काकभुशुण्डि कहते हैं - हे गरुड़जी! एक बार मुनि वशिष्ठजी वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम श्री रामजी थे। श्री रघुनाथजी ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया। मुनि ने हाथ जोड़कर कहा - हे कृपासागर श्री रामजी! मेरी कुछ विनती सुनिए! आपके आचरणों मनुष्योचित चरित्रों को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है। हे भगवन्! आपकी महिमा की सीमा नहीं है, उसे वेद भी नहीं जानते। फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूँ? पुरोहिती का कर्म बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निंदा करते हैं।
जब मैं उसे (सूर्यवंश की पुरोहिती का काम) नहीं लेता था, तब ब्रह्माजी ने मुझे कहा था- हे पुत्र! इससे तुमको आगे चलकर बहुत लाभ होगा। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कर रघुकुल के भूषण राजा होंगे। तब मैंने हृदय में विचार किया कि जिसके लिए योग, यज्ञ, व्रत और दान किए जाते हैं उसे मैं इसी कर्म से पा जाऊँगा, तब तो इसके समान दूसरा कोई धर्म ही नहीं है। जप, तप, नियम, योग, अपने-अपने (वर्णाश्रम के) धर्म, श्रुतियों से उत्पन्न (वेदविहित) बहुत से शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इंद्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँ तक वेद और संतजनों ने धर्म कहे हैं उनके करने का तथा हे प्रभो! अनेक तंत्र, वेद और पुराणों के पढ़ने और सुनने का सर्वोत्तम फल एक ही है और सब साधनों का भी यही एक सुंदर फल है कि आपके चरणकमलों में सदा-सर्वदा प्रेम हो।
'मैल से धोने से क्या मैल छूटता है? जल के मथने से क्या कोई घी पा सकता है? उसी प्रकार हे रघुनाथजी! प्रेमभक्ति रूपी निर्मल जल के बिना अंतःकरण का मैल कभी नहीं जाता। वही सर्वज्ञ है, वही तत्त्वज्ञ और पंडित है, वही गुणों का घर और अखंड विज्ञानवान् है, वही चतुर और सब सुलक्षणों से युक्त है, जिसका आपके चरण कमलों में प्रेम है।'
'हे नाथ! हे श्री रामजी! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिए। प्रभु आप के चरणकमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मांतर में भी कभी न घटे। ऐसा कहकर मुनि वशिष्ठजी घर आए। वे कृपासागर श्री रामजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। तदनन्तर सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी ने हनुमान्जी तथा भरतजी आदि भाइयों को साथ लिया, और फिर कृपालु श्री रामजी नगर के बाहर गए और वहाँ उन्होंने हाथी, रथ और घोड़े मँगवाए। उन्हें देखकर कृपा करके प्रभु ने सबकी सराहना की और उनको जिस-जिसने चाहा, उस-उसको उचित जानकर दिया।'
'संसार के सभी श्रमों को हरने वाले प्रभु ने हाथी, घोड़े आदि बँटने में श्रम का अनुभव किया और श्रम मिटाने को वहाँ गए जहाँ शीतल अमराई (आमों का बगीचा) थी। वहाँ भरतजी ने अपना वस्त्र बिछा दिया। प्रभु उस पर बैठ गए और सब भाई उनकी सेवा करने लगे। उस समय पवनपुत्र हनुमान्जी पवन (पंखा) करने लगे। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर आया।'
शिवजी कहने लगे - हे गिरिजे! हनुमान्जी के समान न तो कोई बड़भागी है और न कोई श्री रामजी के चरणों का प्रेमी ही है, जिनके प्रेम और सेवा की स्वयं प्रभु ने अपने श्रीमुख से बार-बार बड़ाई की है। उसी अवसर पर नारदमुनि हाथ में वीणा लिए हुए आए। वे श्री रामजी की सुंदर और नित्य नवीन रहने वाली कीर्ति गाने लगे।
स्तुति
मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन॥
नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि॥१
जातुधान बरूथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन॥
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक॥२
भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित॥
रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर॥३
सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम॥
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन॥४
कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन॥५
(स्त्रोत : श्रीरामचरितमानस - उत्तरकाण्ड)
भावार्थ
कृपापूर्वक देख लेने मात्र से शोक के छुड़ाने वाले हे कमलनयन! मेरी ओर देखिए मुझ पर भी कृपादृष्टि कीजिए हे हरि! आप नीलकमल के समान श्यामवर्ण और कामदेव के शत्रु महादेवजी के हृदय कमल के मकरन्द (प्रेम रस) के पान करने वाले भ्रमर हैं।१
आप राक्षसों की सेना के बल को तोड़ने वाले हैं। मुनियों और संतजनों को आनंद देने वाले और पापों का नाश करने वाले हैं। ब्राह्मण रूपी खेती के लिए आप नए मेघसमूह हैं और शरणहीनों को शरण देने वाले तथा दीन जनों को अपने आश्रय में ग्रहण करने वाले हैं।२
अपने बाहुबल से पृथ्वी के बड़े भारी बोझ को नष्ट करने वाले, खर दूषण और विराध के वध करने में कुशल, रावण के शत्रु, आनंदस्वरूप, राजाओं में श्रेष्ठ और दशरथ के कुल रूपी कुमुदिनी के चंद्रमा श्री रामजी! आपकी जय हो।३
आपका सुंदर यश पुराणों, वेदों में और तंत्रादि शास्त्रों में प्रकट है! देवता, मुनि और संतों के समुदाय उसे गाते हैं। आप करुणा करने वाले और झूठे मद का नाश करने वाले, सब प्रकार से कुशल (निपुण) श्री अयोध्याजी के भूषण ही हैं।४
आपका नाम कलियुग के पापों को मथ डालने वाला और ममता को मारने वाला है। हे तुलसीदास के प्रभु! शरणागत की रक्षा कीजिए।५
'श्री रामचंद्रजी के गुणसमूहों का प्रेमपूवक वर्णन करके मुनि नारदजी शोभा के समुद्र प्रभु को हृदय में धरकर जहाँ ब्रह्मलोक है, वहाँ चले गए।
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