भाग-६(6) ब्रह्मादि देवताओं का मारुति को वरदान देना तथा ऋषियों के शाप से हनुमानजी को अपने बल कि विस्मृति होना

 


अगस्त्यजी कहते हैं - श्रीराम ! पुत्र के मारे जाने से वायुदेवता बहुत दुःखी थे । ब्रह्माजी को देखकर वे उस शिशु को लिये हुए ही उनके आगे खड़े हो गये। उनके कानों में कुण्डल हिल रहे थे, माथे पर मुकुट और कण्ठ में हार शोभा दे रहे थे और वे सोने के आभूषणों से विभूषित थे। वायुदेवता तीन बार उपस्थान करके ब्रह्माजी के चरणों में गिर पड़े। वेदवेत्ता ब्रह्माजी ने अपने लम्बे, फैले हुए और आभरणभूषित हाथ से वायुदेवता को उठाकर खड़ा किया तथा उनके उस शिशु पर भी हाथ फेरा। 

‘जैसे पानी से सींच देने पर सूखती हुई खेती हरी हो जाती है, उसी प्रकार कमलयोनि ब्रह्माजी के हाथ का लीलापूर्वक स्पर्श पाते ही शिशु हनुमान् पुन: जीवित हो गये। हनुमान को जीवित हुआ देख जगत् प्राण-स्वरूप गन्धवाहन वायुदेव समस्त प्राणियों के भीतर अवरुद्ध हुए प्राण आदि का पूर्ववत् प्रसन्नतापूर्वक संचार करने लगे। वायु के अवरोध से छूटकर सारी प्रजा प्रसन्न हो गयी। ठीक उसी तरह, जैसे हिमयुक्त वायु के आघात से मुक्त होकर खिले हुए कमलों से युक्त पुष्करिणियाँ सुशोभित होने लगती हैं।' 

तदनन्तर तीन युग्मों से सम्पन्न, प्रधानत: तीन मूर्ति धारण करनेवाले, त्रिलोकरूपी गृह में रहनेवाले तथा तीन दशाओं से युक्त देवताओं द्वारा पूजित ब्रह्माजी वायुदेवता का प्रिय करने की इच्छा से देवगणों से बोले - इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम और कुबेर आदि देवताओ! यद्यपि आप सब लोग जानते हैं तथापि मैं आप लोगों के हित की सारी बातें बताऊँगा, सुनिये इस बालक के द्वारा भविष्य में आप लोगों के बहुत से कार्य सिद्ध होंगे, यह रुद्रावतार है। अत: वायुदेवता की प्रसन्नता के लिये आप सब लोग इसे वर दें। 

तब सुन्दर मुख वाले सहस्र नेत्रधारी इन्द्र ने शिशु हनुमान के गले में बड़ी प्रसन्नता के साथ कमलों की माला पहना दी और यह बात कही - मेरे हाथ से छूटे हुए वज्र के द्वारा इस बालक की हनु (ठुड्डी) टूट गयी थी; इसलिये इस कपिश्रेष्ठ का नाम 'हनुमान्' होगा। इसके सिवा मैं इसे दूसरा अद्भुत वर यह देता हूँ कि आज से यह मेरे वज्र के द्वारा भी नहीं मारा जा सकेगा। इसके बाद वहाँ अन्धकार नाशक भगवान् सूर्य ने कहा - मैं इसे अपने तेज का सौवाँ भाग देता हूँ। तीन युग्मों का तात्पर्य यहाँ छः प्रकार के ऐश्वर्य से है। ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य - ये ही छः प्रकार के ऐश्वर्य हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव – ये ही तीन मूर्तियाँ हैं । बाल्य, पौगण्ड तथा कैशोर - ये ही देवताओं की तीन अवस्थाएँ हैं। इसके सिवा जब इसमें शास्त्राध्ययन करने की शक्ति आ जायेगी, तब मैं ही इसे शास्त्रों का ज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह अच्छा वक्ता होगा। शास्त्रज्ञान में कोई भी इसकी समानता करनेवाला न होगा। 

तत्पश्चात वरुण ने वर देते हुए कहा - दस लाख वर्षों की आयु हो जाने पर भी मेरे पाश और जल से इस बालक की मृत्यु नहीं होगी। 

फिर यम ने वर दिया - यह मेरे दण्ड से अवध्य और नीरोग होगा। 

तदनन्तर पिंगलवर्ण की एक आँखवाले कुबेर ने कहा - मैं संतुष्ट होकर यह वर देता हूँ कि युद्ध में कभी इसे विषाद न होगा तथा मेरी यह गदा संग्राम में इसका वध न कर सकेगी। 

इसके बाद भगवान् शङ्कर ने वहां प्रकट होकर यह उत्तम वर दिया कि - यह मेरे और मेरे आयुधों (अस्त्र-शस्त्रों) के द्वारा भी अवध्य होगा। शिल्पियों में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान् विश्वकर्मा ने बालसूर्य के समान अरुण कान्तिवाले उस शिशु को देखकर उसे इस प्रकार वर दिया - मेरे बनाये हुए जितने दिव्य अस्त्र-शस्त्र हैं, उनसे अवध्य होकर यह बालक चिरञ्जीवी होगा। 

अन्त में ब्रह्माजी ने उस बालक को लक्ष्य करके कहा - यह दीर्घायु, महात्मा तथा सब प्रकार के ब्रह्मदण्डों से अवध्य होगा। संसार का सर्वोत्तम अमोघ ब्रह्मास्त्र तथा नागपाश आदि से भी यह बालक सदैव अवध्य रहेगा। 

तत्पश्चात् हनुमानजी को इस प्रकार देवताओं के वरों से अलंकृत देख चार मुखों वाले जगद्गुरु ब्रह्माजी का मन प्रसन्न हो गया और वे वायुदेव से बोले - मारुत! तुम्हारा यह पुत्र मारुति शत्रुओं के लिये भयंकर और मित्रों के लिये अभयदाता होगा। युद्ध में कोई भी इसे जीत न सकेगा। यह इच्छानुसार रूप धारण कर सकेगा, जहाँ चाहेगा जा सकेगा। इसकी गति इसकी इच्छा अनुसार तीव्र या मन्द होगी तथा वह कहीं भी रुक नहीं सकेगी। यह कपिश्रेष्ठ बड़ा यशस्वी होगा। यह अष्ट सिद्धियों और नवों निधियों का दाता होगा। यह युद्धस्थल में रावण का संहार और भगवान् श्रीरामचन्द्रजी की प्रसन्नता का सम्पादन करनेवाले अनेक अद्भुत एवं रोमाञ्चकारी कर्म करेगा। 

'इस प्रकार हनुमानजी को वर देकर वायुदेवता की अनुमति ले ब्रह्मा आदि सब देवता जैसे आये थे, उसी तरह अपने-अपने स्थान को चले गये। 

गन्धवाहन वायु भी पुत्र को लेकर अञ्जना के घर आये और उसे देवताओं के दिये हुए वरदान की बात बताकर चले गये। वायुदेव के मुख से रुद्रांश शिशु हनुमान की लीला सुनकर देवी अंजना एवं केसरी को अति प्रसन्नता हुई।' 

'श्रीराम! इस प्रकार ये हनुमानजी बहुत से वर पाकर वरदान जनित शक्ति से सम्पन्न हो गये और अपने भीतर विद्यमान अनुपम वेग से पूर्ण हो भरे हुए महासागर के समान शोभा पाने लगे। एक बार ऋषियों का समूह वानर राज केसरी के पास रक्षा की याचना लेकर पहुंचा।'

ऋषियों ने कहा - हे वानरश्रेष्ठ ! आपके ही साम्राज्य की सीमा में एक भयंकर उत्पाती असुर रहता है। वह देखने में बड़ा ही भयानक है। उसके बड़े-बड़े दांत हैं, उसका शरीर अत्यंत विशाल है, जिसे देखते ही सज्जन पुरुष भय के मारे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। वह अपने विशाल मुख को जब खोलता है तो एक बार में ही हजारों पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों आदि को अपना आहार बना लेता है। वानर राज अभी तक वह असंख्य ऋषियों का भक्षण कर चूका है। यदि उसे रोका नहीं गया तो धीरे-धीरे वह आपके राज्य को प्राणियों से विहीन कर देगा। हे महाबली ! उस राक्षस को सभी जन गुहासुर कहते हैं। वह वन में स्थित पहाड़ी की गुफा में निवास करता है। 

'रघुनन्दन ! वानर राज केसरी ने सभी ऋषियों को आश्वासन दिया कि वे अपनी पूरी शक्ति लगाकर उस राक्षस का अंत करेंगे। ऋषियों और राजा केसरी के मध्य चल रहे इस वार्तालाप को बालक हनुमान ने छिपकर सुन लिया। इससे पहले कि केसरी कुछ करते बालक हनुमान बिना किसी को बताये तीव्र वेग से उस गुफा में जा पहुंचे। वहां पहुंचकर इन्होने उस असुर को ललकारा। ललकार सुनकर राक्षस को क्रोध आ गया और उसने हनुमानजी को अपना मुख खोलकर अंदर डाल लिया।'

'तदनन्तर वीर शिरोमणि बालक हनुमान ने उसके उदर को अपनी दिव्य गदा के प्रहार से इस प्रकार छिनभिन्न कर डाला जैसे कोई भूखा तरबूज को करता है। तब तो पुरे राज्य में बालक हनुमान कि वीरता का गुणगान होने लगा। अपने पुत्र के साहसिक कार्यों से देवी अंजना और केसरी स्वयं को भाग्यवान समझते। जब कभी राक्षसों का समूह ऋषियों या अन्य प्राणियों को सताने आता बालक हनुमान विद्युत कि गति से वहां पहुँच जाते और दुष्टों का संहार करते।'        

'उन दिनों वेग से भरे हुए ये वानर शिरोमणि हनुमान निर्भय हो महर्षियों के आश्रमों में जा-जाकर उपद्रव किया करते थे। ये शान्तचित्त महात्माओं के यज्ञोपयोगी पात्र फोड़ डालते, अग्निहोत्र के साधनभूत स्रुक्, स्रुवा आदि को तोड़ डालते और ढेर के ढेर रखे गये वल्कलों को चीर-फाड़ देते थे। महाबली पवनकुमार इस तरह के उपद्रवपूर्ण कार्य करने लगे। कल्याणकारी भगवान् ब्रह्मा ने इन्हें सब प्रकार के ब्रह्मदण्डों से अवध्य कर दिया है - यह बात सभी ऋषि जानते थे; अत: इनकी शक्ति से विवश हो वे इनके सारे अपराध चुपचाप सह लेते थे।' 

यद्यपि केसरी तथा वायुदेवता ने भी इन अञ्जनी कुमार को बारम्बार मना किया तो भी ये वानरवीर मर्यादा का उल्लङ्घन कर ही देते थे। इससे भृगु और अङ्गिरा के वंश में उत्पन्न हुए महर्षि कुपित हो उठे। रघुश्रेष्ठ! उन्होंने अपने हृदय में अधिक खेद पाकर दु:ख को स्थान न देकर इन्हें शाप देते हुए कहा - वानरवीर! तुम जिस बल का आश्रय लेकर हमें सता रहे हो, उसे हमारे शाप से मोहित होकर तुम दीर्घकाल तक भूले रहोगे - तुम्हें अपने बल का पता ही नहीं चलेगा। जब कोई तुम्हें तुम्हारी कीर्ति का स्मरण दिला देगा, तभी तुम्हारा बल बढ़ेगा। 

'इस प्रकार महर्षियों के इस वचन के प्रभाव से इनका तेज और ओज घट गया। फिर ये उन्हीं आश्रमों में मृदुल प्रकृति के होकर विचरने लगे।' 

इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-६(6) समाप्त ! 


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