भाग-६८(68) शिवजी की कृपा से श्रीराम महिमा सुनकर देवी पार्वती के समस्त मोह का नाश

 


भुशुण्डिजी के मंगलमय वचन सुनकर और श्री रामजी के चरणों में उनका अतिशय प्रेम देखकर संदेह से भलीभाँति छूटे हुए गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले - श्री रघुवीर के भक्ति रस में सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया। श्री रामजी के चरणों में मेरी नवीन प्रीति हो गई और माया से उत्पन्न सारी विपत्ति चली गई। मोह रूपी समुद्र में डूबते हुए मेरे लिए आप जहाज हुए। हे नाथ! आपने मुझे बहुत प्रकार से परम सुखी कर दिया। मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकार के बदले में उपकार) नहीं हो सकता। मैं तो आपके चरणों की बार-बार वंदना ही करता हूँ। आप पूर्णकाम हैं और श्री रामजी के प्रेमी हैं। हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी- इन सबकी क्रिया पराए हित के लिए ही होती है। 

'संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है, परंतु उन्होंने असली बात कहना नहीं जाना, क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं। मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया। आपकी कृपा से सब संदेह चला गया। मुझे सदा अपना दास ही जानिएगा।' 

शिवजी कहते हैं - हे उमा! पक्षी श्रेष्ठ गरुड़जी बार-बार ऐसा कह रहे हैं। उन भुशुण्डिजी के चरणों में प्रेमसहित सिर नवाकर और हृदय में श्री रघुवीर को धारण करके धीरबुद्धि गरु़ड़जी तब वैकुंठ को चले गए। हे गिरिजे! संत समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है। पर वह संत समागम श्री हरि की कृपा के बिना नहीं हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं। 

'मैंने यह परम पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानों से सुनते ही भवपाश संसार के बंधन छूट जाते हैं और शरणागतों को उनके इच्छानुसार फल देने वाले कल्पवृक्ष तथा दया के समूह श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम उत्पन्न होता है। जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता, अनेकों प्रकार के कर्म, धर्म, व्रत और दान, अनेकों संयम दम, जप, तप और यज्ञ, प्राणियों पर दया, ब्राह्मण और गुरु की सेवा, विद्या, विनय और विवेक की बड़ाई आदि।'

'जहाँ तक वेदों ने साधन बतलाए हैं, हे भवानी! उन सबका फल श्री हरि की भक्ति ही है, किंतु श्रुतियों में गाई हुई वह श्री रघुनाथजी की भक्ति श्री रामजी की कृपा से किसी एक (विरले) ने ही पाई है। किंतु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंतर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनि दुर्लभ हरि भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। जिसका मन श्री रामजी के चरणों में अनुरक्त है, वही सर्वज्ञ सब कुछ जानने वाला है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है। वही पृथ्वी का भूषण, पण्डित और दानी है। वही धर्मपरायण है और वही कुल का रक्षक है।'

'जो छल छो़ड़कर श्री रघुवीर का भजन करता है, वही नीति में निपुण है, वही परम्‌ बुद्धिमान है। उसी ने वेदों के सिद्धांत को भली-भाँति जाना है। वही कवि, वही विद्वान्‌ तथा वही रणधीर है। वह देश धन्य है, जहाँ श्री गंगाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है। वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति होती है जो दान देने में व्यय होता है वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखण्ड भक्ति हो। धन की तीन गतियाँ होती हैं - दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है। जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।'

'हे उमा! सुनो वह कुल धन्य है, संसारभर के लिए पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्री रघुवीर परायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हों। मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको छिपाकर रखा था। जब तुम्हारे मन में प्रेम की अधिकता देखी तब मैंने श्री रघुनाथजी की यह कथा तुमको सुनाई।'

'यह कथा उनसे न कहनी चाहिए जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभाव के हों और श्री हरि की लीला को मन लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामी को, जो चराचर के स्वामी श्री रामजी को नहीं भजते, यह कथा नहीं कहनी चाहिए। ब्राह्मणों के द्रोही को, यदि वह देवराज इन्द्र के समान ऐश्वर्यवान्‌ राजा भी हो, तब भी यह कथा न सुनानी चाहिए। श्री रामकथा के अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यंत प्रिय है।'

'जिनकी गुरु के चरणों में प्रीति है, जो नीतिपरायण हैं और ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही इसके अधिकारी हैं और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख देने वाली है, जिसको श्री रघुनाथजी प्राण के समान प्यारे हैं। जो श्री रामजी के चरणों में प्रेम चाहता हो या मोक्षपद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृत को प्रेमपूर्वक अपने कान रूपी दोने से पिए।'

'हे गिरिजे! मैंने कलियुग के पापों का नाश करने वाली और मन के मल को दूर करने वाली रामकथा का वर्णन किया। यह रामकथा संसृति (जन्म-मरण) रूपी रोग के (नाश के) लिए संजीवनी जड़ी है, वेद और विद्वान पुरुष ऐसा कहते हैं। इसमें सात सुंदर सीढ़ियाँ हैं, जो श्री रघुनाथजी की भक्ति को प्राप्त करने के मार्ग हैं। जिस पर श्री हरि की अत्यंत कृपा होती है, वही इस मार्ग पर पैर रखता है। जो कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामना की सिद्धि पा लेते हैं, जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं, वे संसार रूपी समुद्र को गो के खुर से बने हुए गड्ढे की भाँति पार कर जाते हैं।'

सूतजी कहते हैं - हे ऋषिगणों! सब कथा सुनकर श्री पार्वतीजी के हृदय को बहुत ही प्रिय लगी और वे सुंदर वाणी बोलीं- स्वामी आपकी कृपा से मेरा संदेह जाता रहा और श्री रामजी के चरणों में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया। हे विश्वनाथ! आपकी कृपा से अब मैं कृतार्थ हो गई। मुझमें दृढ़ राम भक्ति उत्पन्न हो गई और मेरे संपूर्ण क्लेश बीत गए (नष्ट हो गए)। 

'शम्भु-उमा का यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करने वाला और शोक का नाश करने वाला है। जन्म-मरण का अंत करने वाला, संदेहों का नाश करने वाला, भक्तों को आनंद देने वाला और संत पुरुषों को प्रिय है। जगत्‌ में जो (जितने भी) रामोपासक हैं, उनको तो इस रामकथा के समान कुछ भी प्रिय नहीं है। श्री रघुनाथजी की कृपा से मैंने यह सुंदर और पवित्र करने वाला चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहा है। कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए। पतितों को पवित्र करना जिनका महान्‌ (प्रसिद्ध) बाना है, ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं रे मन! कुटिलता त्याग कर उन्हीं को भज। श्री राम को भजने से किसने परम गति नहीं पाई।'

'अरे मूर्ख मन! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्री राम को भजकर किसने परमगति नहीं पाई? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्री रामजी का यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुग के पाप और मन के मल को धोकर बिना ही परिश्रम श्री रामजी के परम धाम को चले जाते हैं।

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-६८(68) समाप्त !

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