अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! अब नल और नील की उत्पत्ति के बारे में मैं आपको सब ठीक से बताता हूँ। एक बार देवशिल्पी विश्वकर्मा देव को स्वर्ग की अप्सरा गृताची से प्रेम हो गया। उनके प्रेम सम्बन्ध के बारे में जब इंद्र को पता चला तो उन्होंने गुरु बृहस्पति और ब्रह्मदेव की आज्ञा से दोनों का विवाह करवाया। विवाह के कुछ समय पश्चात उनके एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। उस कन्या का नाम चित्रांगदा रखा गया।
'चित्रांगदा जब बालपन में थी तो एक समय देवराज इंद्र के आमंत्रण पर गृताची स्वर्ग के दरबार में नृत्य प्रतियोगिता में भाग लेने पहुंची। इस बात से विश्वकर्मा देव अत्यंत रुष्ट हो गए, क्योंकि विवाह के बाद अब वे यह नहीं चाहते थे कि उनकी पत्नी स्वर्गलोक में जाकर एक सामान्य नृत्यांगना बनी रहे। इसलिए उन्होंने क्रोध में आकर अपनी पत्नी गृताची को त्याग दिया। अपने पति द्वारा त्यागे जाने पर गृताची बहुत दुखी थी। किन्तु कुछ समय पश्चात देवताओं के समझाने पर वह पुनः स्वर्ग लोक लौट आई।'
'गृताची के इस व्यवहार से विश्वकर्मा का क्रोध और भी बढ़ गया। चित्रांगदा जब युवा हुई तो उसे पृथ्वी-लोक के राजा सूरत से प्रेम हो गया। उन दोनों का प्रेम इतना अधिक बढ़ गया था कि वे विवाह करना चाहते थे। जब विश्वकर्मा देव को इस बात का पता चला तो उन्होंने गृताची के प्रेम सम्बन्ध को स्मरण किया और उसी से दुखी होकर उन्होंने अपनी पुत्री को पृथ्वी-लोक के किसी भी राजा से विवाह करने कि आज्ञा नहीं दी।
चित्रांगदा के हठ को देखकर विश्कर्मा देव ने उसे शाप देते हुए कहा - तूने मेरी पुत्री होकर अपनी माता कि भांति मेरी आज्ञा कि अवहेलना की है। अतः मैं तुझे शाप देता हूँ जिस राजा के साथ तुम विवाह करना चाहती हो उसकी मृत्यु लग्न मंडप में ही हो जाए।
'इस शाप को पाकर चित्रांगदा ने दुखी होकर पृथ्वीलोक में जाकर नदी में डूबकर आत्महत्या का प्रयास किया। जब राजा सूरत को यह पता चला कि उसकी प्रेमिका ने आत्महत्या कर ली है तो वह समस्त राज-पाट को त्याग कर पागलों की भांति वन-वन भटकने लगे। चित्रांगदा को नदी किनारे मूर्छित अवस्था में देख ऋषि ऋतिकध्वज उसे आश्रम ले आये। जहाँ उन्होंने उसका उपचार किया। कुछ दिवस के स्वास्थ्यलाभ के पश्चात जब चित्रांगदा की मूर्छा टूटी तो ऋषि ऋतिकध्वज के पूछने पर उसने अपनी सम्पूर्ण व्यथा सुनाई।'
'यह जानकर की चित्रांगदा की ऐसी अवस्था उसके स्वयं के पिता ने ही की है ऋषि ऋतिकध्वज क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने तपोबल से विश्वकर्मादेव को पृथ्वी-लोक पर आने को विवश कर दिया। विश्वकर्मादेव के वहां आते ही ऋषि ऋतिकध्वज ने उन्हें अपनी ही पुत्री का अपराधी मानकर भयंकर शाप दे डाला।'
परम तपस्वी ऋषि ऋतिकध्वज ने विश्वकर्मा को शाप दिया - हे देव ! आपने अपनी पुत्री के साथ देवता होकर असुरों के सामान व्यवहार किया है। जो अशोभनीय है तथा जिसे कदापि क्षमा नहीं किया जा सकता। यदि यह सब जानकर भी मैं आपको शाप नहीं देता हूँ तो मेरा सम्पूर्ण तपोबल नष्ट हो जाता है। अतः मैं आपको शाप देता हूँ कि आपका देव पद छूट जाये तथा वानर बनकर इसी पृथ्वी-लोक में अपनी स्मृति भुलकर भटकते रहेंगे।
रघुनन्दन ! विश्वकर्मादेव को शाप मिलने से देवताओं के शिल्पी सम्बंधित सभी कार्य रुक गए। जिसे देख देवता त्राहि-माम् कहते हुए परमपिता ब्रह्माजी के पास पहुंचे। तब ब्रह्माजी ने कहा - देवताओं विश्वकर्मादेव पर आई इस विपदा का समाधान स्वयं महादेव ही कर सकते हैं। अतः आप सभी मेरे साथ कैलाश पर चलें।
कैलाश पर पहुंचकर देवताओं ने महादेव को अपनी पीड़ा बताई। जिसे जानकर महादेव ने देवताओं को विश्वकर्मा की मुक्ति के लिए आश्वस्त किया। तदनन्तर महादेव ने बालक हुनुमान का स्मरण किया। बालक हनुमान अपने पिता वायुदेव सहित कैलाश पर पहुंचे। महादेव ने कहा - वायुदेव आपका यह पुत्र अत्यंत तेजस्वी और विलक्षण है। विश्वकर्मा देव को शाप से मुक्ति दिलाने में हनुमान महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। किन्तु शाप के कारण मारुति अपनी शक्तियों को भुला चुके हैं इसलिए आप नारदजी को साथ लेकर इस कार्य में मारुति की सहायता करें।
'सभी का कल्याण करने वाले प्रभु ! आपके इस परम भक्त ने विश्वकर्मा देव के कष्ट को हरने के लिए जो लीला दिखाई अब उसे सुनिए।'
इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-७(7) समाप्त !
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