भाग-७(7) दक्ष द्वारा भगवान शिव को शाप देना तथा उसके उत्तर में नंदी का दक्ष समेत सभी ब्राह्मणों को शाप देना

सूतजी कहते हैं - हे मुनियों ! पूर्वकाल में समस्त महात्मा और ऋषि प्रयाग में इकठ्ठा हुए। वहां पर उन्होंने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ में देवर्षि नारद, देवता, ऋषि मुनि, साधु-संत, सिद्धगण तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाले महान ज्ञानी पधारे। जिसमे ब्रह्माजी तथा देवी सरस्वती और श्री हरी तथा लक्ष्मीजी भी पधारे। उस यज्ञ में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव भी देवी सती और समस्त गणों सहित पधारे थे। भगवान शिव को वहां आया देख सभी देवताओं, ऋषि मुनियों, ब्रह्माजी तथा श्री हरी आदि सभी ने उन्हें झुक कर नमन किया। शिवजी की आज्ञा पाकर सभी ने अपना आसन ग्रहण किया। 

'इसी समय प्रजापति दक्ष भी वहां पहुंचे। वे बड़े ही तेजस्वी थे। प्रजापति दक्ष ने अपने पिता ब्रह्माजी को प्रणाम कर अपना आसन ग्रहण किया। वे ब्रह्माण्ड के अधिपति थे। इसी कारण उन्हें अपने पद का घमंड हो गया था। उनके मन में अहंकार ने घर कर लिया था। ब्रह्माण्ड के अधिपति होने के कारण वे सभी देवताओं के लिए वंदनीय थे।' 

'सभी ऋषि-मुनियों सहित देवर्षि तथा देवताओं ने उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और उनकी स्तुति कर उनका आदर-सत्कार किया। किन्तु त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने न तो उन्हें प्रणाम किया और न ही अपने आसन से उठकर दक्ष का स्वागत किया। इस बात पर दक्ष क्रोधित हो गये। ज्ञानशून्य होने के कारण प्रजापति दक्ष ने क्रोधित नेत्रों से महादेवजी को देखा और सबको सुनाते हुए उच्च स्वर में कहने लगे।' 

प्रजापति दक्ष बोले - सभी देवता, असुर ब्राह्मण ऋषि-मुनि सभी मुझे नम्रतापूर्वक प्रणाम कर मेरे आगे शीश झुकाते हैं। ये सभी उत्तम भक्ति भाव से मेरी आराधना करते हैं परन्तु सदैव प्रेतों और पिशाचों से घिरा रहने वाला यह दुष्ट क्यों मुझे अनदेखा कर रहा है ? श्मशान में निवास करने वाला यह निर्लज्ज जीव क्यों मेरे सामने मस्तक नहीं झुकाता ? भूतों-पिशाचों का साथ करने के कारण यह शास्त्रों की विधि भी भूल गया है। इसने निति के मार्ग को कलंकित किया है। इसके साथ रहने वाले या इसकी बातों का अनुसरण करने वाले मनुष्य पाखंडी, दुष्ट और पाप का आचरण करने वाले होते हैं। वे ब्राह्मणों की बुराई करते हैं तथा यह स्वयं स्त्रिलोलुप हैं। 

'अतः मैं इसे शाप देने को तत्पर हुआ हूँ।  यह रूद्र चारों वर्णों से पृथक और कुरूप है। इसलिए इस पावन यज्ञ से इसे बहिष्कृत कर दिया जाये। यह उत्तम कुल और जन्म से हीन है। अतः इसे यज्ञ में भाग न लेने दिया जाये।' 

'हे ज्ञानीजनों ! क्रोध से विवेक समाप्त हो जाता है। दक्ष ने शिवजी को अपमान जनक शब्द कहते समय उसके परिणाम पर तनिक भी विचार नहीं किया। अहंकार के कारण वह शिव के स्वरुप को भूल गया। वह यह भी भूल गया कि आदि शक्ति ने जिनका तप के द्वारा वरन किया है, वह कोई साधारण मनुष्य, ऋषि या देव नहीं है।' 

सूतजी बोले - दक्ष कि ये बातें सुनकर भृगु आदि बहुत से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर उनकी निंदा करने लगे। ये बातें सुनकर नंदी को बुरा लगा। उनका क्रोध बढ़ने लगा और वे दक्ष को शाप देते हुए बोले कि हे महामूढ़ ! दुष्टबुद्धि दक्ष ! तू मेरे स्वामी देवादिदेव महेश्वर को यज्ञ से निकालने वाला कौन होता है ? जिनके स्मरण मात्र से यज्ञ सफल हो जाते हैं और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तू उन महादेवजी को कैसे शाप दे सकता है ? 

'मेरे स्वामी निर्दोष हैं और तूने अपने स्वार्थ कि सिद्धि के लिए उन्हें शाप दिया है और उनका उपहास ही किया है। जिन सदाशिव ने इस जगत की सृष्टि की, इसका पालन किया और जो इसका संहार करते हैं, तू उन्ही महेश्वर को शाप देता है।'                     

नंदी के ऐसे वचनों को सुनकर प्रजापति दक्ष के क्रोध की कोई सीमा न रही। वे आग बबूला हो गए और नंदी समेत सभी रुद्रगणों को शाप देते हुए बोले - अरे दुष्ट रुद्रगणों ! मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम सब वेदों से बहिष्कृत हो जाओ। तुम वैदिक मार्ग से भटक जाओ और सभी ज्ञानी मनुष्य तुम्हारा त्याग कर दें। तुम शिष्ट आचरण न करो और पाखंडी हो जाओ। 

'सिर पर जटा, शरीर पर भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण कर मद्यपान  (शराब का सेवन) करो। जब दक्ष ने शिवजी के प्रिय पार्षदों को इस प्रकार शाप दे दिया तो नंदी बहुत क्रुद्ध हो गए। नंदी भगवान शिव के प्रिय पार्षद हैं। वे बड़े गर्व से दक्ष को उत्तर देते हुए बोले।' 

नंदीश्वर ने कहा - हे दुर्बुद्धि दक्ष ! तुझे शिव तत्व का ज्ञान नहीं है। तूने अहंकार में शिव गणों को शाप दे दिया है। तेरे कहने पर भृगु आदि ब्राह्मणों ने भी अभिमान के कारण भगवान शिव का उपहास किया है। अतः मैं भगवान शिव के तेज के प्रभाव से तुझे शाप देता हूँ कि तुझ जैसे अहंकारी मनुष्य, जो सिर्फ कर्मों के फल को देखते हैं, वेदवाद में फंसकर रह जाएंगे। उनका वेद तत्त्व ज्ञान शुन्य हो जाएगा। वे सदैव मोह-माया में ही लिप्त रहेंगे। वे पुरुषार्थ विहीन होंगे और स्वर्ग को ही महत्त्व देंगे। वे क्रोधी व लोभी होंगे। वे सदा ही दान लेने में लगे रहेंगे। 

'हे दक्ष ! जो भी भगवान शिव को सामान्य देवता समझकर उनका अनादर करेगा, वह सदैव के लिए तत्त्व ज्ञान से विमुख हो जाएगा। वह आत्म ज्ञान को भूलकर पशु के समान हो जाएगा। तथा यह दक्ष जो कि कर्मों से भ्रष्ट हो चूका है, इसका मुख बकरे के समान हो जाएगा।' 

'इस प्रकार बहुत क्रोध में भरे नंदी ने दक्ष तथा ब्राह्मणों को शाप दिया तो वहां बहुत शौर मच गया। भगवान शिव मधुर वाणी में नंदी को समझाने लगे की वे शांत हो जाएं।' 

प्रभु शिव बोले - नंदी ! तुम तो परम ज्ञानी हो। तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिए। तुमने बिना कुछ जाने और समझे ही दक्ष तथा समस्त ब्राह्मण कुल को शाप दे दिया है। सत्य तो यह है कि मुझे कोई भी शाप छू नहीं सकता है। इसलिए तुम्हे अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए था। किसी की बुद्धि कितनी ही दूषित क्यों न हो, वह कभी वेदों को शाप नहीं दे सकता। नंदी तुम तो सिद्धों को भी तत्त्व ज्ञान का उपदेश देने वाले हो। तुम तो जानते हो कि मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही यज्ञकर्म हूँ। यज्ञ कि आत्मा मैं हूँ, यज्ञपरायण यजमान भी मैं हूँ। फिर मैं कैसे यज्ञ से बहिष्कृत हो सकता हूँ ? तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मणों को शाप दे दिया है। 

सूतजी बोले - जब भगवान ने सब प्रकार से नंदी को समझाया तो उनका क्रोध शांत हो गया। तब शिवजी अपने अन्य गणों व पार्षदों के साथ अपने निवास स्थान कैलाश पर्वत पर चले गए। क्रोध से भरे दक्ष भी ब्राह्मणों के साथ अपने स्थान पर चले गए। परन्तु उनके मन में महादेवजी के लिए क्रोध एवं ईर्ष्या का भाव ऐसा ही रहा। उन्होंने शिवजी के प्रति श्रद्धा को त्याग दिया और उनकी निंदा करने लगे। दिनोदिन उनकी ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी। 

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-७(7) समाप्त ! 


          

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