भाग-७२(72) नारदजी का वाल्मीकि मुनि को संक्षेप में श्रीरामचरित्र सुनाना

 


ऋषियों ने पूछा - हे महाप्रज्ञ सूतजी! आपने हमे नारदजी-सनत्कुमार संवाद कहा तथा उसी से आपने भगवान वाल्मीकि के जीवन की अनोखी लीला हम सब को सुनाई। अब कृपा करके हमे यह बतायें की जब नारदजी के उपदेश के प्रभाव से रत्नाकर, वाल्मीकि बने। तत्पश्चात नारदजी और वाल्मीकिजी की पुनः भेंट कब हुई? तथा उसका क्या परिणाम निकला? महर्षि वाल्मीकि ने अमृतमयी रामायण कथा की रचना किस प्रकार की? यह सब आप हमे विस्तार से बतायें। 

सूतजी कहते हैं - बहुत समय बीत जाने के पश्चात एक बार देवर्षि नारद कौतुहलवश महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पधारे। उन्हें अपने आश्रम में आया देख महर्षि वाल्मीकि ने उनका खूब आदर-सत्कार किया तथा उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। तब महर्षि वाल्मीकि हाथ जोड़कर नारदजी के समक्ष खड़े हो गए। 

तपस्वी वाल्मीकिजीने तपस्या और स्वाध्यायमें लगे हुए विद्वानोंमें श्रेष्ठ मुनिवर नारदजीसे पूछा - ‘मुने! इस समय इस संसारमें गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार माननेवाला, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है? सदाचारसे युक्त, समस्त प्राणियोंका हितसाधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन (सुन्दर) पुरुष कौन है? मनपर अधिकार रखनेवाला, क्रोधको जीतनेवाला, कान्तिमान् और किसीकी भी निन्दा नहीं करनेवाला कौन है? तथा संग्राममें कुपित होनेपर किससे देवता भी डरते हैं? महर्षे! मैं यह सुनना चाहता हूँ, इसके लिये मुझे बड़ी उत्सुकता है और आप ऐसे पुरुष को जानने में समर्थ हैं। 

महर्षि वाल्मीकि के इस वचन को सुनकर तीनों लोकोंका ज्ञान रखनेवाले नारदजी ने उन्हें सम्बोधित करके कहा, अच्छा सुनिये और फिर प्रसन्नतापूर्वक बोले – मुने! आपने जिन बहुत-से दुर्लभ गुणोंका वर्णन किया है, उनसे युक्त पुरुषको मैं विचार करके कहता हूँ, आप सुनें इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगोंमें राम-नामसे विख्यात हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं। 

‘वे बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रुसंहारक हैं। उनके कंधे मोटे और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। ग्रीवा शङ्खके समान और ठोढ़ी मांसल (पुष्ट) है। उनकी छाती चौड़ी तथा धनुष बड़ा है, गलेके नीचेकी हड्डी (हँसली) मांससे छिपी हुई है। वे शत्रुओंका दमन करने वाले हैं। भुजाएँ घुटनेतक लम्बी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट भव्य और चाल मनोहर है। उनका शरीर अधिक ऊँचा या नाटा न होकर मध्यम और सुडौल है, देहका रंग चिकना है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनका वक्ष:स्थल भरा हुआ है, आँखें बड़ी-बड़ी हैं। वे शोभायमान और शुभ लक्षणों से सम्पन्न हैं।' 

'धर्मके ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजा के हित साधन में लगे रहनेवाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेन्द्रिय और मन को एकाग्र रखनेवाले हैं। प्रजापति के समान पालक, श्रीसम्पन्न, वैरिविध्वंसक और जीवों तथा धर्म के रक्षक हैं। स्वधर्म और स्वजनों के पालक, वेद-वेदांगों के तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण हैं।' 

‘वे अखिल शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ, स्मरणशक्तिसे युक्त और प्रतिभासम्पन्न हैं। अच्छे विचार और उदार हृदयवाले वे श्रीरामचन्द्रजी बातचीत करने में चतुर तथा समस्त लोकों के प्रिय हैं। जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलती हैं, उसी प्रकार सदा राम से साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे आर्य एवं सबमें समान भाव रखनेवाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है। सम्पूर्ण गुणोंसे युक्त वे श्रीरामचन्द्रजी अपनी माता कौसल्या के आनन्द बढ़ाने वाले हैं, गम्भीरतामें समुद्र और धैर्य में हिमालयके समान हैं।' 

'वे विष्णु भगवान के समान बलवान् हैं। उनका दर्शन चन्द्रमा के समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोध में कालाग्नि के समान और क्षमा में पृथ्वी के  सदृश हैं, त्यागमें कुबेर और सत्यमें द्वितीय धर्मराजके समान हैं। इस प्रकार उत्तम गुणोंसे युक्त और सत्यपराक्रमवाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम ज्येष्ठ पुत्र को, जो प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले थे, प्रजा वर्गका हित करने की इच्छा से राजा दशरथ ने प्रेम वश युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहा। तदनन्तर राम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ देखकर रानी कैकेयी ने, जिसे पहले ही वर दिया जा चुका था, राजा से यह वर माँगा कि राम का निर्वासन (वनवास) और भरतका राज्याभिषेक हो।' 

'राजा दशरथ ने सत्य वचन के कारण धर्म-बन्धन में बँधकर प्यारे पुत्र राम को वनवास दे दिया। कैकेयी का प्रिय करने के लिये पिता की आज्ञा के अनुसार उनकी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वीर रामचन्द्र वन को चले। तब सुमित्रा के आनन्द बढ़ाने वाले विनयशील लक्ष्मणजी ने भी, जो अपने बड़े भाई राम को बहुत ही प्रिय थे, अपने सुबन्धुत्व का परिचय देते हुए स्नेहवश वन को जाने वाले बन्धुवर राम का अनुसरण किया और जनक के कुल में उत्पन्न सीता भी, जो अवतीर्ण हुई देवमाया की भाँति सुन्दरी, समस्त शुभलक्षणों से विभूषित, स्त्रियों में उत्तम, रामके प्राणों के समान प्रियतमा पत्नी तथा सदा ही पतिका हित चाहने वाली थी, रामचन्द्रजीके पीछे चली; जैसे चन्द्रमाके पीछे रोहिणी चलती है । उस समय पिता दशरथ ने अपना सारथि भेजकर और पुरवासी मनुष्यों ने स्वयं साथ जाकर  दूर तक उनका अनुसरण किया।' 

‘फिर श्रृंगवेरपुर में गंगा-तटपर अपने प्रिय निषादराज गुहके पास पहुँचकर धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजीने सारथि को अयोध्याके लिये विदा कर दिया। निषादराज गुह, लक्ष्मण और सीताके साथ राम- ये चारों एक वनसे दूसरे वन में गये । मार्ग में बहुत जलों वाली अनेकों नदियों को पार करके भरद्वाजके आश्रमपर पहुँचे और गुहको वहीं छोड़ भरद्वाज मुनि की आज्ञा से चित्रकूट पर्वत पर गये। वहाँ वे तीनों देवता और गन्धर्वोके समान वनमें नाना प्रकार की लीलाएँ करते हुए एक रमणीय पर्ण कुटी बनाकर उसमें सानन्द रहने लगे। रामके चित्रकूट चले जाने पर पुत्रशोक से पीडित राजा दशरथ उस समय पुत्र के लिये उसका नाम ले-लेकर विलाप करते हुए स्वर्गगामी हुए।' 

‘उनके स्वर्गगमन के पश्चात् वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों द्वारा राज्यसंचालन के लिये नियुक्त किये जानेपर भी महाबलशाली वीर भरतने राज्य की कामना न करके पूज्य राम को प्रसन्न करनेके लिये वन को ही प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर सद्भावनायुक्त भरतजीने अपने बड़े भाई सत्यपराक्रमी महात्मा राम से याचना की और यों कहा - धर्मज्ञ ! आप ही राजा हों।  परंतु महान् यशस्वी परम उदार प्रसन्नमुख महाबली राम ने भी पिता के आदेशका पालन करते हुए राज्यकी अभिलाषा की और उन भरताग्रज ने राज्यके लिये न्यास (चिह्न) रूप में अपनी खड़ाऊँ भरत को देकर उन्हें बार-बार आग्रह करके लौटा दिया। अपनी अपूर्ण इच्छाको लेकर ही भरत ने राम के चरणोंका स्पर्श किया और राम के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए नन्दिग्राम में राज्य करने लगे।' 

‘भरत के लौट जाने पर सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय श्रीमान् राम ने वहाँ पर पुनः नागरिक जनों का आना-जाना देखकर उनसे बचनेके लिये एकाग्रभाव से दण्डकारण्यमें प्रवेश किया। उस महान् वन में पहुँचने पर कमललोचन राम ने विराध नामक राक्षस को मारकर शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य मुनि तथा अगस्त्य के भ्राता का दर्शन किया। फिर अगस्त्य मुनि के कहने से उन्होंने इन्द्र धनुष, एक खडग और दो तूणीर, जिनमें बाण कभी नहीं घटते थे, प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किये।' 

‘एक दिन वन में वनचरों के साथ रहने वाले श्रीराम के पास असुर तथा राक्षसोंके वध के लिये निवेदन करने को वहाँके सभी ऋषि आये। उस समय वन में श्रीराम ने दण्डकारण्यवासी अग्निके समान तेजस्वी उन ऋषियों को राक्षसों के मारने का वचन दिया और संग्राम में उनके वधकी प्रतिज्ञा की। वहाँ ही रहते हुए श्रीराम ने इच्छानुसार रूप बनाने वाली जनस्थाननिवासिनी शूर्पणखा नाम की राक्षसी को लक्ष्मणके द्वारा उसकी नाक कटाकर कुरूप कर दिया। तब शूर्पणखा के कहने से चढ़ाई करनेवाले सभी राक्षसों को और खर दूषण, त्रिशिरा तथा उनके पृष्ठपोषक असुरों को रामने युद्ध में मार डाला।' 

'उस वनमें निवास करते हुए उन्होंने जनस्थानवासी चौदह हजार राक्षसों का वध किया। तदनन्तर अपने कुटुम्बका वध सुनकर रावण नामका राक्षस क्रोध से मूर्च्छित हो उठा और उसने मारीच राक्षस से सहायता माँगी। यद्यपि मारीच ने यह कहकर कि 'रावण! उस बलवान् रामके साथ तुम्हारा विरोध ठीक नहीं है' रावण को अनेकों बार मना किया; परंतु काल की प्रेरणा से रावण ने मारीच के वाक्यों को टाल दिया और उसके साथ ही रामके आश्रम पर गया। 

'मायावी मारीच के द्वारा उसने दोनों राजकुमारों को आश्रमसे दूर हटा दिया और स्वयं राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया, जाते समय मार्गमें विघ्न डालनेके कारण उसने जटायु नामक गिद्ध का वध किया। तत्पश्चात् जटायु को आहत देखकर और उसी के मुख से सीता का हरण सुनकर रामचन्द्र जी शोक से पीड़ित होकर विलाप करने लगे, उस समय उनकी सभी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठी थीं।' 

‘फिर उसी शोक में पड़े हुए उन्होंने जटायु गिद्ध का अग्निसंस्कार किया और वन में सीता को ढूँढते हुए कबन्ध नामक राक्षस को देखा, जो शरीरसे विकृत तथा भयंकर दीखनेवाला था। महाबाहु राम ने उसे मारकर उसका भी दाह किया, अत: वह स्वर्ग को चला गया। जाते समय उसने रामसे धर्मचारिणी शबरी का पता बतलाया और कहा - ' रघुनन्दन ! आप धर्मपरायणा संन्यासिनी शबरीके आश्रमपर जाइये। शत्रुहन्ता महान् तेजस्वी दशरथकुमार राम शबरी के यहाँ गये, उसने इनका भलीभाँति पूजन किया। फिर वे पम्पासर के तटपर हनुमान् नामक वानरसे मिले और उन्हीं के  कहने से सुग्रीव से भी मेल किया। तदनन्तर महाबलवान् राम ने आदि से ही लेकर जो कुछ हुआ था वह और विशेषतः सीताका वृत्तान्त सुग्रीव से कह सुनाया। वानर सुग्रीवने रामकी सारी बातें सुनकर उनके साथ प्रेमपूर्वक अग्निको साक्षी बनाकर मित्रता की।' 

‘उसके बाद वानरराज सुग्रीव ने स्नेहवश वाली के साथ वैर होने की सारी बातें राम से दुःखी होकर बतलायीं। उस समय राम ने वाली को मारने की प्रतिज्ञा की, तब वानर सुग्रीवने वहाँ वाली के बल का वर्णन किया; क्योंकि सुग्रीव को राम के बल के विषय में बराबर शंका बनी रहती थी। राम की परीक्षा के लिये उन्होंने दुन्दुभि दैत्यका महान् पर्वतके समान विशाल शरीर दिखलाया। महाबली महाबाहु श्रीराम ने तनिक मुस्कुराकर उस अस्थिसमूह को देखा और पैर के अँगूठे से उसे दस योजन दूर फेंक दिया।' 

‘फिर एक ही महान् बाण से उन्होंने अपना विश्वास दिलाते हुए सात तालवृक्षों को और पर्वत तथा रसातलको बींध डाला। तदनन्तर रामके इस कार्य से महाकपि सुग्रीव मन-ही-मन प्रसन्न हुए और उन्हें रामपर विश्वास हो गया। फिर वे उनके साथ किष्किन्धा गुहा में गये। वहाँपर सुवर्णके समान पिंगलवर्ण वाले वीरवर सुग्रीव ने गर्जना की, उस महानाद को सुनकर वानरराज वाली अपनी पत्नी तारा को आश्वासन देकर तत्काल घर से बाहर निकला और सुग्रीव से भिड़ गया। वहाँ रामने वाली को एक ही बाण से मार गिराया।' 

'सुग्रीव के कथनानुसार उस संग्राम में वाली को मारकर उसके राज्यपर राम ने सुग्रीव को ही बिठा दिया। तब उन वानरराज ने भी सभी वानरों को बुलाकर जानकी का पता लगाने के लिये उन्हें चारों दिशाओं में भेजा। तत्पश्चात् सम्पाति नामक गिद्ध के कहने से बलवान् हनुमानजी सौ योजन विस्तार वाले क्षार समुद्र को कूदकर लाँघ गये। वहाँ रावणपालित लङ्कापुरी में पहुँचकर उन्होंने अशोकवाटिका में सीता को चिन्तामग्न देखा। तब उन विदेहनन्दिनी को अपनी पहचान देकर राम का संदेश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिका का द्वार तोड़ डाला। फिर पाँच सेनापतियों और सात मन्त्रिकुमारोंकी हत्या कर वीर अक्षकुमार का भी कचूमर निकाला, इसके बाद वे जान-बूझकर पकड़े गये।' 

‘ब्रह्माजी के वरदान से अपने को ब्रह्मपाश से छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमानजी ने अपने को बाँधनेवाले उन राक्षसों का अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया। तत्पश्चात् मिथिलेश कुमारी सीता के स्थान के अतिरिक्त समस्त लङ्का को जलाकर वे महाकपि हनुमानजी राम को प्रिय संदेश सुनाने के लिये लंकासे लौट आये। अपरिमित बुद्धिशाली हनुमानजी ने वहाँ जाकर महात्मा राम की प्रदक्षिणा करके यों सत्य निवेदन किया- 'मैंने सीताजीका दर्शन किया है।' 

'इसके अनन्तर सुग्रीव के साथ भगवान् राम ने महासागर के तटपर जाकर सूर्य के समान तेजस्वी बाणों से समुद्र को क्षुब्ध किया। तब नदीपति समुद्र ने अपने को प्रकट कर दिया, फिर समुद्र के ही कहने से राम ने नल से सेतु निर्माण कराया। उसी सेतु से लङ्कापुरी में जाकर रावण को मारा, फिर सीता के मिलने पर रामको बड़ी लज्जा हुई। तब भरी सभा में सीताके प्रति वे मर्मभेदी वचन कहने लगे। उनकी इस बात को न सह सकने के कारण साध्वी सीता अग्नि में प्रवेश कर गयीं। इसके बाद अग्नि के कहने से उन्होंने सीता को निष्कलङ्क माना। महात्मा रामचन्द्रजी के इस महान् कर्मसे देवता और ऋषियों सहित चराचर त्रिभुवन संतुष्ट हो गया।' 

'फिर सभी देवताओंसे पूजित होकर राम बहुत ही प्रसन्न हुए और राक्षसराज विभीषणको लङ्काके राज्यपर अभिषिक्त करके कृतार्थ हो गये। उस समय निश्चिन्त होनेके कारण उनके आनन्दका ठिकाना न रहा। यह सब हो जानेपर राम देवताओं से वर पाकर और मरे हुए वानरों को जीवन दिलाकर अपने सभी साथियों के साथ पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए। भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचकर सब को आराम देनेवाले सत्यपराक्रमी राम ने भरतके पास हनुमान को भेजा। फिर सुग्रीव के साथ कथा-वार्ता करते हुए पुष्पकारूढ़ हो वे नन्दिग्रामको गये।' 

'निष्पाप रामचन्द्रजी ने नन्दिग्राम में अपनी जटा कटा कर भाइयों के साथ, सीता को पाने के अनन्तर, पुन: अपना राज्य प्राप्त किया है। अब रामके राज्य में लोग प्रसन्न, सुखी, संतुष्ट, पुष्ट, धार्मिक तथा रोग-व्याधिसे मुक्त रहेंगे, उन्हें दुर्भिक्षका भय न होगा। कोई कहीं भी अपने पुत्रकी मृत्यु नहीं देखेंगे, स्त्रियाँ विधवा न होंगी, सदा ही पतिव्रता होंगी। आग लगनेका किंचित् भी भय न होगा, कोई प्राणी जलमें नहीं डूबेंगे, वात और ज्वरका भय थोड़ा भी नहीं रहेगा।' 

'क्षुधा तथा चोरी का डर भी जाता रहेगा, सभी नगर और राष्ट्र धन-धान्य सम्पन्न होंगे। सत्ययुगकी भाँति सभी लोग सदा प्रसन्न रहेंगे। महायशस्वी राम बहुत-से सुवर्णों की दक्षिणा वाले सौ अश्वमेध यज्ञ करेंगे, उनमें विधिपूर्वक विद्वानों को द हजार करोड़ (एक खरब) गौ और ब्राह्मणों को अपरिमित धन देंगे तथा सौगुने राजवंशों की स्थापना करेंगे। संसारमें चारों वर्णों को वे अपने-अपने धर्म में नियुक्त रखेंगे। फिर ग्यारह हजार वर्षोंतक राज्य करने के अनन्तर श्रीरामचन्द्रजी अपने परमधाम को पधारेंगे।' 

‘वेदोंके समान पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय इस रामचरित को जो पढ़ेगा, वह सब पापों से मुक्त हो जायगा। आयु बढ़ाने वाली इस रामायण कथा को पढ़ने वाला मनुष्य मृत्यु के अनन्तर पुत्र, पौत्र तथा अन्य परिजन वर्ग के साथ ही स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होगा। इसे ब्राह्मण पढ़े तो विद्वान् हो, क्षत्रिय पढ़ता हो तो पृथ्वी का राज्य प्राप्त करे, वैश्य को व्यापार में लाभ हो और शूद्र भी प्रतिष्ठा प्राप्त करे।' 

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-७२(72) समाप्त!  

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