शौनकजी बोले - हे सूतजी ! जब देवर्षि नारद इस प्रकार दैत्यराज जलंधर को देवी पार्वती की सुंदरता और भगवान शिव के परम ऐश्वर्य और समृद्धि के बारे में बता आए तब वहां क्या हुआ? दैत्यराज ने क्या किया?
शौनकजी के ऐसे प्रश्न सुनकर सूतजी बोले - हे महामुनि! नारद जी के वहां से चले जाने पर असुरराज जलंधर ने अपने राहू नामक दूत को बुलाया और उसे भगवान शिव के निवास स्थान कैलाश पर्वत पर जाने की आज्ञा दी।
जलंधर ने कहा - राहू, उस पर्वत पर एक योगी रहता है। उस जटाधारी योगी की पत्नी सर्वांग सुंदरी है। तुम्हें मेरे लिए उसकी पत्नी को लाना होगा। अपने स्वामी जलंधर की आज्ञा पाकर वह दूत भगवान शिव के स्थान कैलाश पर्वत पर गया। वहां नंदी ने उस राहू नामक दूत को अंदर जाने से रोका परंतु वह सीधा अंदर चला गया। वहां कैलाशपति भगवान शिव के सामने उसने अपने स्वामी दैत्यराज जलंधर का संदेश शिवजी को सुना दिया।
जैसे ही असुरराज जलंधर के दूत राहू ने यह संदेश त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को सुनाया, उसी समय शिवजी के सामने की धरती फट गई और उसमें से एक बड़ा भयानक गर्जना करता हुआ पुरुष प्रकट हुआ। वह पुरुष अत्यंत बलशाली और वीर जान पड़ता था। उसका मुख सिंह के समान था और ऐसा लगता था कि सिंह मानव का रूप लेकर साक्षात सामने आकर खड़ा हो गया है। वह नृसिंह रूपी पुरुष तुरंत राहू को खाने के लिए झपटा। यह देखकर राहू अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए दौड़ा परंतु असफल रहा। उसने राहू को कस कर पकड़ लिया।
जब राहू ने देखा कि अब बचने का कोई रास्ता नहीं बचा है, तब राहू भगवान शिव से यह प्रार्थना करने लगा कि वे उसके प्राणों की रक्षा करें। वह बोला - भगवन्! मैं तो असुरराज जलंधर का दूत हूं। मैंने तो सिर्फ वही कहा है, जो मेरे स्वामी की आज्ञा थी। हे कृपानिधान! मेरी भूल के लिए मुझे क्षमा करें। राहू के वचन सुनकर करुणानिधान भगवान शिव ने नृसिंह रूपी पुरुष को आज्ञा दी कि वह राहू को छोड़ दे। अपने प्रभु की आज्ञा पाकर उसने राहू को छोड़ दिया।
जब उसने राहू को छोड़ दिया तब वह शिवजी से बोला - भगवन्! आपकी आज्ञा मानकर मैंने इस दुष्ट को छोड़ दिया है परंतु हे प्रभु! मैं बहुत भूखा हूं। अब मैं क्या करूं? क्या खाकर अपनी भूख शांत करूं? तब भगवान शिव ने उससे कहा कि अपने हाथ-पैरों के मांस को खाकर अपनी भूख शांत करो। शिवजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर उसने अपने हाथों और पैरों का मांस खा लिया। अब सिर्फ उसका सिर ही बचा था।
यह देखकर भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो गए और बोले - तुमने मेरी आज्ञा का पालन करके मुझे प्रसन्न किया है । तुम वाकई मेरे प्रिय हो। आज से तुम मेरे भक्तों द्वारा भी पूज्य होगे। जो भी मनुष्य मेरी पूजा करेगा वह तुम्हारी भी आराधना अवश्य करेगा। जो तुम्हारी पूजा नहीं करेगा उस भक्त पर मेरी कृपादृष्टि नहीं होगी। उस दिन से वह कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का प्रिय गण बनकर रहने लगा और संसार में 'स्वकीर्तिमुख' के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
शौनकजी बोले - हे सूतजी! असुरराज जलंधर के राहू नामक दूत का क्या हुआ? जब भगवान शिव ने राहू को अभयदान दे दिया, फिर राहू कैलाश पर्वत से कहां गया और उसने क्या किया? इस विषय में हमें बताइए ।
शौनकजी के इन वचनों को सुनकर सूतजी बोले - हे महर्षि ! जब राहू नामक दूत को शिवजी ने उस पुरुष के हाथों से मुक्त करा दिया, तब राहू वहां से तुरंत भागकर अपने स्वामी दैत्यराज जलंधर के पास गया और वहां उसने अपने स्वामी को सभी बातें बता दीं, जो वहां हुई थीं। उन सारी बातों को जानकर असुरराज जलंधर का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया।
'जलंधर ने अपने सेनापति और अन्य अधिकारियों को बुलाकर अपनी दैत्य सेना को युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा प्रदान की। अपने स्वामी की आज्ञा पाकर कालनेमि, शुंभ निशुंभ आदि महावीर पराक्रमी दैत्य युद्ध के लिए तैयारी करने लगे। जलंधर की विशाल चतुरंगिणी दैत्य सेना भगवान शिव से युद्ध करने के लिए निकल पड़ी। उस सेना के साथ ही दैत्यगुरु शुक्राचार्य और राहू भी थे।'
'इधर, जब देवताओं को ज्ञात हुआ कि जलंधर अपनी सेना को साथ लेकर भगवान शिव से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा है तो देवराज इंद्र शिवजी को अवगत कराने के लिए कैलाश पर्वत पर गए और वहां उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को सारी बातें बता दीं।'
इंद्र ने भगवान विष्णु के विषय में भी उन्हें बताया - हे शम्भो! भगवान विष्णु भी अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी के साथ असुरराज जलंधर के वश में हैं और उसके घर में निवास करते हैं। इसी कारण हम सब देवता विवश हैं। हमें न चाहते हुए भी जलंधर के अधीन होना पड़ा है। भगवन्! आप भक्तवत्सल हैं। आप अपने भक्तों की रक्षा कर हमें जलंधर से मुक्ति दिलाएं। उसे मारकर हमारे प्राणों की रक्षा करें।
सारी बातें ज्ञात हो जाने पर भगवान शिव ने सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया। प्रभु के स्मरण करते ही विष्णुजी वहां तुरंत प्रकट हो गए। उन्हें देखकर शिवजी ने उनसे पूछा - हे विष्णो! आपको मैंने दैत्येंद्र जलंधर का वध करने के लिए भेजा था, फिर आपने उसका वध क्यों नहीं किया? आप उसके घर में क्यों निवास कर रहे हैं ?
अपने आराध्य भगवान शिव के ये वचन सुनकर भगवान श्रीहरि विष्णु ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए और विनम्रतापूर्वक बोले - हे करुणानिधान भगवान शिव! मैं जानता हूं कि आपने मुझे दैत्यराज जलंधर का संहार करने की आज्ञा दी थी, परंतु मैं उसे नहीं मार सका। इसलिए आपसे क्षमा याचना करता हूं। मेरी भूल क्षमा करें। प्रभु! मैंने जलंधर का वध इसलिए नहीं किया, क्योंकि जलंधर मेरी प्राणवल्लभा देवी लक्ष्मी का भ्राता है और उसमें आपका अंश भी विद्यमान है। इसलिए उस दैत्य की वीरता से प्रसन्न होकर मैं उसके घर में निवास करता हूं।
भगवान विष्णु के वचनों को सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव हंसने लगे। फिर बोले - देवताओ! तुम सभी सोच और चिंताओं को त्याग दो। तुम्हारी रक्षा के लिए मैं अवश्य ही जलंधर का संहार करूंगा। यह सुनकर सभी देवता निश्चिंत हो गए।
'इसी समय जलंधर अपनी विशाल सेना साथ लेकर कैलाश पर्वत के निकट पहुंच गया। उसने कैलाश पर्वत को चारों ओर से घेर लिया। उस समय बड़ा कोलाहल होने लगा। यह शोर सुनकर भगवान शिव को क्रोध आ गया। तब उन्होंने अपने गणों को आज्ञा दी कि वे जाकर राक्षसों से युद्ध करें। अपने आराध्य भगवान शिव की आज्ञा पाकर उनके गण युद्ध करने चले गए। शिवगणों और जलंधर की दैत्यसेना में बड़ा भीषण युद्ध होने लगा। शिवगण बड़ी वीरता से दैत्यों से भिड़ गए। उन्होंने कई दैत्यों को पल भर में ही मौत के घाट उतार दिया और सैकड़ों को घायल कर दिया। परंतु दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से सभी मृत दानवों को पुनः जीवन दान दे रहे थे और वे उठकर पुनः युद्ध करने लगते थे।
'जब दैत्यसेना किसी भी प्रकार कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी, तब शिवगण व्याकुल होने लगे। तब शिवगणों ने भगवान शिव के पास जाकर उन्हें इसकी सूचना दी। जब शिवजी को यह बात ज्ञात हुई कि यह सब शुक्राचार्य कर रहे हैं तो वे क्रोधित हो उठे। उस समय भगवान शिव के मुख से एक भयंकर ज्वाला कृत्या के रूप में प्रकट हुई। उसका रूप अत्यंत रौद्र और भयानक था। वह वहां से सीधे युद्ध भूमि में गई और दैत्यों को पकड़ पकड़कर खाने लगी।'
'इसी प्रकार भ्रमण करते हुए कृत्या शुक्राचार्य के निकट पहुंची और उन्हें वहां से गायब कर दिया। जब अपने परम सहायक गुरु शुक्राचार्य उन्हें वहां न दिखाई दिए तथा हजारों वीर मारे गए या घायल हो गए, तब दैत्य सेना का मनोबल टूटने लगा। दैत्य सेना युद्धभूमि छोड़कर भागने लगी। जलंधर के कालनेमी, शुंभ, निशुंभ आदि वीर दैत्य फिर भी पूरी ताकत से युद्ध करते रहे। इधर, भगवान शिव की सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले स्वामी कार्तिकेय और गणेश जी भी पूरे मनोयोग से दैत्य सेना को पछाड़ने के लिए युद्ध कर रहे थे।'
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-६(6) समाप्त !
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