नारदजी कहते हैं - हे ब्राह्मण ! रत्नाकर की ऐसी क्रूरता देखकर मैं अत्यंत विचलित हो गया। बड़े दुखी मन से मैं परमपिता ब्रह्माजी के धाम पहुंचा। मुझे इस प्रकार विचलित देखकर ब्रह्माजी ने इसका कारण जानना चाहा। मैंने हाथ जोड़कर उनसे पुकार कि की हे विधाता! यह आपका कैसा न्याय है, एक दीन और वृद्ध दम्पति असहाय होकर भगवान से रक्षा की पुकार कर रहे थे, किन्तु फिर भी उस निर्दयी को कोई दया नहीं आई और उसने लोभवश उनकी हत्या कर दी।
मेरी यह बात सुनकर परमपिता बोले - पुत्र नारद! तुम किसके विषय में बात कर रहे हो? इससे पहले मैंने तुम्हे ऐसा विचलित कभी नहीं देखा। तब मैंने आर्तभाव से उन्हें कहा - हे पिताश्री! मैं रत्नाकर दस्यु (अर्थात डाकू) कि बात कर रहा हूँ। आज मैं अपने नेत्रों से उसका तांडव देख कर आ रहा हूँ। वन में उसका आतंक इतना बढ़ चूका है प्रभु की उसे तो भगवान का भी भय नहीं रहा। आप दीन असहाय लोगों के हितार्थ कुछ कीजिये पिताश्री।
मेरे इन करुण वचनों को सुनकर ब्रह्मदेव मुझसे कहने लगे - पुत्र नारद! रत्नाकर कोई साधारण प्राणी नहीं है। जिसे तुम दस्यु कह रहे हो वह प्रचेता का पुत्र और ब्रह्मर्षि भृगु का अनुज है। बाल्यकाल में जब वह अपने परिवार से बिछुड़ गया तब भीलों ने ही उसका पालन किया था। उसी के परिणामस्वरूप आज वह उन्ही की भांति लूट और मार-काट से अपना और परिवार का भरण-पोषण करता है। एक ब्राह्मण वंशी होने के नाते उसे सन्मार्ग पर लाने की आवश्यकता है। चूँकि किसी भी अपराधी को दंड देने से पूर्व उसे प्रायश्चित करने का अवसर प्रदान करना हमारा परम कर्त्तव्य है। इसलिए तुम स्वयं उसके पास जाकर ऐसी युक्ति लगाओ जिससे उसका हृदय परिवर्तन हो जाए। रत्नाकर के हाथों भविष्य में एक महान उद्देश्य कि पूर्ति होने वाली है। अतः तुम्हारे अतिरिक्त और कौन ऐसा होगा जो यह कार्य कर सके।
'परमपिता की बातों से एक बार मैं थोड़ा सहम गया क्योंकि वे मुझे उस लुटेरे के पास जाने को कह रहे थे जिसके मन में दया का कहीं कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता। किन्तु कुछ क्षण सोचने के बाद मैंने परमपिता से आज्ञा ली और उसी स्थान पर पहुँच गया जहाँ रत्नाकर लोगों को लूटने के लिए प्रतीक्षा करता था।'
वन में पहुंचने के बाद उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी और वह मेरे सामने इस प्रकार प्रकट हुआ जैसे एक भूखा सिंह अपने आहार को देखकर उस पर झपटता है। उसे अपने समीप देखकर मैं नारायण-नारायण का जाप करने लगा। मेरे इस जाप को सुनकर वह जोर से हंसकर मुझे कहने लगा - तो तुम भी नारायण के नाम का कवच पहनकर आये हो किन्तु इससे तुम्हारे प्राणों कि रक्षा नहीं होने वाली। यदि तुम्हे अपने जीवन से मोह है तो चुपचाप जो भी मूल्यवान वस्तु तुम्हारे पास है वह सब मुझे समर्पित कर दो।
तब मैंने उसे उत्तर देते हुए कहा कि मेरे पास तो इस वीणा और वस्त्रों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। फिर भी यदि तुम मुझसे कोई मूल्यवान वास्तु चाहते हो तो मैं तुम्हे दे सकता हूँ। प्रभु का नाम जिसे जपने से तुम्हे संसार के सभी मोह फीके लगेंगे। मेरी बाते सुनकर उसका क्रोध बढ़ गया और वह मुझसे कहने लगा - क्या तुम मुझे मूढ़ समझते हो? मैं तुम्हारी युक्ति को समझ गया हूँ कदाचित तुम जानते थे की मैं तुम्हे यहाँ मिलने वाला हूँ इसी कारण अपने हाथ में ये तमूरा लिए और शरीर पर आभूषण के स्थान पर फूल-पत्तों को लगाकर आये हो। फिर भी मैं तुम्हे यहाँ से नहीं जाने दूंगा। क्योंकि अवश्य ही तुम मेरे साथ कोई छल करना चाहते हो।
उसकी इन बातों के प्रतिउत्तर में मैंने उसे कहा - देखो भाई ! अब तो मुझे भी यह लगाने लगा है की कदाचित अब तुम मुझे नहीं छोड़ने वाले किन्तु तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर मुझे दो, तुम यह लूट-मार का कार्य किसके लिए करते हो? तुम्हे इससे क्या मिलता है? पाप करने से मनुष्य का कभी भला नहीं होता।
रत्नाकर ने कहा - तुम किस पाप की बात करते हो मैं किसी पाप-वाप को नहीं मानता। मेरे दृष्टि में तो पाप तब होगा जब मैं अपने परिवार का भरण-पोषण न कर सकूँ। तुम जिस लूट-मार को अपराध कहते हो वह मेरे जीविका का एक स्त्रोत है और यह सब मैं अपने परिवार के लिए ही करता हूँ।
मैंने उसके विचार जान लिए थे। अब मुझे लग रहा था कि यह पूर्ण रूप से निर्दयी नहीं है। इसके मन में अपने परिवार के प्रति दया और करुणा है। उसी का सहारा लेकर मैंने उससे कहा - फिर तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम अपने जिस परिवार के लिए पाप करते हो वह भी तुम्हारे इस पाप में समानता का अधिकार रखते हैं। मेरी बातों से रत्नाकर कि बुद्धि अपना कार्य करने लगी। उसने कहाँ - तुम्हारी बातें सुनने में अच्छी लग रही हैं। तुम अपनी इन टेढ़ी बातों को स्पष्ट करो जिससे मैं ठीक से समझ सकूँ।
'अब मेरा उत्साह बढ़ गया क्योंकि मुझे लगने लगा की निश्चय ही ब्रह्माजी ने मुझे जिस कार्य के लिए भेजा था उसमे सफलता मिलने वाली है। मैंने उसे कहा कि पहले अपने परिवार वालों से जाकर यह पूछो कि क्या तुम्हारे द्वारा किये गए पापों में वे समान रूप से हिस्सेदार हैं अथवा नहीं। यदि उनका उत्तर हाँ होता है तब तो तुम जो चाहो सो करो। किन्तु यदि ना करते हैं तब तुम्हे यह अवश्य सोचना चाहिए की जिस परिवार के भरण-पोषण के लिए तुमने जीवन भर ढेरों पाप किये उससे तुमने क्या प्राप्त किया।'
'मेरी बातें उसे पसंद आयी। उसे यह संदेह था की कहीं मैं उसे मुर्ख बनाकर वहां से पलायन (भाग) न कर जाऊं इसलिए वह मुझे एक वृक्ष के सहारे बांधकर चला गया। कुछ समय प्रतीक्षा करने के बाद वह लौटकर आया और मेरे चरणों में गिरकर रोने लगा। मैंने जब उससे रोने का कारण पूछा तो उसने मुझसे कहा की आप सत्य कह रहे थे मेरे परिवार का कोई भी सदस्य मेरे किसी भी पाप में मेरे साथ नहीं है। उन सभी का यह मानना है की अपने परिवार का भरण-पोषण प्रत्येक प्राणी का परम-कर्तव्य है। भले ही इसके लिए वह पाप करे या पुण्य। किन्तु यदि वह पाप करे तो उन सम्पूर्ण पापों का उत्तरदायी वह स्वयं होता है। अब मुझे समझ आ गया है यह पापकर्म मनुष्य जिनके लिए करता है वास्तव में उसका कोई मूल्य नहीं। आपने मेरे नेत्र खोल दिए हैं। मुझे आप महात्मा जान पड़ते हैं जो मेरा कल्याण करने के उद्देश्य से यहाँ पधारे हैं। मैं आपकी शरण में हूँ मेरा उद्धार करें।'
'उसमे आये हृदय परिवर्तन से मैं बहुत प्रसन्न था। मैंने कहा पहले तुम मुझे मुक्त करो फिर मैं तुम्हे वह महा-मंत्र देता हूँ जिसके जाप से तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो जाएंगे। उसने तुरंत मुझे मुक्त किया और मुझसे महा-मंत्र की दीक्षा मांगने लगा। तब मैंने कहा - पहले हम आपस में अपना परिचय जान लेते हैं मेरा नाम नारद है मैं ब्रह्माजी का मानस पुत्र हूँ। उन्ही कि आज्ञा से मैं यहाँ आया हूँ। अब तुम अपना परिचय मुझे दो। तब उसने बड़े ही कोमल भाव से अपना नाम मुझे बतलाया।'
'मैंने उसे भगवान के अनेक नाम सुझाये किन्तु शब्द त्रुटि के कारण और पापकर्मों से वह उन नामों का उच्चारण नहीं कर पा रहा था। फिर मैंने उसे 'राम' नाम का उच्चारण करने को कहा जो बोलने में बेहद सरल था। किन्तु राम नाम के बजाय बहुत प्रयत्न करने पर भी उसके मुख से मरा-मरा ही निकल रहा था। तब मैंने उसे उल्टा नाम जपने को कहा अब वह 'मरा-मरा' जपता तो यो लगता जैसे 'राम-राम' का ही जाप कर रहा हो। मैंने अपना कार्य कर दिया था। अतः अब मैं वहां से लौट गया।'
'रत्नाकर पर इसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसकी यह साधना एक कठिन तपस्या में परिवर्तित हो गयी। अपने जीवन में किये घोर पापों के कारण उसकी तपस्या बहुत दीर्घकाल तक चलती रही। तपस्या के दौरान उसके चारों और दीमकों और चीटियों ने मिटटी का ढेर बना लिया। जिसे वाल्मीक (बाम्बी) कहते हैं। उसका पूरा शरीर मिटटी से ढक चूका था। चीटियों ने शरीर को नोच डाला किन्तु तपस्यारत रत्नाकर को इस सब का कोई एहसास नहीं था। अंततः उसके द्वारा किये गए पापों का प्रायश्चित पूर्ण हुआ और परमपिता ने उसे दर्शन दिये।
परमपिता बोले - उठो वत्स! तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई। ब्रह्माजी को अपने सामने देखकर रत्नाकर ने अपना शीश झुकाया। परमपिता बोले - आज से तुम अपनी तपस्या के प्रभाव से 'वाल्मीकि' के नाम से विख्यात होगे। भविष्य में तुम्हारे हाथों एक महान कार्य होगा। तब तक भगवान कि साधना करते रहो और एक आश्रम बनाकर वहां निवास करो।
'इस प्रकार रत्नाकर जो एक भयानक लुटेरा था, वह श्रीराम नाम के प्रभाव से महर्षि वाल्मीकि के नाम से जगत में प्रसिद्ध हुआ। आज हम सभी उन्हें भगवान वाल्मीकि कहते हैं। इन्ही वाल्मीकि ने रामायण को काव्य रूप में रचा और विश्व के प्रथम कवि कहलाये जिन्हे 'आदिकवि' भी कहा जाता है।'
इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-७१(71) समाप्त !
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