महात्मा ऋष्यश्रृंग बड़े मेधावी और वेदों के ज्ञाता थे। उन्होंने थोड़ी देर तक ध्यान लगाकर अपने भावी कर्तव्य का निश्चय किया। फिर ध्यान से विरत हो वे राजा से इस प्रकार बोले – महाराज! मैं आपको पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये अथर्ववेद के मन्त्रों से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करूँगा। वेदोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान करने पर वह यज्ञ अवश्य सफल होगा।
यह कहकर उन तेजस्वी ऋषि ने पुत्रप्राप्ति के उद्देश्य से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और श्रौतविधि के अनुसार अग्नि में आहुति डाली। तब देवता, सिद्ध, गन्धर्व और महर्षिगण विधि के अनुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिये उस यज्ञ में एकत्र हुए।
रावण से भयभीत हुई पृथ्वी हृदय में सोच-विचारकर, गौ (गाय) का रूप धारण कर गई। उस यज्ञ-सभा में क्रमश: एकत्र होकर (दूसरों की दृष्टि से अदृश्य रहते हुए) पृथ्वी सहित सब देवता लोककर्ता ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले – भगवन्! रावण नामक राक्षस आपका कृपा प्रसाद पाकर अपने बल से हम सब लोगों को बड़ा कष्ट दे रहा है। हममें इतनी शक्ति नहीं है कि अपने पराक्रम से उसको दबा सकें। प्रभो! आपने प्रसन्न होकर उसे वर दे दिया है। तब से हमलोग उस वर का सदा समादर करते हुए उसके सारे अपराधों को सहते चले आ रहे हैं।
‘उसने तीनों लोकों के प्राणियों के नाकों दम कर रखा है। वह दुष्टात्मा जिनको कुछ ऊँची स्थिति में देखता है, उन्हीं के साथ द्वेष करने लगता है। देवराज इन्द्र को परास्त करने की अभिलाषा रखता है। आपके वरदान से मोहित होकर वह इतना उद्दण्ड हो गया है कि ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, असुरों तथा ब्राह्मणों को पीड़ा देता और उनका अपमान करता फिरता है।'
'सूर्य उसको ताप नहीं पहुँचा सकते। वायु उसके पास जोर से नहीं चलती तथा जिसकी उत्ताल तरंगें सदा ऊपर- नीचे होती रहती हैं, वह समुद्र भी रावण को देखकर भय के मारे स्तब्ध-सा हो जाता है - उसमें कम्पन नहीं होता। वह राक्षस देखने में भी बड़ा भयंकर है। उससे हमें महान् भय प्राप्त हो रहा है; अतः भगवन् ! उसके वध के लिये आपको कोई-न-कोई उपाय अवश्य करना चाहिये।'
पृथ्वी ने रोककर ब्रह्माजी को अपना दुःख सुनाया - पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है।
समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर ब्रह्माजी कुछ सोचकर बोले - देवताओ! लो, उस दुरात्मा के वध का उपाय मेरी समझ में आ गया। उसने वर माँगते समय यह बात कही थी कि मैं गन्धर्व, यक्ष, देवता तथा राक्षसों के हाथ से न मारा जाऊँ। मैंने भी 'तथास्तु' कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। मनुष्यों को तो वह तुच्छ समझता था, इसलिये उनके प्रति अवहेलना होने के कारण उनसे अवध्य होने का वरदान नहीं माँगा। इसलिये अब मनुष्य के हाथ से ही उसका वध होगा। मनुष्य के सिवा दूसरा कोई उसकी मृत्यु का कारण नहीं है।
ब्रह्माजी की कही हुई यह प्रिय बात सुनकर उस समय समस्त देवता, पृथ्वी और महर्षि बड़े प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी ने पृथ्वी से कहा - हे धरती! जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है। मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे।
उसी समय उस सभा में देवादिदेव भगवान महादेव आते हैं तथा सभी से एक बात कहते हैं - हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥ (स्रोत - श्रीरामचरितमानस)
अर्थात- मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों।
'वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।)'
भगवान शंकर की बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे -
छन्द : (स्रोत - श्रीरामचरितमानस)
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥2॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥3॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥4॥
भावार्थ:
हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री लक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें॥1॥
हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो॥2॥
जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप- ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप- बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात् स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करने वाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनंद देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं॥3॥
सरस्वती, वेद, शेषजी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करें। हे संसार रूपी समुद्र के (मथने के) लिए मंदराचल रूप, सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं॥4॥
इसी समय महान् तेजस्वी जगत पति भगवान् विष्णु भी मेघ के ऊपर स्थित हुए सूर्य की भाँति गरुड़ पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे। उनके शरीर पर पीताम्बर और हाथों में शङ्ख, चक्र एवं गदा आदि आयुध शोभा पा रहे थे। उनकी दोनों भुजाओं में तपाये हुए सुवर्ण के बने केयूर प्रकाशित हो रहे थे। उस समय सम्पूर्ण देवताओं ने उनकी वन्दना की और वे ब्रह्माजी से मिलकर सावधानी के साथ सभा में विराजमान हो गये।
तब समस्त देवताओं ने विनीत भाव से उनकी स्तुति करके कहा - सर्वव्यापी परमेश्वर ! हम तीनों लोकों के हित की कामना से आपके ऊपर एक महान् कार्य का भार दे रहे हैं।
‘प्रभो! अयोध्या के राजा दशरथ धर्मज्ञ, उदार तथा महर्षियों के समान तेजस्वी हैं। उनके तीन रानियाँ हैं जो ह्री, श्री और कीर्ति - इन तीन देवियों के समान हैं। विष्णुदेव! आप अपने चार स्वरूप बनाकर राजा की उन तीनों रानियों के गर्भ से पुत्ररूप में अवतार ग्रहण कीजिये। इस प्रकार मनुष्य रूप में प्रकट होकर आप संसार के लिये प्रबल कण्टक रूप रावण को, जो देवताओं के लिये अवध्य है, समरभूमि में मार डालिये।
‘वह मूर्ख राक्षस रावण अपने बढ़े हुए पराक्रम से देवता, गन्धर्व, सिद्ध तथा श्रेष्ठ महर्षियों को बहुत कष्ट दे रहा है। उस रौद्र निशाचर ने ऋषियों को तथा नन्दनवन में क्रीड़ा करनेवाले गन्धर्वो और अप्सराओं को भी स्वर्ग से भूमि पर गिरा दिया है। इसलिये मुनियों सहित हम सब सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष तथा देवता उसके वध के लिये आपकी शरण में आये हैं। शत्रुओंको संताप देनेवाले देव! आप ही हम सब लोगों की परमगति हैं, अत: इन देवद्रोहियों का वध करने के लिये आप मनुष्यलोक में अवतार लेने का निश्चय कीजिये।'
उनके इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वलोक- वन्दित देवप्रवर भगवान् विष्णु ने वहाँ एकत्र हुए उन समस्त ब्रह्मा आदि धर्मपरायण देवताओं से कहा - देवगण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम भय को त्याग दो। मैं तुम्हारा हित करने के लिये रावण को पुत्र, पौत्र, अमात्य, मन्त्री और बन्धु-बान्धवों सहित युद्ध में मार डालूँगा। देवताओं तथा ऋषियों को भय देनेवाले उस क्रूर एवं दुर्धर्ष राक्षस का नाश करके मैं ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन करता हुआ मनुष्य लोक में निवास करूँगा।
देवताओं को ऐसा वर देकर मनस्वी भगवान् विष्णु ने मनुष्य लोक में पहले अपनी जन्मभूमि के सम्बन्ध में विचार किया। इसके बाद कमलनयन श्रीहरि ने अपने को चार स्वरूपों में प्रकट करके राजा दशरथ को पिता बनाने का निश्चय किया। तब देवता, ऋषि, गन्धर्व, रुद्र तथा अप्सराओं ने दिव्य स्तुतियों के द्वारा भगवान् मधुसूदन का स्तवन किया।
वे कहने लगे - प्रभो! रावण बड़ा उद्दण्ड है। उसका तेज अत्यन्त उग्र और घमण्ड बहुत बढ़ा-चढ़ा है। वह देवराज इन्द्र से सदा द्वेष रखता है। तीनों लोकों को रुलाता है, साधुओं और तपस्वी जनों के लिये तो वह बहुत बड़ा कण्टक है; अत: तापसों को भय देनेवाले उस भयानक राक्षस की आप जड़ उखाड़ डालिये।
‘उपेन्द्र! सारे जगत को रुलाने वाले उस उग्र पराक्रमी रावण को सेना और बन्धु बान्धवों सहित नष्ट करके अपनी स्वाभाविक निश्चिन्तता के साथ अपने ही द्वारा सुरक्षित उस चिरन्तन वैकुण्ठधाम में आ जाइये; जिसे राग-द्वेष आदि दोषों का कलुष कभी छू नहीं पाता है।'
इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-७(7) समाप्त !
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