भाग-५(5) राजा का वसिष्ठजी से यज्ञ की तैयारी के लिये अनुरोध तथा पत्नियों सहित राजा दशरथ का यज्ञ की दीक्षा लेना

 


वर्तमान वसन्त ऋतु के बीतने पर जब पुनः दूसरा वसन्त आया, तब तक एक वर्ष का समय पूरा हो गया। उस समय शक्तिशाली राजा दशरथ संतान के लिये अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा लेने के निमित्त वसिष्ठजी के समीप गये। वसिष्ठजी को प्रणाम करके राजा ने न्यायतः उनका पूजन किया और पुत्र प्राप्ति का उद्देश्य लेकर उन द्विजश्रेष्ठ मुनि से यह विनययुक्त बात कही - ब्रह्मन् ! मुनिप्रवर! आप शास्त्रविधि के अनुसार मेरा यज्ञ करावें और यज्ञ के अंगभूत अश्व संचारण आदि में ब्रह्मराक्षस आदि जिस तरह विघ्न न डाल सकें, वैसा उपाय कीजिये। आपका मुझ पर विशेष स्नेह है, आप मेरे सुहृद् – अकारण हितैषी, गुरु और परम महान् हैं। यह जो यज्ञ का भार उपस्थित हुआ है, इसको आप ही वहन कर सकते हैं। 

तब 'बहुत अच्छा' कहकर विप्रवर वसिष्ठ मुनि राजा से इस प्रकार बोले - नरेश्वर ! तुमने जिसके लिये प्रार्थना की है, वह सब मैं करूँगा। तदनन्तर वसिष्ठजी ने यज्ञसम्बन्धी कर्मों में निपुण तथा यज्ञविषयक शिल्पकर्म में कुशल, परम धर्मात्मा, बूढ़े ब्राह्मणों, यज्ञकर्म समाप्त होने तक उसमें सेवा करने वाले सेवकों, शिल्पकारों, बढ़इयों, भूमि खोदने वालों, ज्योतिषियों, कारीगरों, नटों, नर्तकों, विशुद्ध शास्त्रवेत्ताओं तथा बहुश्रुत पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा –  तुमलोग महाराज की आज्ञा से यज्ञकर्म के लिये आवश्यक प्रबन्ध करो। 

'शीघ्र ही कई हजार ईंटें लायी जाये। राजाओं के ठहरने के लिये उनके योग्य अन्न-पान आदि अनेक उपकरणों से युक्त बहुत-से महल बनाये जाये। ब्राह्मणों के रहने के लिये भी सैकड़ों सुन्दर घर बनाये जाने चाहिये। वे सभी गृह बहुत-से भोजनीय अन्न-पान आदि उपकरणों से युक्त तथा आँधी-पानी आदि के निवारण में समर्थ हों। इसी तरह पुरवासियों के लिये भी विस्तृत मकान बनने चाहिये। दूर से आये हुए भूपालों के लिये पृथक्-पृथक् महल बनाये जाये। घोड़े और हाथियों के लिये भी शालाएँ बनायी जाये। साधारण लोगों के सोने के लिये भी घरों की व्यवस्था हो। विदेशी सैनिकों के लिये भी बड़ी-बड़ी छावनियाँ बननी चाहिये।' 

‘जो घर बनाये जाये, उनमें खाने-पीने की प्रचुर सामग्री संचित रहे। उनमें सभी मनोवांछित पदार्थ सुलभ हों तथा नगरवासियों को भी बहुत सुन्दर अन्न भोजन के लिये देना चाहिये। वह भी विधिवत् सत्कारपूर्वक दिया जाये, अवहेलना करके नहीं। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे सभी वर्ण के लोग भलीभाँति सत्कृत हो सम्मान प्राप्त करें। काम और क्रोध के वशीभूत होकर भी किसी का अनादर नहीं करना चाहिये।' 

'जो शिल्पी मनुष्य यज्ञकर्म की आवश्यक तैयारी में लगे हों, उनका तो बड़े-छोटे का खयाल रखकर विशेष रूप से समादर करना चाहिये। जो सेवक या कारीगर धन और भोजन आदि के द्वारा सम्मानित किये जाते हैं, वे सब परिश्रमपूर्वक कार्य करते हैं। उनका किया हुआ सारा कार्य सुन्दर ढंग से सम्पन्न होता है। उनका कोई काम बिगड़ने नहीं पाता; अत: तुम सब लोग प्रसन्नचित्त होकर ऐसा ही करो।' 

तब वे सब लोग वसिष्ठजी से मिलकर बोले - आपको जैसा अभीष्ट है, उसके अनुसार ही करने के लिये अच्छी व्यवस्था की जायेगी। कोई भी काम बिगड़ने नहीं पायेगा। आपने जैसा कहा है, हम लोग वैसा ही करेंगे। उसमें कोई त्रुटि नहीं आने देंगे। 

तदनन्तर वसिष्ठजी ने सुमन्त्र को बुलाकर कहा - इस पृथ्वी पर जो-जो धार्मिक राजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सहस्रों शूद्र हैं, उन सबको इस यज्ञ में आने के लिये निमन्त्रित करो। सब देशों के अच्छे लोगों को सत्कारपूर्वक यहाँ ले आओ। मिथिला के स्वामी शूरवीर महाभाग जनक सत्यवादी नरेश हैं। उनको अपना पुराना सम्बन्धी जानकर तुम स्वयं ही जाकर उन्हें बड़े आदर-सत्कार के साथ यहाँ ले आओ; इसीलिये पहले तुम्हें यह बात बता देता हूँ। 

'इसी प्रकार काशी के राजा अपने स्नेही मित्र हैं और सदा प्रिय वचन बोलने वाले हैं। वे सदाचारी तथा देवताओं के तुल्य तेजस्वी हैं; अत: उन्हें भी स्वयं ही जाकर ले आओ। केकयदेश के बूढ़े राजा बड़े धर्मात्मा हैं, वे राजसिंह अश्वपति (देवी केकई के पिता) महाराज दशरथ के श्वशुर हैं; अत: उन्हें भी पुत्रसहित यहाँ ले आओ।' 

‘अंगदेश के स्वामी महाधनुर्धर राजा रोमपाद हमारे महाराज के मित्र हैं, अत: उन्हें पुत्र सहित यहाँ सत्कारपूर्वक ले आओ। कोशलराज भानुमान (देवी कौशल्या के पिता) को भी सत्कारपूर्वक ले आओ। मगधदेश के राजा प्राप्तिज्ञ (देवी सुमित्रा के पिता) को, जो शूरवीर, सर्वशास्त्रविशारद, परम उदार तथा पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, स्वयं जाकर सत्कारपूर्वक बुला ले आओ।' 

'महाराज की आज्ञा लेकर तुम पूर्वदेश के श्रेष्ठ नरेशों को तथा सिन्धु-सौवीर एवं सौराष्ट्र देश के भूपालों को यहाँ आने के लिये निमन्त्रण दो। दक्षिण भारत के समस्त नरेशों को भी आमन्त्रित करो। इस भूतल पर और भी जो-जो नरेश महाराज के प्रति स्नेह रखते हैं, उन सबको सेवकों और सगे-सम्बन्धियों सहित यथासम्भव शीघ्र बुला लो। महाराज की आज्ञा से बड़भागी दूतोंद्वारा इन सबके पास बुलावा भेज दो।' 

वसिष्ठ का यह वचन सुनकर सुमन्त्र ने तुरंत ही अच्छे पुरुषों को राजाओं की बुलाहट के लिये जाने का आदेश दे दिया। परम बुद्धिमान् धर्मात्मा सुमन्त्र वसिष्ठ मुनि की आज्ञा से खास-खास राजाओं को बुलाने के लिये स्वयं ही गये। यज्ञकर्म की व्यवस्था के लिये जो सेवक नियुक्त किये गये थे, उन सबने आकर उस समय तक यज्ञसम्बन्धी जो-जो कार्य सम्पन्न हो गया था, उस सबकी सूचना महर्षि वसिष्ठ को दी। 

यह सुनकर वे द्विजश्रेष्ठ मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन सबसे बोले –  भद्र पुरुषो! किसी को जो कुछ देना हो; उसे अवहेलना या अनादरपूर्वक नहीं देना चाहिये; क्योंकि अनादरपूर्वक दिया हुआ दान दाता को नष्ट कर देता है - इसमें संशय नहीं है। 

तदनन्तर कुछ दिनों के बाद राजा लोग महाराज दशरथ के लिये बहुत से रत्नों की भेंट लेकर अयोध्या में आये। इससे वसिष्ठजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजा से कहा - पुरुषसिंह ! तुम्हारी आज्ञा से राजालोग यहाँ आ गये। नृपश्रेष्ठ! मैंने भी यथायोग्य उन सबका सत्कार किया है। हमारे कार्यकर्ताओं ने पूर्णत: सावधान रहकर यज्ञ के लिये सारी तैयारी की है। अब तुम भी यज्ञ करने के लिये यज्ञमण्डप के समीप चलो। राजेन्द्र! यज्ञमण्डप में सब ओर सभी वाञ्छनीय वस्तुएँ एकत्र कर दी गयी हैं। आप स्वयं चलकर देखें। यह मण्डप इतना शीघ्र तैयार किया गया है, मानो मन के संकल्प से ही बन गया हो। 

मुनिवर वसिष्ठ तथा ऋष्यश्रृंग दोनों के आदेश से शुभ नक्षत्र वाले दिन को राजा दशरथ यज्ञ के लिये राजभवन से निकले। तत्पश्चात् वसिष्ठ आदि सभी श्रेष्ठ द्विजों ने यज्ञमण्डप में जाकर ऋष्यश्रृंग को आगे करके शास्त्रोक्त विधि के अनुसार यज्ञकर्म का आरम्भ किया। पटरानियों सहित श्रीमान् अवधनरेश ने यज्ञ की दीक्षा ली। 

इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-५(5) समाप्त !

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