भाग-७४(74) सौदास या सोमदत्त नामक ब्राह्मण को राक्षस तत्त्व की प्राप्ति तथा रामायण कथा श्रवण द्वारा उससे उद्धार

 


सूतजी कहते हैं - नारदजी के मुख से धर्म, अर्थ एवं कामरूपी फल से युक्त, हितकर (मोक्षदायक ) तथा प्रकट और गुप्त - सम्पूर्ण रामचरित्र को, जो रामायण महाकाव्य की प्रधान कथावस्तु था, सुनकर महर्षि वाल्मीकि जी बुद्धिमान् श्रीराम के उस जीवनवृत्त का पुन: भलीभाँति साक्षात्कार करने के लिये प्रयत्न करने लगे। वे पूर्व की और मुख किये कुशोंके आसन पर बैठ गये और विधिवत् आचमन करके हाथ जोड़े हुए स्थिर भावसे स्थित हो योगधर्म (समाधि) के द्वारा श्रीराम आदि के चरित्रों का अनुसंधान करने लगे। 

'श्रीराम-लक्ष्मण-सीता तथा राज्य और रानियों सहित राजा दशरथ से सम्बन्ध रखने वाली जितनी बातें थीं - हँसना, बोलना, चलना और राज्यपालन आदि जितनी चेष्टाएँ हुईं - उन सबका महर्षि ने अपने योगधर्म के बल से भलीभाँति साक्षात्कार किया। सत्यप्रतिज्ञ श्रीरामचन्द्रजी ने लक्ष्मण और सीता के साथ वन में विचरते समय जो-जो लीलाएँ की थीं, वे सब उनकी दृष्टि में आ गयीं। योग का आश्रय लेकर उन धर्मात्मा महर्षि ने पूर्वकाल में जो-जो घटनाएँ घटित हुई थीं, उन सबको वहाँ हाथपर रखे हुए आँवले की तरह प्रत्यक्ष देखा। सबके मन को प्रिय लगने वाले भगवान् श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्रों का योगधर्म (समाधि) के द्वारा यथार्थरूप से निरीक्षण करके महाबुद्धिमान् महर्षि वाल्मीकि ने उन सबको महाकाव्य का रूप देनेकी चेष्टा की।' 

'महात्मा नारदजी ने पहले जैसा वर्णन किया था, उसी के क्रम से भगवान् वाल्मीकि मुनि ने रघुवंशविभूषण श्रीराम के चरित्रविषयक रामायण काव्यका निर्माण किया। जैसे समुद्र सब रत्नों की निधि है, उसी प्रकार यह महाकाव्य गुण, अलङ्कार एवं ध्वनि आदि रत्नों का भण्डार है । इतना ही नहीं, यह सम्पूर्ण श्रुतियों के सारभूत अर्थ का प्रतिपादक होने के कारण सबके कानों को प्रिय लगनेवाला तथा सभी के चित्त को आकृष्ट करनेवाला है। यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी गुणों (फलों) से युक्त तथा इनका विस्तारपूर्वक प्रतिपादन एवं दान करनेवाला है। श्रीराम के जन्म, उनके महान् पराक्रम, उनकी सर्वानुकूलता, लोकप्रियता, क्षमा, सौम्यभाव तथा सत्यशीलता का इस महाकाव्य में महर्षि ने वर्णन किया।'  

'महर्षि वाल्मीकि का चौबीस हजार श्लोकों से युक्त रामायणकाव्य का निर्माण करके उसे लव-कुशको पढ़ाना, मुनिमण्डली में रामायणगान करके लव और कुश का प्रशंसित होना तथा अयोध्या में श्रीरामद्वारा सम्मानित हो उन दोनों का रामदरबार में रामायणगान सुनाना। श्रीरामचन्द्रजीने जब वनसे लौटकर राज्य का शासन अपने हाथ में ले लिया, उसके बाद भगवान् वाल्मीकि मुनि ने उनके सम्पूर्ण चरित्र के आधारपर विचित्र पद और अर्थसे युक्त रामायणकाव्य का निर्माण किया। इसमें महर्षि ने चौबीस हजार श्लोक, पाँच सौ सर्ग तथा उत्तरसहित सात काण्डों का प्रतिपादन किया है।' 

'भविष्य तथा उत्तरकाण्डसहित समस्त रामायण पूर्ण कर लेने के पश्चात् सामर्थ्यशाली, महाज्ञानी महर्षि ने सोचा कि कौन ऐसा शक्तिशाली पुरुष होगा, जो इस महाकाव्य को पढ़कर जनसमुदायमें सुना सके। शुद्ध अन्तःकरणवाले उन महर्षि के इस प्रकार विचार करते ही मुनिवेषमें रहनेवाले राजकुमार कुश और लव ने आकर उनके चरणों में प्रणाम किया। राजकुमार कुश और लव दोनों भाई धर्मके ज्ञाता और यशस्वी थे। उनका स्वर बड़ा ही मधुर था और वे मुनि के आश्रम पर ही रहते थे। उनकी धारणाशक्ति अद्भुत थी और वे दोनों ही वेदों में पारंगत हो चुके थे। भगवान् वाल्मीकि ने उनकी ओर देखा और उन्हें सुयोग्य समझकर उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन महर्षि ने वेदार्थका विस्तार के साथ ज्ञान कराने के लिये उन्हें सीता के चरित्र से युक्त सम्पूर्ण रामायण नामक महाकाव्य का, जिसका दूसरा नाम पौलस्त्य (अर्थात पुलस्त्य का पौत्र) वध अथवा दशाननवध था, अध्ययन कराया।'  

वह महाकाव्य पढ़ने और गाने में भी मधुर, द्रुत, मध्य और विलम्बित - इन तीनों गतियोंसे अन्वित, षड्ज आदि सातों स्वरोंसे युक्त, वीणा बजाकर स्वर और ताल के साथ गाने योग्य तथा श्रृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, भयानक तथा वीर आदि सभी रसों से अनुप्राणित है। दोनों भाई कुश और लव उस महाकाव्य को पढ़कर उसका गान करने लगे। 

सनत्कुमार ने नारदजी से पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! सम्पूर्ण धर्मोका फल देनेवाली रामायणकथाका को लिखने वाले भगवान वाल्मीकि के अनुपम इतिहास का वर्णन आपने किया। अब कृपा कर यह बतायें कि सौदासको गौतम ऋषि द्वारा कैसे शाप प्राप्त हुआ? फिर वे रामायणके प्रभाव से किस प्रकार शापमुक्त हुए थे। मुने! यदि आपका हमलोगोंपर अनुग्रह हो तो सब कुछ ठीक-ठीक बताइये। इन सारी बातों से हमें अवगत कराइये; क्योंकि भगवान की कथा वक्ता और श्रोता दोनोंके पापोंका नाश करनेवाली है। 

नारदजीने कहा – ब्रह्मन् ! सत्ययुगमें एक ब्राह्मण थे, जिन्हें धर्म-कर्म का विशेष ज्ञान था। उनका नाम था सोमदत्त। वे सदा धर्मके पालनमें ही तत्पर रहते थे। वे ब्राह्मण सौदास नाम से भी विख्यात थे। ब्राह्मण ने ब्रह्मवादी गौतम मुनि से गंगाजी के मनोरम तटपर सम्पूर्ण धर्मों का उपदेश सुना था। गौतमने पुराणों और शास्त्रों की कथाओं द्वारा उन्हें तत्त्व का ज्ञान कराया था। सौदास ने गौतम से उनके बताये हुए सम्पूर्ण धर्मो का श्रवण किया था । 

'एक दिनकी बात है, सौदास परमेश्वर शिव की आराधना में लगे हुए थे। उसी समय वहाँ उनके गुरु गौतम जी आ पहुँचे; परंतु सौदास ने अपने निकट आये हुए गुरु को भी उठकर प्रणाम नहीं किया। परम बुद्धिमान् गौतम तेज की निधि थे, वे शिष्य के बर्ताव से रुष्ट न होकर शान्त ही बने रहे। उन्हें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि मेरा शिष्य सौदास शास्त्रोक्त कर्मों का अनुष्ठान करता है। किंतु सौदासने जिनकी आराधना की थी, वे सम्पूर्ण जगत्के गुरु महादेव शिव गुरु की अवहेलना से होनेवाले पाप को न सह सके। उन्होंने सौदास को राक्षस की योनि में जाने का शाप दे दिया। तब विनय कला कोविद ब्राह्मणने हाथ जोड़कर गौतम से कहा। 

ब्राह्मण बोले - सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञाता! सर्वदर्शी ! सुरेश्वर ! भगवन्! मैंने जो अपराध किया है, वह सब आप क्षमा कीजिये। 

गौतमने कहा - वत्स! कार्तिक मास के शुक्लपक्षमें तुम रामायण की अमृतमयी कथा को भक्तिभाव से आदरपूर्वक श्रवण करो। इस कथाको नौ दिनों में सुनना चाहिये। ऐसा करने से यह शाप अधिक दिनों तक नहीं रहेगा। केवल बारह वर्षों तक ही रह सकेगा। 

ब्राह्मणने पूछा - रामायण की कथा किसने कही है? तथा उसमें किसके चरित्रोंका वर्णन किया गया है? महामते ! यह सब संक्षेप से बतानेकी कृपा करें। यों कहकर मन ही मन प्रसन्न हो सौदासने गुरु के चरणोंमें प्रणाम किया। 

गौतमने कहा – ब्रह्मन् ! सुनो। रामायण- काव्यका निर्माण वाल्मीकि मुनि ने किया है। जिन भगवान् श्रीरामने अवतार ग्रहण करके रावण आदि राक्षसों का संहार किया और देवताओं का कार्य सँवारा था, उन्हीं के चरित्र का रामायण-काव्य में वर्णन है। तुम उसी का श्रवण करो। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष में नवें दिन अर्थात् प्रतिपदा से नवमी तक रामायण की कथा सुननी चाहिये। वह समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। 

'ऐसा कहकर पूर्णकाम गौतम ऋषि अपने आश्रम को चले गये। इधर सोमदत्त या सुदास नामक ब्राह्मण ने दुःखमन होकर राक्षस शरीर का आश्रय लिया। वे सदा भूख-प्यास से पीड़ित तथा क्रोध के वशीभूत रहते थे। उनके शरीर का रंग कृष्ण पक्ष की रात के समान काला था। वे भयानक राक्षस होकर निर्जन वन में भ्रमण करने लगे। वहाँ वे नाना प्रकार के पशुओं, मनुष्यों, साँप बिच्छू आदि जन्तुओं, पक्षियों और वानरों को बलपूर्वक पकड़कर खा जाते थे। उस राक्षस के द्वारा यह पृथ्वी बहुत-सी हड्डियों तथा लाल-पीले शरीरवाले रक्तपायी प्रेतों से परिपूर्ण हो अत्यन्त भयंकर दिखायी देने लगी।' 

'छ: महीने में ही सौ योजन विस्तृत भूभाग को अत्यन्त दुःखित करके वह राक्षस पुन: दूसरे किसी वन में चला गया। वहाँ भी वह प्रतिदिन नरमांस का भोजन करता रहा। सम्पूर्ण लोकों के मन में भय उत्पन्न करने वाला वह राक्षस घूमता- घामता नर्मदाजी के तटपर जा पहुँचा। इसी समय कोई अत्यन्त धर्मात्मा ब्राह्मण उधर आ निकला। उसका जन्म कलिंग देश (वर्तमान में ओडिशा और आंध्र प्रदेश के उत्तरी हिस्से) में हुआ था। लोगों में वह गर्ग नाम से विख्यात था। कंधेपर गंगाजल लिये भगवान् विश्वनाथ की स्तुति तथा श्रीरामके नामों का गान करता हुआ वह ब्राह्मण बड़े हर्ष और उत्साह में भरकर उस पुण्य प्रदेशमें आया था।' 

'गर्ग मुनि को आते देख राक्षस सुदास बोल उठा, 'हमें भोजन प्राप्त हो गया।'  ऐसा कहकर अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर उठाये हुए वह मुनि की ओर चला; परंतु उनके द्वारा उच्चारित होने वाले भगवन्नामों को सुनकर वह दूर ही खड़ा रहा। उन महर्षि को मारने में असमर्थ होकर राक्षस उनसे इस प्रकार बोला।' 

राक्षसने कहा – यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है! भद्र! महाभाग! आप महात्माको नमस्कार है। आप जो भगवन्नामों का स्मरण कर रहे हैं, इतनेसे ही राक्षस भी दूर भाग जाते हैं। मैंने पहले कोटि सहस्र ब्राह्मणों का भक्षण किया है। ब्रह्मन्! आपके पास जो नामरूपी कवच है, वही राक्षसों के महान् भयसे आपकी रक्षा करता है। आपके द्वारा किये गये नामस्मरणमात्र से हम राक्षसों को भी परम शान्ति प्राप्त हो गयी। यह भगवान् अच्युत की कैसी महिमा है। महाभाग ब्राह्मण! आप श्रीरामकथा के प्रभाव से सर्वथा राग आदि दोषों से रहित हो गये हैं। अतः आप मुझे इस अधम पातक से बचाइये। 

'मुनिश्रेष्ठ! मैंने पूर्वकालमें अपने गुरुकी अवहेलना की थी। फिर गुरुजीने मुझपर अनुग्रह किया और यह बात कही - ‘पूर्वकालमें वाल्मीकि मुनि ने जो रामायण की कथा कही है, उसका कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में प्रयत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये। इतना कहकर गुरुदेवने पुन: यह सुन्दर एवं शुभदायक वचन कहा - 'रामायणकी अमृतमयी कथा नौ दिनमें सुननी चाहिये। अत: सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वको जाननेवाले महाभाग ब्राह्मण! आप मुझे रामायण कथा सुनाकर इस पापकर्म से मेरी रक्षा कीजिये। 

नारदजी कहते हैं - उस समय वहाँ राक्षस के मुख से रामायण का परिचय तथा श्रीराम के उत्तम माहात्म्य का वर्णन सुनकर द्विजश्रेष्ठ गर्ग आश्चर्यचकित हो उठे। श्रीरामका नाम ही उनके जीवनका अवलम्ब था। वे ब्राह्मणदेवता उस राक्षस के प्रति दयासे द्रवित हो गये और सुदाससे इस प्रकार बोले। 

ब्राह्मणने कहा - महाभाग ! राक्षसराज ! तुम्हारी बुद्धि निर्मल हो गयी है। इस समय कार्तिकमास का शुक्लपक्ष चल रहा है। इसमें रामायणकी कथा सुनो। रामभक्तिपरायण राक्षस! तुम श्रीरामचन्द्रजी के माहात्म्य को श्रवण करो। श्रीरामचन्द्रजी के ध्यानमें तत्पर रहनेवाले मनुष्यों को बाधा पहुँचाने में कौन समर्थ हो सकता है। जहाँ श्रीरामका भक्त है, वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान हैं। वहीं देवता, सिद्ध तथा रामायण का आश्रय लेनेवाले मनुष्य हैं। अत: इस कार्तिकमास के शुक्ल पक्ष में तुम रामायण की कथा सुनो। नौ दिनों तक इस कथा को सुनने का विधान है। अत: तुम सदा सावधान रहो। 

'ऐसा कहकर गर्ग मुनि ने उसे रामायणकी कथा सुनायी। कथा सुनते ही उसका राक्षसत्व दूर हो गया। राक्षस- भावका परित्याग करके वह देवताओंके समान सुन्दर, करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी और भगवान् नारायण के समान कान्तिमान् हो गया। अपनी चार भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म लिये वह श्रीहरिके वैकुण्ठधाममें चला गया। ब्राह्मण गर्ग मुनि की भूरि-भूरि प्रशंसा करता हुआ वह भगवान के उत्तम धाममें जा पहुँचा। 

नारदजी कहते हैं — विप्रवरो! अत: आपलोग भी रामायण की अमृतमयी कथा सुनिये। इसके श्रवण की सदा ही महिमा है, किंतु कार्तिकमास में विशेष बतायी गयी है। रामायण के नामका स्मरण करने से ही मनुष्य करोड़ों महापातकों तथा समस्त पापों से मुक्त हो परमगति को प्राप्त होता है। मनुष्य ‘रामायण” इस नामका जब एक बार भी उच्चारण करता है, तभी वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और अन्तमें भगवान् विष्णुके लोकमें चला जाता है। जो मनुष्य सदा भक्तिभाव से रामायण-कथा को पढ़ते और सुनते हैं, उन्हें गंगास्नान की अपेक्षा सौगुना पुण्यफल प्राप्त होता है। 

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-७४(74) समाप्त !

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