भाग-७३(73) ब्रह्माजी का महर्षि वाल्मीकि को रामायण महाकाव्य के निर्माण का आदेश देना

 


सूतजी कहते हैं - हे ऋषिगणों ! देवर्षि नारदजी के उपर्युक्त वचन सुनकर वाणीविशारद धर्मात्मा ऋषि वाल्मीकिजी ने अपने शिष्यों सहित उन महामुनि का पूजन किया। वाल्मीकिजी से यथावत सम्मानित हो देवर्षि नारदजी ने जाने के लिये उनसे आज्ञा माँगी और उनसे अनुमति मिल जाने पर वे आकाशमार्ग से चले गये। उनके देवलोक पधारने के दो ही घडी बाद वाल्मीकिजी तमसा नदी के तट पर गये, जो गंगाजी से अधिक दूर नहीं था। 

तमसा के तटपर पहुँच कर वहाँ के घाट को कीचड़ से रहित देख मुनि ने अपने पास खड़े हुए शिष्य से कहा – ‘भरद्वाज! देखो, यहाँ का घाट बड़ा सुन्दर है। इसमें कीचड़ का नाम नहीं है। यहाँ का जल वैसा ही स्वच्छ है, जैसा सत्पुरुष का मन होता है। तात! यहीं कलश रख दो और मुझे मेरा वल्कल दो। मैं तमसा के इसी उत्तम तीर्थ में स्नान करूंगा। महात्मा वाल्मीकि के ऐसा कहने पर नियम परायण शिष्य भरद्वाज ने अपने गुरु मुनिवर वाल्मीकि को वल्कल वस्त्र दिया। 

'शिष्य के हाथ से वल्कल लेकर वे जितेन्द्रिय मुनि वहाँ के विशाल वन की शोभा देखते हुए सब ओर विचरने लगे। उनके पास ही क्रौञ्च पक्षियों का एक जोड़ा जो कभी एक-दूसरे से अलग नहीं होता था, विचर रहा था। वे दोनों पक्षी बड़ी मधुर बोली बोलते थे। भगवान् वाल्मीकि ने पक्षियोंके उस जोड़े को वहाँ देखा। उसी समय पापपूर्ण विचार रखने वाले एक निषाद ने, जो समस्त जन्तुओं का अकारण वैरी था, वहाँ आकर पक्षियों के उस जोड़े में से एक नर पक्षी को मुनि के देखते-देखते बाण से मार डाला।

'वह पक्षी खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और पंख फड़फड़ाता हुआ तड़पने लगा। अपने पति की हत्या हुई देख उसकी भार्या क्रौञ्ची करुणाजनक स्वर में चीत्कार कर उठी। उत्तम पंखों से युक्त वह पक्षी सदा अपनी भार्या के साथ-साथ विचरता था। उसके मस्तक का रंग ताँबे के समान लाल था और वह काम से मतवाला हो गया था। ऐसे पति से वियुक्त होकर क्रौञ्ची बड़े दुःख से रो रही थी। निषाद ने जिसे मार गिराया था, उस नर पक्षी की वह दुर्दशा देख उन धर्मात्मा ऋषि को बड़ी दया आयी। स्वभावतः कुरुणा का अनुभव करने वाले ब्रह्मर्षि ने 'यह अधर्म हुआ है' ऐसा निश्चय करके रोती हुई क्रौञ्ची की ओर देखते हुए निषाद से इस प्रकार कहा -

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

अर्थात्: हे निषाद ! तुमको अनंत काल तक शांति न मिले, क्योंकि तुमने प्रेम, प्रणय-क्रिया में लीन असावधान क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी। [वाल्मीकि के क्रोध और दुःख से निकला हुआ यह संस्कृत का पहला श्लोक माना गया। तभी से महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि (संसार का पहला कवि) माना गया तथा इनकी रचना रामायण को जिसमे २४००० श्लोक हैं को आदिकाव्य  (संसार का प्रथम महाकाव्य) माना गया]

ऐसा कहकर जब उन्होंने इस पर विचार किया, तब उनके मन में यह चिन्ता हुई कि 'अहो! इस पक्षी के शोक से पीडित होकर मैंने यह क्या कह डाला। यही सोचते हुए महाज्ञानी और परम बुद्धिमान् मुनिवर वाल्मीकि एक निश्चय पर पहुँच गये और अपने शिष्य से इस प्रकार बोले - तात! शोक से पीड़ित हुए मेरे मुख से जो वाक्य निकल पड़ा है, यह चार चरणों में आबद्ध है। इसके प्रत्येक चरण में बराबर-बराबर यानी आठ-आठ अक्षर हैं तथा इसे वीणा के लयपर गाया भी जा सकता है; अतः मेरा यह वचन श्लोकरूप (अर्थात् श्लोक नामक छन्द में आबद्ध काव्यरूप या यशः स्वरूप) होना चाहिये, अन्यथा नहीं। 

मुनि की यह उत्तम बात सुनकर उनके शिष्य भरद्वाज को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उनका समर्थन करते हुए कहा - ‘हाँ, आपका यह वाक्य श्लोक रूप ही होना चाहिये।' शिष्य के इस कथनसे मुनि को विशेष संतोष हुआ। तत्पश्चात् उन्होंने उत्तम तीर्थ में विधिपूर्वक स्नान किया और उसी विषय का विचार करते हुए वे आश्रम की ओर लौट पड़े।  

'फिर उनका विनीत एवं शास्त्रज्ञ शिष्य भरद्वाज भी वह जलसे भरा हुआ कलश लेकर गुरुजी के पीछे-पीछे चला। शिष्यके साथ आश्रममें पहुँचकर धर्मज्ञ ऋषि वाल्मीकिजी आसनपर बैठे और दूसरी दूसरी बातें करने लगे; परंतु उनका ध्यान उस श्लोक की ओर ही लगा था। इतने ही में अखिल विश्व की सृष्टि करनेवाले, सर्वसमर्थ, महातेजस्वी चतुर्मुख ब्रह्माजी मुनिवर वाल्मीकि से मिलने के लिये स्वयं उनके आश्रम पर आये। उन्हें देखते ही महर्षि वाल्मीकि सहसा उठकर खड़े हो गये। वे मन और इन्द्रियों को वशमें रखकर अत्यन्त विस्मित हो हाथ जोड़े चुपचाप कुछ काल तक खड़े ही रह गये, कुछ बोल न सके।' 

तत्पश्चात् उन्होंने पाद्य, अर्घ्य, आसन और स्तुति आदि के द्वारा भगवान् ब्रह्माजी का पूजन किया और उनके चरणों में विधिवत् प्रणाम करके उनसे कुशल- समाचार पूछा। भगवान् ब्रह्माने एक परम उत्तम आसनपर विराजमान होकर वाल्मीकि मुनि को भी आसन ग्रहण करनेकी आज्ञा दी ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर वे भी आसन पर बैठे। उस समय साक्षात् लोकपितामह ब्रह्मा सामने बैठे हुए थे तो भी वाल्मीकि का मन उस क्रौञ्च पक्षीवाली घटना की ओर ही लगा रहा।' 

वे उसीके विषय में सोचने लगे - 'ओह ! जिसकी बुद्धि वैरभाव को ग्रहण करने में ही लगी रहती है, उस पापात्मा व्याध ने बिना किसी अपराध के ही वैसे मनोहर कलरव करनेवाले क्रौञ्च पक्षीके प्राण ले लिये। यही सोचते-सोचते उन्होंने क्रौञ्ची के आर्तनाद को सुनकर निषाद को लक्ष्य करके जो श्लोक कहा था, उसी को फिर ब्रह्माजी के सामने दुहराया। उसे दुहराते ही फिर उनके मन में अपने दिये हुए शाप के अनौचित्य का ध्यान आया। तब वे शोक और चिन्ता में डूब गये। 

ब्रह्माजी उनकी मन:स्थिति को समझकर हँसने लगे और मुनिवर वाल्मीकि से इस प्रकार बोले - 'ब्रह्मन् ! तुम्हारे मुँह से निकला हुआ यह छन्दोबद्ध वाक्य श्लोकरूप ही होगा। इस विषय में तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। मेरे संकल्प अथवा प्रेरणा से ही तुम्हारे मुँह से ऐसी वाणी निकली है। 

'मुनिश्रेष्ठ! तुम श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करो। परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम संसार में सबसे बड़े धर्मात्मा और धीर पुरुष हैं। तुमने नारदजी के मुँह से जैसा सुना है, उसी के अनुसार उनके चरित्र का चित्रण करो। बुद्धिमान् श्रीराम का जो गुप्त या प्रकट वृत्तान्त है तथा लक्ष्मण, सीता और राक्षसों के जो सम्पूर्ण गुप्त या प्रकट चरित्र हैं, वे सब अज्ञात होनेपर भी तुम्हें ज्ञात हो जायेंगे। इस काव्य में अंकित तुम्हारी कोई भी बात झूठी नहीं होगी; इसलिये तुम श्रीरामचन्द्रजी की परम पवित्र एवं मनोरम कथा को श्लोकबद्ध करके लिखो। इस पृथ्वी पर जबतक नदियों और पर्वतों की सत्ता रहेगी, तब तक संसार में रामायण कथा का प्रचार होता रहेगा। जब तक तुम्हारी बनायी हुई श्रीरामकथा का लोक में प्रचार रहेगा, तब तक तुम इच्छानुसार ऊपर-नीचे तथा मेरे लोकों में निवास करोगे।' 

ऐसा कहकर भगवान् ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। उनके वहीं अन्तर्धान होने से शिष्यों सहित भगवान् वाल्मीकि मुनि को बड़ा विस्मय हुआ तदनन्तर उनके सभी शिष्य अत्यन्त प्रसन्न होकर बार-बार इस लोक का गान करने लगे तथा परम विस्मित हो परस्पर इस प्रकार कहने लगे - ‘हमारे गुरुदेव महर्षि ने क्रौञ्च पक्षी के दुःख से दुःखी होकर जिस समान अक्षरों वाले चार चरणों से युक्त वाक्य का गान किया था, वह था तो उनके हृदय का शोक; किंतु उनकी वाणी द्वारा उच्चारित होकर श्लोकरूप हो गया।' 

'इधर शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षि वाल्मीकि के मन में यह विचार हुआ कि मैं ऐसे ही श्लोकों में सम्पूर्ण रामायण काव्य की रचना करूँ। यह सोचकर उदार दृष्टिवाले उन यशस्वी महर्षि ने भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के चरित्र को लेकर हजारों श्लोकों से युक्त महाकाव्य की रचना की, जो उनके यश को बढ़ाने वाला है। इसमें श्रीराम के उदार चरित्रों का प्रतिपादन करने वाले मनोहर पदों का प्रयोग किया गया है।' 

'महर्षि वाल्मीकि के बनाये हुए इस काव्य में तत्पुरुष आदि समासों, दीर्घ- गुण आदि संधियों और प्रकृति-प्रत्यय के सम्बन्ध का यथायोग्य निर्वाह हुआ है। इसकी रचनायें समता (पतत् प्रकर्ष आदि दोषोंका अभाव) है, पदों में माधुर्य है और अर्थ में प्रसाद-गुण की अधिकता है। भावुकजनो! इस प्रकार शास्त्रीय पद्धति के अनुकूल बने हुए इस रघुवर चरित्र और रावण वध के प्रसंग को ध्यान देकर सुनो।' 

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-७३(73) समाप्त !

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