्रिलोकी को पारकर सप्तर्षिमण्डल से भी ऊपर भगवान् विष्णु के नित्यधाम में पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की। यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है, इसी के प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित हैं। इसमें जीवों पर निर्दयता करने वाले पुरुष नहीं जा सकते। यहाँ तो उन्हीं की पहुँच होती है, जो दिन-रात प्राणियों के कल्याण के लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं। जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियों को प्रसन्न रखने वाले हैं तथा भगवद्भक्तों को ही अपना एकमात्र सच्चा सुहृद मानते हैं- ऐसे लोग सुगमता से ही इस भगवद्धाम को पाप्त कर लेते हैं। इस प्रकार उत्तानपाद के पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुव जी तीनों लोकों के ऊपर उसकी निर्मल चूड़ामणि के समान विराजमान हुए।'

'हे मित्रों! जिस प्रकार दायँ चलाने के समय खम्भे के चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेग वाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोक के आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है। उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारद ने प्रचेताओं की यज्ञशाला में वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे।'

श्लोक 

नूनं सुनीतेः परिदेवताया-स्तपःप्रभावस्य सुतस्य तां गतिम् । 

दृष्ट्वाभ्युपायानपि वेदवादिनो नैवाधिगन्तुं प्रभवन्ति किं नृपाः ।। १

यः पंचवर्षो गुरुदारवाक्शरै-र्भिन्नेन यातो हृदयेन दूयता ।

वनं मदादेशकरोऽजितं प्रभुं जिगाय तद्भक्तगुणैः पराजितम् ।। २

यः क्षत्रबन्धुर्भुवि तस्याधिरूढ-मन्वारुरुक्षेदपि वर्षपूगैः |

षट्पंचवर्षो यदहोभिरल्पैः प्रसाद्य वैकुण्ठमवाप तत्पदम् ।। ३

अर्थात 

इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीति के पुत्र ध्रुव ने तपस्या द्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मों की आलोचना करके वेदवाणी मुनिगण भी नहीं पा सकते; फिर राजाओं की तो बात ही क्या है। १  

अहो! वे पाँच वर्ष की अवस्थाओं में ही सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर दुःखी हृदय से वन में चले गये और मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभु को जीत लिया, जो केवल अपने भक्तों के गुणों से ही २ 

वश में होते हैं। ध्रुव जी ने तो पाँच-छः वर्ष की अवस्था में कुछ दिनों की तपस्या से ही भगवान् को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पद को भूमण्डल में कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षो तक तपस्या करके भी पा सकता है? ३ 

सूतजी कहते हैं -  हे ऋषिगणों ! जैसा मैंने अपने गुरु भगवन श्रीवेदव्यासजी से सुना था उसी के अनुसार मैंने बुद्धि के अनुरूप उदारकीर्ति ध्रुव जी के चरित्र के विषय में आपको बताया, सो मैंने वह पूरा-का-पूरा सुना दिया। साधुजन इस चरित्र की बड़ी प्रशंसा करते हैं। यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, परम पवित्र और अत्यत्न मंगलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है। यह देवत्व की प्राप्ति कराने वाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समत पापों का नाश करने वाला है। भगवद्भक्त ध्रुव के इस पवित्र चरित्र को जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दुःखों का नाश हो जाता है। इसे श्रवण करने वाले को शीलादि गुणों की प्राप्ति होती है, जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्व की प्राप्ति कराने वाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियों का मान बढ़ता है।

'पवित्रकीर्ति ध्रुव जी के इस महान् चरित्र का प्रातः और सायंकाल ब्रह्माणादि द्विजातियों के समान में एकाग्रचित्त से कीर्तन करना चाहिये। भगवान् के परम पवित्र चरणों की शरण में रहने वाला जो पुरुष इसे निष्कामभाव से पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवार के दिन श्रद्धालु पुरुषों को सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है। यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो लोग भगवन्मार्ग के मर्म से अनभिज्ञ हैं- उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुष पर देवता अनुग्रह करते हैं। ध्रुव जी के कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं; वे अपनी बाल्यावस्था में ही माता के घर और खिलौनों का मोह छोड़कर श्रीविष्णु भगवान् की शरण में चले गये थे। बन्धुजनो! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने आप सभी को सुना दिया।

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-८(8) समाप्त !


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