भाग-५(5) श्रीविष्णु-जलंधर युद्ध तथा नारदजी का कपट जाल

 


सूतजी बोले – हे ऋषियों ! दैत्यों के तेज प्रहारों से व्याकुल देवता बचने के लिए जब इधर-उधर भाग रहे थे, तब भगवान विष्णु के युद्धस्थल में आने से देवताओं को थोड़ा साहस बंधा। उनके वाहन गरुड़ के पंखों के फड़फड़ाने से आए तूफान में दैत्य अपनी सुध-बुध खोकर इधर-उधर उड़ने लगे। पर जल्दी ही उन्होंने अपने को संभाल लिया। जलंधर ने जब अपनी दैत्य सेना को इस प्रकार तितर-बितर होते देखा तो क्रोधित होकर उसने भगवान श्रीहरि विष्णु पर आक्रमण कर दिया। श्रीहरि विष्णु ने अपने आपको उसके प्रहार से बचा लिया।

'जब भगवान श्रीहरि ने देखा कि देव सेना पुनः आतंकित हो रही है और उनके सेनापति देवराज इंद्र भी भयग्रस्त हैं। तब विष्णुजी ने अपना शारंग नामक धनुष उठा लिया और बड़े जोर से धनुष से टंकार की । फिर उन्होंने देखते ही देखते पल भर में हजारों दैत्यों के सिर काट दिए। यह देखकर दैत्यराज जलंधर क्रोधावेश में उन पर झपटा।'

'तब श्रीहरि ने उसकी ध्वजा, छत्र और बाण काट दिए तथा उसे अपनी गदा से उठाकर गरुड़ के सिर पर दे मारा। गरुड़ से टकराकर नीचे गिरते ही जलंधर के होंठ फड़कने लगे। तब दोनों ही अपने-अपने वाहनों से भीषण बाणों की वर्षा करने लगे। विष्णुजी ने जलंधर की गदा अपने बाणों से काट दी। फिर उसे बाणों से बांधना शुरू कर दिया परंतु जलंधर भी महावीर और पराक्रमी था। वह भी कहां मानने वाला था। उसने भी भीषण बाणवर्षा शुरू कर दी और विष्णुजी के धनुष को तोड़ दिया। तब उन्होंने गदा उठा ली और उससे जलंधर पर प्रहार किया परंतु उसका महादैत्य जलंधर पर कोई असर नहीं हुआ। तब उसने अग्नि के समान धधकते त्रिशूल को विष्णुजी पर छोड़ दिया। उस त्रिशूल से बचने के लिए विष्णुजी ने भगवान शिव का स्मरण करते हुए नंदक त्रिशूल चलाकर जलंधर के वार को काट दिया।'

'तत्पश्चात विष्णु भगवान और जलंधर दोनों धरती पर कूद पड़े और फिर उनके बीच मल्ल युद्ध होने लगा। जलंधर ने भगवान विष्णु की छाती पर बड़े जोर का मुक्का मारा। तब विष्णुजी ने भी पलटकर उस पर मुक्के का प्रहार किया। इस प्रकार दोनों में बाहुयुद्ध होने लगा। उन दोनों के बीच बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। दोनों ही वीर और बलशाली थे। न भगवान विष्णु कम थे और न ही जलंधर। सभी देवता और दानव उनके मध्य हो रहे युद्ध को आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे।' 

युद्ध समाप्त न होते देख भगवान विष्णु ने कहा - हे दैत्यराज जलंधर ! तुम निश्चय ही महावीर हो। तुम्हारा पराक्रम प्रशंसनीय है। तुम इतने भयानक आयुधों से भी भयभीत नहीं हुए और निरंतर युद्ध कर रहे हो। मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम जो चाहे वरदान मांग सकते हो। मैं निश्चय ही तुम्हारी मनोकामना पूरी करूंगा। 

भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर जलंधर बहुत हर्षित हुआ और बोला - हे विष्णो! आप मेरी बहन लक्ष्मी के पति हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो अपनी पत्नी और कुटुंब के लोगों के साथ पधारकर मेरे घर को पवित्र कीजिए। तब भगवान श्रीहरि ने 'तथास्तु' कहकर उसे उसका इच्छित वर प्रदान किया।

अपने दिए गए वर के अनुसार श्रीहरि विष्णु देवी लक्ष्मी व अन्य देवताओं को अपने साथ लेकर जलंधर का आतिथ्य ग्रहण करने के लिए उसके घर पहुंचे। जलंधर उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सब देवताओं का बहुत आदर-सत्कार किया और उनकी वहीं पर स्थापना कर दी। विष्णु परिवार के स्थापित हो जाने के बाद जलंधर निर्भय होकर श्रीविष्णु के अनुग्रह से त्रिभुवन पर शासन करने लगा। उसके राज्य में सभी सुखी थे और धर्म-कर्म का पालन करते थे।

सूतजी बोले - हे मुनिश्वरों! जब जलंधर इस प्रकार धर्मपूर्वक राज्य कर रहा था तो देवता बड़े दुखी थे। उन्होंने अपने मन में देवाधिदेव भगवान शिव का स्मरण करना शुरू कर दिया और उनकी स्तुति करने लगे। एक दिन नारद जी भगवान शिव की प्रेरणा से इंद्रलोक पहुंचे। नारद जी को वहां आया देखकर सभी देवताओं सहित देवराज ने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। तब नारदजी को उन्होंने सभी बातों से अवगत कराया और उनसे प्रार्थना की कि वे उनके दुखों को दूर करने में मदद करें। 

यह प्रार्थना सुनकर नारद जी बोले - देवराज मैं सबकुछ जान गया हूं। मैं अवश्य ही तुम्हारे कार्य को पूर्ण करने का प्रयास करूंगा। अभी तो मैं दैत्यराज जलंधर से मिलना चाहता हूं। इसलिए उसके राजमहल में जा रहा हूं। यह कहकर नारद जी जलंधर के राज्य की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर नारद जी ने जलंधर की राजसभा में प्रवेश किया। 

उन्हें देखकर दैत्यों के स्वामी जलंधर ने उन्हें सिंहासन पर बैठाया, उनके चरणों को धोया और पूछा - हे ब्रह्मन् ! आप कहां से आ रहे हैं? मैं धन्य हुआ जो आपने मेरे घर को पवित्र किया है। मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं आपकी क्या सेवा करूं?

दैत्यराज जलंधर के ऐसे वचन सुनकर नारदजी बोले - हे दैत्यराज जलंधर! आप धन्य हैं। निश्चय ही आप पर सभी की कृपा है। इस लोक में आप सब सुखों को भोग रहे हैं। जलंधर! अभी कुछ समय पूर्व मैं ऐसे ही घूमते हुए कैलाश पर्वत पर गया था। वहां कैलाश पर मैंने सैकड़ों कामधेनुओं को हजारों योजन में फैले कल्पतरु के वन में घूमते हुए देखा। वह कल्पतरु वन दिव्य, अद्भुत और सोने के समान है। वहीं पर मैंने भगवान शिव और उनकी प्राणवल्लभा देवी पार्वती को भी देखा। भगवान शिव सर्वांग सुंदर, गौरवर्णी तीन नेत्रों वाले हैं और अपने मस्तक पर चंद्रमा धारण किए हुए हैं। असुरराज! इस पूरे त्रिलोक में उनके समान कोई भी नहीं है। उनके समान समृद्धिशाली और ऐश्वर्य संपन्न कोई भी नहीं है। तभी मुझे तुम्हारी धन-संपत्ति का भी ध्यान आया। इसलिए मैं तुम्हारे पास आ गया।

'नारद जी के वचनों को सुनकर जलंधर अत्यंत गर्वित महसूस करने लगा और उसने महर्षि नारद को अपने धन के खजाने और सभी संचित अमूल्य निधियां दिखा दीं।' 

'जलंधर की धन संपदा देखकर नारदजी जलंधर की प्रशंसा करते हुए बोले - 'हे दैत्येंद्र! आप अवश्य ही इस त्रिलोक के स्वामी होने के योग्य हैं। आपके पास ऐरावत हाथी है, उच्चैः श्रवा घोड़ा भी आपके पास है। कल्प वृक्ष, धन के देवता कुबेर के खजाने, रत्नों, हीरों, मणियों के अंबार आपके पास हैं। ब्रह्माजी का दिव्य विमान भी आपने ले लिया है। स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल की सभी ऐश्वर्यपूर्ण वस्तुएं और अनमोल खजानों का आपके पास अंबार है। आपका धन-वैभव देखकर सभी आपसे ईर्ष्या कर सकते हैं परंतु दैत्यराज आपके पास अभी भी स्त्री-रत्न की कमी है। बिना दिव्य स्त्री के पुरुष अधूरा है। उसका स्वरूप तभी पूर्ण होता है, जब वह किसी स्त्री को ग्रहण करता है। इसलिए असुरराज आप कोई परम सुंदरी ग्रहण कर, इस कमी को यथाशीघ्र पूरा करें।

देवर्षि नारद की चालभरी बातों से भला कोई कैसे बच सकता है। उन्होंने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ। जलंधर ने नारद जी के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रश्न किया कि महर्षि आपके द्वारा वर्णित ऐसी सुंदर दिव्य स्त्री मुझे कहां मिलेगी, जो रत्नों से भी श्रेष्ठ हो । यदि आप इस प्रकार के स्त्री- रत्न के बारे में मुझे बता दें, तो मैं उस रत्न को अवश्य ही लाकर अपने राजभवन की शोभा बढ़ाऊंगा।

जलंधर की बातें सुनकर देवर्षि नारद ने कहा - हे दैत्येंद्र ! ऐसा अनमोल स्त्री रत्न तो त्रिलोकीनाथ महान योगी भगवान शिव के पास है। वह है उनकी परम सुंदर पत्नी देवी पार्वती। वे सर्वांग सुंदर होने के साथ-साथ सर्वगुण संपन्न भी हैं। संसार की कोई भी स्त्री उनकी बराबरी नहीं कर सकती। उनका मनोहारी रूप पलभर में सबको मोहित कर सकता है। वास्तव में उनके समान कोई नहीं है। यह कहकर देवर्षि नारद ने जलंधर से आज्ञा ली और आकाश मार्ग से वापस लौट गए।

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-५(5) समाप्त !

No comments:

Post a Comment

रामायण: एक परिचय

रामायण संस्कृत के रामायणम् का हिंदी रूपांतरण है जिसका शाब्दिक अर्थ है राम की जीवन यात्रा। रामायण और महाभारत दोनों सनातन संस्कृति के सबसे प्र...