इधर वर्ष पूरा होने पर यज्ञसम्बन्धी अश्व भूमण्डल में भ्रमण करके लौट आया। फिर सरयू नदी के उत्तर तट पर राजा का यज्ञ आरम्भ हुआ। महामनस्वी राजा दशरथ के उस अश्वमेध नामक महायज्ञ में ऋष्यश्रृंग को आगे करके श्रेष्ठ ब्राह्मण यज्ञसम्बन्धी कर्म करने लगे। यज्ञ कराने वाले सभी ब्राह्मण वेदों के पारंगत विद्वान् थे; अतः वे न्याय तथा विधि के अनुसार सब कर्मों का उचित रीति से सम्पादन करते थे और शास्त्र के अनुसार किस क्रम से किस समय कौन-सी क्रिया करनी चाहिये, इसको स्मरण रखते हुए प्रत्येक कर्म में प्रवृत्त होते थे।
ब्राह्मणों ने प्रवर्ग्य (अश्वमेध के अंगभूत कर्म विशेष) का शास्त्र (विधि, मीमांसा और कल्पसूत्र) के अनुसार सम्पादन करके उपसद नामक इष्टि विशेष का भी शास्त्र के अनुसार ही अनुष्ठान किया। तत्पश्चात् शास्त्रीय उपदेश से अधिक जो अतिदेशत: प्राप्त कर्म है, उस सबका भी विधिवत् सम्पादन किया। तदनन्तर तत्तत् कर्मों के अंगभूत देवताओं का पूजन करके हर्ष में भरे हुए उन सभी मुनिवरों ने विधिपूर्वक प्रात:सवन आदि (अर्थात् प्रातः सवन, माध्यन्दिनसवन तथा तृतीय सवन) कर्म किये।
इन्द्रदेवता को विधिपूर्वक हविष्य का भाग अर्पित किया गया। पापनिवर्तक राजा सोम (सोमलता) का रस निकाला गया। फिर क्रमश: माध्यन्दिनसवन का कार्य प्रारम्भ हुआ। तत्पश्चात् उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने शास्त्र से देख-भाल कर मनस्वी राजा दशरथ के तृतीय सवनकर्म का भी विधिवत् सम्पादन किया। ऋष्यश्रृंग आदि महर्षियों ने वहाँ अभ्यासकाल में सीखे गये अक्षरों से युक्त – स्वर और वर्ण से सम्पन्न मन्त्रद्वारा इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवताओं का आवाहन किया।
मधुर एवं मनोरम सामगान के लय में गाये हुए आह्वान - मन्त्रों द्वारा देवताओं का आवाहन करके होताओं ने उन्हें उनके योग्य हविष्य के भाग समर्पित किये। उस यज्ञ में कोई अयोग्य अथवा विपरीत आहुति नहीं पड़ी। कहीं कोई भूल नहीं हुई – अनजान में भी कोई कर्म छूटने नहीं पाया; क्योंकि वहाँ सारा कर्म मन्त्रोच्चारण- पूर्वक सम्पन्न होता दिखायी देता था। महर्षियों ने सब कर्म क्षेमयुक्त एवं निर्विघ्न परिपूर्ण किये। यज्ञ के दिनों में कोई भी ऋत्विज् थका-माँदा या भूखा-प्यासा नहीं दिखायी देता था। उसमें कोई भी ब्राह्मण ऐसा नहीं था, जो विद्वान् न हो अथवा जिसके सौ से कम शिष्य या सेवक रहे हों।
उस यज्ञ में प्रतिदिन ब्राह्मण भोजन करते थे (क्षत्रिय और वैश्य भी भोजन पाते थे) तथा शूद्रों को भी भोजन उपलब्ध होता था। तापस और श्रमण भी भोजन करते थे। बूढ़े, रोगी, स्त्रियाँ तथा बच्चे भी यथेष्ट भोजन पाते थे। भोजन इतना स्वादिष्ट होता था कि निरन्तर खाते रहने पर भी किसी का मन नहीं भरता था।
अन्न दो, नाना प्रकार के वस्त्र दो अधिकारियों की ऐसी आज्ञा पाकर कार्यकर्ता लोग बारम्बार वैसा ही करते थे। वहाँ प्रतिदिन विधिवत् पके हुए अन्न के बहुत से पर्वतों जैसे ढेर दिखायी देते थे। महामनस्वी राजा दशरथ के उस यज्ञ में नाना देशों से आये हुए स्त्री-पुरुष अन्न-पानद्वारा भलीभाँति तृप्त किये गये थे। श्रेष्ठ ब्राह्मण ‘भोजन विधिवत् बनाया गया है। बहुत स्वादिष्ट है' – ऐसा कहकर अन्न की प्रशंसा करते थे। भोजन करके उठे हुए लोगों के मुख से राजा सदा यही सुनते थे कि 'हमलोग खूब तृप्त हुए। आपका कल्याण हो'। वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत हुए पुरुष ब्राह्मणों को भोजन परोसते थे और उन लोगों की जो दूसरे लोग सहायता करते थे, उन्होंने भी विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण कर रखे थे।
एक सवन समाप्त करके दूसरे सवन के आरम्भ होने से पूर्व जो अवकाश मिलता था, उसमें उत्तम वक्ता धीर ब्राह्मण एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बहुतेरे युक्तिवाद उपस्थित करते हुए शास्त्रार्थ करते थे। उस यज्ञ में नियुक्त हुए कर्मकुशल ब्राह्मण प्रतिदिन शास्त्र के अनुसार सब कार्यों का सम्पादन करते थे। राजा के उस यज्ञ में कोई भी सदस्य ऐसा नहीं था, जो व्याकरण आदि छहों अंगों का ज्ञाता न हो, जिसने ब्रह्मचर्यव्रत का पालन न किया हो तथा जो बहुश्रुत न हो। वहाँ कोई ऐसा द्विज नहीं था, जो वाद-विवाद में कुशल न हो।
जब यूप खड़ा करने का समय आया, तब बेल की लकड़ी के छ: यूप गाड़े गये। उतने ही खैर के यूप खड़े किये गये तथा पलाश के भी उतने ही यूप थे, जो बिल्वनिर्मित यूपों के साथ खड़े किये गये थे। बहेड़े के वृक्ष का एक यूप अश्वमेध यज्ञ के लिये विहित है। देवदारु के बने हुए यूप का भी विधान है; परंतु उसकी संख्या न एक है न छः। देवदारु के दो ही यूप विहित हैं। दोनों बाँहें फैला देने पर जितनी दूरी होती है, उतनी ही दूर पर वे दोनों स्थापित किये गये थे।
यज्ञकुशल शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों ने ही इन सब यूपों का निर्माण कराया था। उस यज्ञ की शोभा बढ़ाने के लिये उन सब में सोना जड़ा गया था। पूर्वोक्त इक्कीस यूप इक्कीस-इक्कीस अरन्ति' (पाँच सौ चार अङ्गुल) ऊँचे बनाये गये थे। उन सबको पृथक्-पृथक् इक्कीस कपड़ों से अलंकृत किया गया था।
कारीगरों द्वारा अच्छी तरह बनाये गये वे सभी सुदृढ़ यूप विधिपूर्वक स्थापित किये गये थे। वे सब-के-सब आठ कोणों से सुशोभित थे। उनकी आकृति सुन्दर एवं चिकनी थी। उन्हें वस्त्रों से ढक दिया गया था और पुष्प- चन्दन से उनकी पूजा की गयी थी। जैसे आकाश में तेजस्वी सप्तर्षियों की शोभा होती है, उसी प्रकार यज्ञमण्डप में वे दीप्तिमान् खूप सुशोभित होते थे। सूत्रग्रन्थों में बताये अनुसार ठीक माप से ईंटें तैयार करायी गयी थीं। उन ईंटों के द्वारा यज्ञसम्बन्धी शिल्पि कर्म में कुशल ब्राह्मणों ने अग्नि का चयन किया था।
राजसिंह महाराज दशरथ के यज्ञ में चयन द्वारा सम्पादित अग्रि की कर्मकाण्ड कुशल ब्राह्मणों द्वारा शास्त्रविधि के अनुसार स्थापना की गयी। उस अग्नि की आकृति दोनों पंख और पुच्छ फैलाकर नीचे देखते हुए पूर्वाभिमुख खड़े हुए गरुड़की-सी प्रतीत होती थी। सोने की ईंटों से पंख का निर्माण होने से उस गरुड़ के पंख सुवर्णमय दिखायी देते थे। प्रकृत- अवस्था में चित्य-अग्नि के छ: प्रस्तार होते हैं; किंतु अश्वमेध यज्ञ में उसका प्रस्तार तीनगुना हो जाता है। इसलिये वह गरुड़ाकृति अग्नि अठारह प्रस्तारों से युक्त थी। वहाँ पूर्वोक्त यूपों में शास्त्रविहित पशु, सर्प और पक्षी विभिन्न देवताओं के उद्देश्य से बाँधे गये थे।
शामित्र कर्म में यज्ञिय अश्व तथा कूर्म आदि जलचर जन्तु जो वहाँ लाये गये थे, ऋषियों ने उन सबको शास्त्रविधि के अनुसार पूर्वोक्त यूपों में बाँध दिया। उस समय उन यूपों में तीन सौ पशु बँधे हुए थे तथा राजा दशरथ का वह उत्तम अश्वरन्त भी वहीं बाँधा गया था। रानी कौशल्या ने वहाँ प्रोक्षण आदि के द्वारा सब ओर से उस अश्व का संस्कार करके बड़ी प्रसन्नता के साथ तीन तलवारों से उसका स्पर्श किया। तदनन्तर कौशल्या देवी ने सुस्थिर चित्त से धर्मपालन की इच्छा रखकर उस अश्व के निकट एक रात निवास किया।
तत्पश्चात् होता, अध्वर्यु और उद्गाता ने राजा की (क्षत्रियजातीय) महिषी 'कौसल्या', (वैश्यजातीय स्त्री ) 'वावाता' तथा (शूद्रजातीय स्त्री) 'परिवृत्ति' – इन सबके हाथ से उस अश्व का स्पर्श कराया। इसके बाद परम चतुर जितेन्द्रिय ऋत्विक ने विधिपूर्वक अश्वकन्द के गूदे को निकालकर शास्त्रोक्त रीति से पकाया। तत्पश्चात् उस गूदे की आहुति दी गयी। राजा दशरथ ने अपने पाप को दूर करने के लिये ठीक समय पर आकर विधिपूर्वक उसके धूएँ की गन्ध को सूँघा। उस अश्वमेध यज्ञ के अंगभूत जो-जो हवनीय पदार्थ थे, उन सबको लेकर समस्त सोलह ऋत्विज् ब्राह्मण अग्नि में विधिवत् आहुति देने लगे।
अश्वमेध के अतिरिक्त अन्य यज्ञों में जो हवि दी जाती है, वह पाकर की शाखाओं में रखकर दी जाती है; परंतु अश्वमेध यज्ञ का हविष्य बेंत की चटाई में रखकर देने का नियम है। कल्पसूत्र और ब्राह्मणग्रन्थों के द्वारा अश्वमेध के तीन सवनीय दिन बताये गये हैं । उनमें से प्रथम दिन जो सवन होता है, उसे चतुष्टोम ('अग्निष्टोम') कहा गया है। द्वितीय दिवस साध्य सवन को 'उक्थ्य' नाम दिया गया है तथा तीसरे दिन जिस सवन का अनुष्ठान होता है, उसे 'अतिरात्र' कहते हैं। उसमें शास्त्रीय दृष्टि से विहित बहुत-से दूसरे- दूसरे क्रतु भी सम्पन्न किये गये।
ज्योतिष्टोम, आयुष्टोम यज्ञ, दो बार अतिरात्र यज्ञ, पाँचवाँ अभिजित् छठा विश्वजित् तथा सातवें-आठवें आप्तोर्याम - ये सब-के-सब महाक्रतु माने गये हैं, जो अश्वमेध के उत्तर काल में सम्पादित हुए। अपने कुल की वृद्धि करने वाले राजा दशरथ ने यज्ञ पूर्ण होने पर होता (यज्ञ करने वाला पुरोहित) को दक्षिणारूप में अयोध्या से पूर्व दिशा का सारा राज्य सौंप दिया, अध्वर्यु (यजुर्वेद मन्त्रों द्वारा यज्ञ कर्म करने वाला) को पश्चिम दिशा तथा ब्रह्मा (यज्ञ का पर्यवेक्षण करने वाला प्रमुख ब्राह्मण) को दक्षिण दिशा का राज्य दे दिया।
इसी तरह उद्गाता (सामवेद मन्त्रों द्वारा यज्ञ कर्म करने वाला) को उत्तर दिशा की सारी भूमि दे दी। पूर्वकाल में भगवान् ब्रह्माजी ने जिसका अनुष्ठान किया था, उस अश्वमेध नामक महायज्ञ में ऐसी ही दक्षिणा का विधान किया गया हैं। इस प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ समाप्त करके अपने कुल की वृद्धि करने वाले पुरुषशिरोमणि राजा दशरथ ने ऋत्विजों (यज्ञ का सञ्चालन करने वाले) को सारी पृथ्वी दान कर दी।
यों दान देकर इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीमान् महाराज दशरथ के हर्ष की सीमा न रही, परंतु समस्त ऋत्विज् उन निष्पाप नरेश से इस प्रकार बोले - महाराज! अकेले आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी की रक्षा करने में समर्थ हैं। हममें इसके पालन की शक्ति नहीं है; अत: भूमि से हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। भूमिपाल! हम तो सदा वेदों के स्वाध्याय में ही लगे रहते हैं (इस भूमिका पालन हमसे नहीं हो सकता); अत: आप हमें यहाँ इस भूमि का कुछ निष्क्रय (मूल्य) ही दे दें। नृपश्रेष्ठ! मणि, रन्त, सुवर्ण, गौ अथवा जो भी वस्तु यहाँ उपस्थित हो, वही हमें दक्षिणारूप से दे दीजिये। इस धरती से हमें कोई प्रयोजन नहीं है।
वेदों के पारगामी विद्वान् ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर राजा ने उन्हें दस लाख गौएँ प्रदान कीं। दस करोड़ स्वर्णमुद्रा तथा उससे चौगुनी रजतमुद्रा अर्पित की। तब उस समस्त ऋत्विजों ने एक साथ होकर वह सारा धन मुनिवर ऋष्यश्रृंग तथा बुद्धिमान् वसिष्ठ को सौंप दिया। तदनन्तर उन दोनों महर्षियों के सहयोग से उस धन का न्यायपूर्वक बँटवारा करके वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण मन-ही- मन बड़े प्रसन्न हुए और बोले – महाराज ! इस दक्षिणा से हमलोग बहुत संतुष्ट हैं।
इसके बाद एकाग्रचित्त होकर राजा दशरथ ने अभ्यागत (अतिथि) ब्राह्मणों को एक करोड़ जाम्बूनद सुवर्ण की मुद्राएँ बाँटीं। सारा धन दे देने के बाद जब कुछ नहीं बच रहा, तब एक दरिद्र ब्राह्मण ने आकर राजा से धनकी याचना की। उस समय उन रघुकुलनन्दन नरेश ने उसे अपने हाथ का उत्तम आभूषण उतारकर दे दिया।
तत्पश्चात् जब सभी ब्राह्मण विधिवत् संतुष्ट हो गये, उस समय उनपर स्नेह रखने वाले नरेश ने उन सबको प्रणाम किया। प्रणाम करते समय उनकी सारी इन्द्रियाँ हर्ष से विह्वल हो रही थीं। पृथ्वी पर पड़े हुए उन उदार नरवीर को ब्राह्मणों ने नाना प्रकार के आशीर्वाद दिये। तदनन्तर उस परम उत्तम यज्ञ का पुण्यफल पाकर राजा दशरथ के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वह यज्ञ उनके सब पापों का नाश करनेवाला तथा उन्हें स्वर्गलोक में पहुँचाने वाला था। साधारण राजाओं के लिये उस यज्ञ को आदि से अन्त तक पूर्ण कर लेना बहुत ही कठिन था।
यज्ञ समाप्त होने पर राजा दशरथ ने ऋष्यश्रृंग से कहा – उत्तम व्रत का पालन करने वाले मुनीश्वर ! अब जो कर्म मेरी कुलपरम्परा को बढ़ानेवाला हो, उसका सम्पादन आपको करना चाहिये।
तब द्विजश्रेष्ठ ऋष्यश्रृंग ‘तथास्तु' कहकर राजा से बोले – राजन्! आपके चार पुत्र होंगे, जो इस कुल के भार को वहन करने में समर्थ होंगे। उनका यह मधुर वचन सुनकर मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाले महामना महाराज दशरथ उन्हें प्रणाम करके बड़े हर्ष को प्राप्त हुए तथा उन्होंने ऋष्यश्रृंग को पुनः पुत्रप्राप्ति कराने वाले कर्म का अनुष्ठान करने के लिये प्रेरित किया।
इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-६(6) समाप्त !
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