ऋषियों ने पूछा - महामुने! देवर्षि नारदमुनि ने सनत्कुमारजी से रामायण सम्बन्धी सम्पूर्ण धर्मों का किस प्रकार वर्णन किया था? उन दोनों ब्रह्मवादी महात्माओं का किस क्षेत्र में मिलन हुआ था? तात! वे दोनों कहाँ ठहरे थे? नारदजी ने उनसे जो कुछ कहा था, वह सब आप हम लोगों को बताइये।
सूतजी ने कहा - मनिवरों! सनकादि महात्मा भगवान ब्रह्माजी के पुत्र माने गये हैं। उनमे ममता और अहंकार का तो नाम भी नहीं है। वे सब-के-सब नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। मैं आप लोगों से उनके नाम बताता हूँ, सुनिये। सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार - ये चारों सनकादि माने गये हैं। वे भगवान विष्णु के भक्त और महात्मा हैं। सदा ब्रह्म के चिंतन में लगे रहते हैं। बड़े सत्यवादी हैं। सहस्त्रों सूर्य के सामान तेजस्वी एवं मोक्ष के अभिलाषी हैं।'
'एक दिन वे महातेजस्वी ब्रह्मपुत्र सनकादि ब्रह्माजी की सभा देखने के लिए मेरु पर्वत के शिखर पर गये। वहां भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई परम पुण्यमयी गंगानदी, जिन्हे सीता भी कहते हैं, बह रही थी। उनके दर्शन करके वे तेजस्वी महात्मा उनके जल में स्नान करने को तत्पर हुए। ब्राह्मणों! इतने में ही देवर्षि नारद भगवान के नारायण आदि नामों का उच्चारण करते हुए वहां पहुंचे। वे 'नारायण! अच्युत! अनंत! वासुदेव! जनार्दन! यज्ञपुरुष! राम! विष्णो! आपको नमस्कार है।' इस प्रकार भगवान का उच्चारण करके सम्पूर्ण जगत को पवित्र बनाते हैं और एकमात्र लोकपावनी गंगा की स्तुति करते वहां आये।'
'उन्हें वहां आते देख महातेजस्वी सनकादि मुनियों ने उनकी यथोचित पूजा की तथा नारदजी ने भी उन मुनियों को मस्तक झुकाया। तदनन्तर वहां मुनियों की सभा में भगवान नारायण के परम भक्त मुनिवर नारद से इस प्रकार कहा।'
सनत्कुमार बोले - हे महाप्रज्ञ नारदजी! आप समस्त मुनिश्वरों में सर्वज्ञ हैं। सदा श्रीहरि की भक्ति में तत्पर रहते हैं, अतः आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। इसलिए मैं पूछता हूँ, जिनसे चराचर जगत की उत्पत्ति हुई है तथा ये गंगाजी जिनके चरणों से प्रकट हुई हैं, उन श्री हरी के स्वरुप का ज्ञान कैसे होता है? यदि आपकी हम लोगों पर कृपा हो तो हमारे इस प्रश्न का यथार्थ रूप से विवेचन कीजिये।
नारदजी ने कहा - जो पर से भी परतर है, उन परम देव श्रीराम को नमस्कार है। जिनका निवास स्थान (परमधाम) उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट है तथा जो सगुण और निर्गुण रूप है, उन श्रीराम को मेरा नमस्कार है। जो दैत्यों का विनाश और नरक का अंत करने वाले हैं, जो अपने हाथ के संकेत मात्र से अथवा अपनी भुजाओं के बल से धर्म की रक्षा करते हैं, पृथ्वी के भार का विनाश जिनका मनोरंजन मात्र है और जो उस मनोरंजन की सदा अभिलाषा रखते हैं, उन रघुकुल दीपक श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ। जो एक होकर भी चार स्वरूपों में अवतीर्ण होते हैं, जिन्होंने वानरों को साथ लेकर राक्षस सेना का संहार किया है, उन दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी का मैं भजन करता हूँ।'
'भगवन श्रीराम के ऐसे-ऐसे अनेक चरित्र हैं, जिनके नाम करोड़ों वर्षों में भी नहीं गिनाये जा सकते हैं। जिनके नाम की महिमा का मनु और मुनीश्वर भी पार नहीं पा सकते, वहां मेरे जैसे क्षुद्र जीव की पहुँच कैसे हो सकती है। जिनके नाम के स्मरण मात्र से बड़े से बड़े पातकी भी पावन बन जाते हैं, उन परमात्मा का स्तवन मेरे जैसा तुच्छ बुद्धिवाला प्राणी कैसे कर सकता है। जो द्विज घोर कलियुग में रामायण कथा का आश्रय लेते हैं, वे ही धन्य हैं। उनके लिए आपको सदा नमस्कार करना चाहिए।'
'सनत्कुमारजी भगवन की महिमा को जानने के लिए कार्तिक, माघ, और चैत्र के शुक्ल पक्ष में रामायण की अमृतमयी कथा का नवाह श्रवण करना चाहिए। ब्राह्मण सौदास गौतम ऋषि के शाप से राक्षस शरीर को प्राप्त हो गये थे, परन्तु रामायण के प्रभाव से ही उन्हें शाप से छुटकारा मिला था।'
सनत्कुमार ने पूछा - मुनिश्रेष्ठ! सम्पूर्ण धर्मों का फल देने वाली रामायण कथा का किसने वर्णन किया है? इसका क्या इतिहास है वह सब आप हमे बताने की कृपा करें।
नारदजी ने कहा - ब्राह्मण! रामायण का प्रादुर्भाव महर्षि वाल्मीकि के मुख से हुआ है, आप उसीका श्रवण करें। रामायण की अमृतमयी कथा का श्रवण नौ दिनों में करना चाहिए। महर्षि वाल्मीकि के जीवन की कथा बड़ी ही अनोखी है। रामायण लिखने से पूर्व वे ऐसे नहीं थे जैसा उन्हें हम आज जानते हैं। मैं आपको उनके जीवन के इस अनोखे इतिहास को सुनाता हूँ। आप मन लगाकर सुनिये।
'वाल्मीकिजी का जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवें पुत्र वरुण से हुआ था। वरुण देव को प्रचेता भी कहा जाता है अतः इन्हे प्राचेतस अर्थात प्रचेता का पुत्र भी पुकारा जाता है। इनकी माता का नाम चर्षणी और भाई ब्रह्मर्षि भृगु हैं। जन्म के समय इनका नाम रत्नाकर रखा गया था। एक बार बाल्यावस्था में रत्नाकर वन में भटक गए। उस समय उनकी आयु बहुत कम थी। जिस कारण वे अपने मूल परिवार से बिछुड़ जाते हैं।'
'कदाचित यह भगवान की ही लीला थी जिस कारण ऐसा हुआ। एक छोटे से बालक को वन में अकेला और असहाय देखकर भील समुदाय (वन में रहने वाले) के लोगों ने उनका पालन-पोषण करना प्रारम्भ किया। भील समुदाय का जीवन चूँकि वन में ही बीतता था इसलिए वे वन में रहने वाले पशु-पक्षियों को अपना शिकार बनाते थे। जब समय के साथ रत्नाकर बड़ा हुआ तो उसके परिवार की हालत अत्यंत दयनीय हो गयी। उनके परिवार में रत्नाकर के अतिरिक्त भरण-पोषण करने वाला कोई न था।'
'अपने परिवार की ऐसी दुर्दशा देखकर रत्नाकर ने वन से जाने वाले लोगों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। जब कोई पथिक रत्नाकर का विरोध करता तो वह उसे मार डालता। धीरे-धीरे रत्नाकर का भय इतना अधिक बढ़ गया कि उस वन से जाने वाले लोग बेहद कम हो गए। एक बार मैं भगवान नारायण का जाप करता हुआ आकाश मार्ग से उसी वन की और जा रहा था। उसी समय एक वृद्ध दम्पति (पति-पत्नी) वहां से जा रहे थे। उनके मन में रत्नाकर का भय था। अपने भय को दूर करने हेतु वे श्रीहरि के नाम का जाप कर रहे थे।'
रत्नाकर कि दृष्टि उन दोनों पर पड़ती है तथा वह पलभर में उनके समीप पहुँच जाता है। उन दोनों को अपने समीप देखकर रत्नाकर उन्हें मृत्यु का भय दिखाकर कहता है - यदि तुम दोनों को अपने प्राण प्यारे हैं तो जो कुछ भी तुम्हारे पास है वह भलीभांति मुझे सौंप दो। रत्नाकर की बातें सुनकर वृद्ध व्यक्ति ने साहस दिखाया और उसे इस प्रकार बोला - हमारे साथ भगवान नारायण हैं हम उन्ही का निरंतर जाप करते आ रहे हैं अतः वे स्वयं हमारी रक्षा करेंगे।
यह सुनकर रत्नाकर उनका उपहास उडाता है - अरे मुर्ख ! तू वैसे ही अपने जीवन के अंतिम वर्ष जी रहा है क्यों समय से पहले मेरे हाथों अपना और अपनी पत्नी का मरण चाहता है। इस आयु में इतने आभूषण और मूल्यवान वस्तुओं को रखकर तुम क्या करोगे। वैसे भी तुम जिसके नाम का भय दिखाकर मुझे चुनौती दे रहे हो, मैं तुम्हारे उसी रक्षक को चुनौती देता हूँ की यदि वह मुझे तुम्हे लूटने अथवा मरने से बचा सके तो बचाकर दिखाये।
'उन वृद्ध दम्पति के बार-बार विनती करने पर भी रत्नाकर को कोई दया नहीं आयी और अंततः उसने दोनों की निर्मम हत्या कर डाली तथा उस वृद्धा स्त्री ने जितने भी आभूषण पहन रखे थे उन सभी को लूटकर वह जोर-जोर से ठहाके मारता हुआ इस प्रकार चला जा रहा था मानो वह स्वयं भगवान को चुनौती दे रहा हो।'
इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग - ७०(70) समाप्त !
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