सनत्कुमारने कहा - देवर्षि नारदजी! आपने यह अद्भुत इतिहास सुनाया है। अब रामायण के माहात्म्य का पुनः विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। आपने कार्तिक मासमें रामायणके श्रवणकी महिमा बतायी। अब कृपापूर्वक दूसरे मास का माहात्म्य बताइये। मुने! आपके वचनामृतसे किसको संतोष नहीं होगा!
नारदजी ने कहा - महात्माओ ! आप सब लोग निश्चय ही बड़े भाग्यशाली और कृतकृत्य हैं, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि आप भक्तिभावसे भगवान् श्रीरामकी महिमा सुननेके लिये उद्यत हुए हैं। ब्रह्मवादी मुनियोंने भगवान् श्रीरामके माहात्म्य का श्रवण पुण्यात्मा पुरुषों के लिये परम दुर्लभ बताया है। महर्षियो! अब आपलोग एक विचित्र पुरातन इतिहास सुनिये, जो समस्त पापों का निवारण और सम्पूर्ण रोगों का विनाश करनेवाला है।
'पूर्वकालकी बात है, द्वापर में सुमति नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। वे श्रीसम्पन्न और सातों द्वीपों के एकमात्र सम्राट् थे। उनका मन सदा धर्म में ही लगा रहता था। वे सत्यवादी तथा सब प्रकार की सम्पत्तियों से सुशोभित थे। सदा श्रीरामकथा के सेवन और श्रीराम की ही समाराधना में संलग्न रहते थे। श्रीराम की पूजा-अर्चना में लगे रहनेवाले भक्तों की वे सदा सेवा करते थे। उनमें अहंकारका नाम भी नहीं था। वे पूज्य पुरुषों के पूजन में तत्पर रहनेवाले, समदर्शी तथा सद्गुणसम्पन्न थे।'
'राजा सुमति समस्त प्राणियों के हितैषी, शान्त, कृतज्ञ और यशस्वी थे। उनकी परम सौभाग्यशालिनी पत्नी भी समस्त शुभ लक्षणों से सुशोभित थी।
उसका नाम सत्यवती था। वह पतिव्रता थी । पति में ही उसके प्राण बसते थे। वे दोनों पति-पत्नी सदा रामायण के ही पढ़ने और सुनने में संलग्न रहते थे। सदा अन्नका दान करते और प्रतिदिन जलदान में प्रवृत्त रहते थे। उन्होंने असंख्य पोखरों, बगीचों और बावड़ियोंका निर्माण कराया था।
राजा सुमति भी सदा रामायणके ही अनुशीलनमें लगे रहते थे। वे भक्तिभावसे भावित हो रामायणको ही बाँचते अथवा सुनते थे। इस प्रकार वे धर्मज्ञ नरेश सदा श्रीराम की आराधना में ही तत्पर रहते थे। उनकी प्यारी पत्नी सत्यवती भी ऐसी ही थी। देवता भी उन दोनों दम्पतिकी सदा भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे।'
'एक दिन उन त्रिभुवनविख्यात धर्मात्मा राजा-रानीको देखनेके लिये विभाण्डक मुनि अपने बहुत से शिष्योंके साथ वहाँ आये। मुनिवर विभाण्डक को आया देख राजा सुमति को बड़ा सुख मिला। वे पूजा की विस्तृत सामग्री साथ ले पत्नीसहित उनकी अगवानी के लिये गये। जब मुनि का अतिथि-सत्कार सम्पन्न हो गया और वे शान्तभाव से आसनपर विराजमान हो गये, उस समय अपने आसनपर बैठे हुए भूपाल ने मुनि से हाथ जोड़कर कहा।'
राजा बोले - भगवन्! आज आपके शुभागमन से मैं कृतार्थ हो गया; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष संतों के आगमन को सुखदायक बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं। जहाँ महापुरुषों का प्रेम होता है, वहाँ सारी सम्पत्तियाँ अपने-आप उपस्थित हो जाती हैं। वहाँ तेज, कीर्ति, धन और पुत्र – सभी वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं। ऐसा विद्वान् पुरुषों का कथन है। मुने! प्रभो! जहाँ संत-महात्मा बड़ी भारी कृपा करते हैं, वहाँ प्रतिदिन कल्याणमय साधनों की वृद्धि होती है।'
'ब्रह्मन्! जो अपने मस्तक पर ब्राह्मणों का चरणोदक धारण करता है, उस पुण्यात्मा पुरुषने सब तीर्थों में स्नान कर लिया। इसमें संशय नहीं है।
शान्तस्वरूप महर्षे! मेरे पुत्र, पत्नी तथा सारी सम्पत्ति आपके चरणों में समर्पित है। आज्ञा दीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें? ऐसी बातें कहते हुए राजा सुमति की ओर देखकर मुनीश्वर विभाण्डक बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने हाथ से राजा का स्पर्श करते हुए कहा।'
ऋषि बोले - राजन्! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब तुम्हारे कुलके अनुरूप है। जो इस प्रकार विनयसे झुक जाते हैं, वे सब लोग परम कल्याणके भागी होते हैं। भूपाल ! तुम सन्मार्गपर चलनेवाले हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। महाभाग! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमसे जो कुछ पूछता हूँ, उसे बताओ। यद्यपि भगवान् श्रीहरि को संतुष्ट करनेवाले बहुत से पुराण भी थे, जिनका तुम पाठ कर सकते थे, तथापि इस माघमास में सब प्रकार से प्रयत्नशील होकर तुम जो रामायण के ही पारायण में लगे हुए हो तथा तुम्हारी यह साध्वी पत्नी भी सदा जो श्रीराम की ही आराधना में रत रहती है, इसका क्या कारण है? यह वृत्तान्त यथावत् रूप से मुझे बताओ।
राजाने कहा – भगवन्! सुनिये, आप जो कुछ पूछते हैं, वह सब मैं बता रहा हूँ। मुने! हम दोनोंका चरित्र सम्पूर्ण जगत्के लिये आश्चर्यजनक है।
साधुशिरोमणे ! पूर्वजन्ममें मैं मालति नामक शूद्र था। सदा कुमार्गपर ही चलता और सब लोगों के अहित-साधन में ही संलग्न रहता था। दूसरों की चुगली खानेवाला, धर्मद्रोही, देवतासम्बन्धी द्रव्य का अपहरण करनेवाला तथा महापातकियोंके संसर्ग में रहनेवाला था। मैं देव - सम्पत्तिसे ही जीविका चलाता था ।
'गोहत्या, ब्राह्मणहत्या और चोरी करना - यही अपना धंधा था। मैं सदा दूसरे प्राणियों की हिंसा में ही लगा रहता था। प्रतिदिन दूसरों से कठोर बातें बोलता, पाप करता और वेश्याओं में आसक्त रहता था। इस प्रकार कुछ काल तक घर में रहा, फिर बड़े लोगों की आज्ञा का उल्लङ्घन करने के कारण मेरे सभी भाई- बन्धुओंने मुझे त्याग दिया और मैं दुःखी होकर वन में चला आया। वहाँ प्रतिदिन मृगों का मांस खाकर रहता था और काँटे आदि बिछाकर लोगों के आने-जाने का मार्ग अवरुद्ध कर देता था। इस तरह अकेला बहुत दुःख भोगता हुआ मैं उस निर्जन वनमें रहने लगा।'
'एक दिनकी बात है, मैं भूखा-प्यासा, थका-माँदा, निद्रा से झूमता हुआ एक निर्जन वन में आया। वहाँ दैवयोग से वसिष्ठजी के आश्रम पर मेरी दृष्टि पड़ी। उस आश्रमके निकट एक विशाल सरोवर था, जिसमें हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी छा रहे थे। मुनीश्वर ! वह सरोवर चारों ओर से वन्य पुष्प-समूहों द्वारा आच्छादित था। वहाँ जाकर मैंने पानी पिया और उसके तटपर बैठकर अपनी थकावट दूर की। फिर कुछ वृक्षों की जड़ें उखाड़कर उनके द्वारा अपनी भूख बुझायी।'
'वसिष्ठ के उस आश्रम के पास ही मैं निवास करने लगा। टूटी-फूटी स्फटिक शिलाओं को जोड़कर मैंने वहाँ दीवार खड़ी की। फिर पत्तों, तिनकों और काष्ठों द्वारा एक सुन्दर घर बना लिया। उसी घर में रहकर मैं व्याधों (शिकार) की वृत्ति का आश्रय ले नाना प्रकार के मृगों को मारकर उन्हीं के द्वारा बीस वर्षों तक अपनी जीविका चलाता रहा।'
'तदनन्तर मेरी ये साध्वी पत्नी वहाँ मेरे पास आयीं । पूर्वजन्म में इनका नाम काली था। काली निषादकुल की कन्या थी और विन्ध्यप्रदेश (वर्तमान मध्य प्रदेश) में उत्पन्न हुई थी। उसके भाई-बन्धुओंने उसे त्याग दिया था। वह दु:खसे पीड़ित थी। उसका शरीर वृद्ध हो चला था। ब्रह्मन् ! वह भूख-प्यास से शिथिल हो गयी थी और इस सोच में पड़ी थी कि भोजन का कार्य कैसे चलेगा? दैवयोगसे घूमती घामती वह उसी निर्जन वनमें आ पहुँची, जिसमें मैं रहता था।'
'गर्मी का महीना था। बाहर इसे धूप सता रही थी और भीतर मानसिक संताप अत्यन्त पीड़ा दे रहा था। इस दु:खिनी नारी को देखकर मेरे मन में बड़ी दया आयी। मैंने इसे पीने के लिये जल तथा खाने के लिये मांस और जंगली फल दिये। ब्रह्मन् ! काली जब विश्राम कर चुकी, तब मैंने उससे उसका यथावत् वृत्तान्त पूछा।'
'महामुने! मेरे पूछने पर उसने जो अपने जन्म-कर्म निवेदन किये थे, उन्हें बताता हूँ। सुनिये - उसका नाम काली था और वह निषाद कुल की कन्या थी। विद्वन्! उसके पिताका नाम दाम्भिक (या दाविक) था। वह उसी की पुत्री थी और विन्ध्यपर्वत पर निवास करती थी। सदा दूसरों का धन चुराना और चुगली खाना ही उसका काम था।'
'एक दिन उसने अपने पति की हत्या कर डाली, इसीलिये भाई बन्धुओं ने उसे घरसे निकाल दिया। ब्रह्मन्! इस तरह परित्यक्ता काली उस दुर्गम एवं निर्जन वनमें मेरे पास आयी थी। उसने अपनी सारी करतूतें मुझे इसी रूपमें बतायी थीं। मुने! तब वसिष्ठजी के उस पवित्र आश्रम के निकट मैं और काली - दोनों पति-पत्नीका सम्बन्ध स्वीकार करके रहने और मांसाहार से ही जीवन निर्वाह करने लगे।'
'एक दिन हम दोनों जीविका के निमित्त कुछ उद्यम करने के लिये वहाँ वसिष्ठजी के आश्रम पर गये। महात्मन्! वहाँ देवर्षियों का समाज जुटा हुआ था। वही देखकर हमलोग उधर गये थे। वहाँ माघमास में प्रतिदिन ब्राह्मणलोग रामायण का पाठ करते दिखायी देते थे। उस समय हमलोग निराहार थे और पुरुषार्थ करने में समर्थ होकर भी भूख-प्यास से कष्ट पा रहे थे। अतः बिना इच्छाके ही वसिष्ठजी के आश्रमपर चले गये थे। फिर लगातार नौ दिनोंतक भक्तिपूर्वक रामायणकी कथा सुनने के लिये हम दोनों वहाँ जाते रहे।'
मुने! उसी समय हम दोनोंकी मृत्यु हो गयी। हमारे उस कर्मसे भगवान् मधुसूदन का मन प्रसन्न हो गया था, अत: उन्होंने हमें ले आनेके लिये दूत भेजे। वे दूत हम दोनोंको विमानमें बिठाकर भगवान के परम पद (उत्तम धाम ) में ले गये। हम दोनों देवाधिदेव चक्रपाणिके निकट जा पहुँचे। वहाँ हमने जितने समयतक बड़े-बड़े भोग भोगे थे, वह बता रहे हैं।
सुनिये - कोटि सहस्र और कोटि शत युगोंतक श्रीरामधाम में निवास करके हमलोग ब्रह्मलोक में आये। वहाँ भी उतने ही समयतक रहकर हम इन्द्रलोक में आ गये। मुनिश्रेष्ठ! इन्द्रलोक में भी उतने ही काल तक परम उत्तम भोग भोगने के पश्चात् हम क्रमश: इस पृथ्वी पर आये हैं। यहाँ भी रामायण के प्रसाद से हमें अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई है।'
'मुने! अनिच्छासे रामायण का श्रवण करने पर भी हमें ऐसा फल प्राप्त हुआ है। धर्मात्मन्! यदि नौ दिनों तक भक्ति-भाव से रामायण की अमृतमयी कथा सुनी जाय तो वह जन्म, जरा और मृत्युका नाश करनेवाली होती है। विप्रवर! सुनिये, विवश होकर भी जो कर्म किया जाता है, वह रामायण के प्रसाद से परम महान् फल प्रदान करता है।'
नारदजी कहते हैं - यह सब सुनकर मुनीश्वर विभाण्डक राजा सुमतिका अभिनन्दन करके अपने तपोवन को चले गये। विप्रवरो! अत: आपलोग देवाधिदेव चक्रपाणि भगवान् श्रीहरि की कथा सुनिये। रामायण कथा कामधेनु के समान अभीष्ट फल देनेवाली बतायी गयी है। माघ मास के शुक्ल पक्ष में प्रयत्नपूर्वक रामायण की नवाह्न कथा सुननी चाहिये । वह सम्पूर्ण धर्मो का फल प्रदान करनेवाली है। यह पवित्र आख्यान समस्त पापों का नाश करनेवाला है। जो इसे बाँचता अथवा सुनता है, वह भगवान श्रीराम का भक्त होता है।
इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-७५(75) समाप्त !
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