भाग-५(5) इंद्र के वज्र से मारुति का मूर्छित होना तथा वायुदेव के कोप से संसार के प्राणियों को कष्ट

 


अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन! अञ्जना ने जब हनुमानजी को जन्म दिया, उस समय इनकी अङ्गकान्ति जाड़े में पैदा होने वाले धान के अग्रभाग की भाँति पिंगल वर्ण की थी। बालपन में इनका नाम मारुति था। एक दिन माता अञ्जना फल लाने के लिये आश्रम से निकलीं और गहन वन में चली गयीं। उस समय माता से बिछुड़ जाने और भूख से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण शिशु मारुति (हनुमान्) उसी तरह जोर-जोरसे रोने लगे, जैसे पूर्वकाल में सरकंडों के वन के भीतर कुमार कार्तिकेय रोये थे। 

‘इतने ही में इन्हें जपाकुसुम के समान लाल रंग वाले सूर्यदेव उदित होते दिखायी दिये। हनुमानजी ने उन्हें कोई फल समझा और ये उस फल के लोभ से सूर्य की ओर उछले। बालसूर्य (प्रातः काल के समय का सूर्य) की ओर मुँह किये मूर्तिमान् बालसूर्य के समान बालक हनुमान् बालसूर्य को पकड़ने की इच्छा से आकाश में उड़ते चले जा रहे थे। शैशवावस्था में हनुमानजी जब इस तरह उड़ रहे थे, उस समय उन्हें देखकर देवताओं, दानवों तथा यक्षों को बड़ा विस्मय हुआ। 

‘वे सोचने लगे - यह वायु का पुत्र जिस प्रकार ऊँचे आकाश में वेग पूर्वक उड़ रहा है, ऐसा वेग न तो वायु में है, न गरुड़ में है और न मन में ही है। यदि बाल्यावस्था में ही इस शिशु का ऐसा वेग और पराक्रम है तो यौवन का बल पाकर इसका वेग कैसा होगा। 

'अपने पुत्र को सूर्य की ओर जाते देख उसे दाह के भय से बचाने के लिये उस समय वायुदेव भी बर्फ के ढेर की भाँति शीतल होकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। इस प्रकार बालक हनुमान् अपने और पिता के बल से कई सहस्र योजन आकाश को लाँघते चले गये और सूर्यदेव के समीप पहुँच गये। सूर्यदेव ने यह सोचकर कि अभी यह बालक है, इसे गुण-दोष का ज्ञान नहीं है और इसके अधीन देवताओं का भी बहुत-सा भावी कार्य है - इन्हें जलाया नहीं। जिस दिन हनुमानजी सूर्यदेव को पकड़ने के लिये उछले थे, उसी दिन राहु सूर्यदेव पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के रथ के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया, तब चन्द्रमा और सूर्य का मर्दन करनेवाला राहु भयभीत हो वहाँ से भाग खड़ा हुआ। 

सिंहिका का वह पुत्र रोष से भरकर इन्द्र के भवन में गया और देवताओं से घिरे हुए इन्द्र के सामने भौंहें टेढ़ी करके बोला - बलि और वृत्रासुर का वध करनेवाले वासव! आपने चन्द्रमा और सूर्य को मुझे अपनी भूख दूर करने के साधन के रूप में दिया था; किंतु अब आपने उन्हें दूसरे के हवाले कर दिया है। ऐसा क्यों हुआ? आज पर्व (अमावास्या) के समय मैं सूर्यदेव को ग्रस्त करने की इच्छा से गया था। इतने ही में दूसरे राहु ने आकर सहसा सूर्य को पकड़ लिया। 

'राहु की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र घबरा गये और सोने की माला पहने अपना सिंहासन छोड़कर उठ खड़े हुए। फिर कैलास-शिखर के समान उज्ज्वल, चार दाँतों से विभूषित, मद की धारा बहाने वाले, भाँति-भाँति के श्रृङ्गार से युक्त, बहुत ही ऊँचे और सुवर्णमयी घण्टा के नादरूप अट्टहास करनेवाले गजराज ऐरावत पर आरूढ़ हो देवराज इन्द्र राहु को आगे करके उस स्थान पर गये, जहाँ हनुमानजी के साथ सूर्यदेव विराजमान थे।' 

'इधर राहु इन्द्र को छोड़कर बड़े वेग से आगे बढ़ गया। इसी समय पर्वत शिखर के समान आकार वाले दौड़ते हुए राहु को हनुमानजी ने देखा। तब राहु को ही फल के रूप में देखकर बालक हनुमान सूर्यदेव को छोड़ उस सिंहिका पुत्र को ही पकड़ने के लिये पुन: आकाश में उछले। श्रीराम! सूर्य को छोड़कर अपनी ओर धावा करने वाले इन वानर हनुमान को देखते ही राहु जिसका मुखमात्र ही शेष था, पीछे की ओर मुड़कर भागा। उस समय सिंहिका पुत्र राहु अपने रक्षक इन्द्र से ही अपनी रक्षा के लिये कहता हुआ भय के मारे बारम्बार 'इन्द्र! इन्द्र!' की पुकार मचाने लगा।' 

चीखते हुए राहु के स्वर को जो पहले का पहचाना हुआ था, सुनकर इन्द्र बोले - डरो मत। मैं इस आक्रमणकारी को मार डालूँगा। तत्पश्चात् ऐरावत को देखकर इन्होंने उसे भी एक विशाल फल समझा और उस गजराज को पकड़ने के लिये ये उसकी ओर दौड़े। ऐरावत को पकड़ने की इच्छा से दौड़ते हुए हनुमानजी का रूप दो घड़ी के लिये इन्द्र और अग्नि के समान प्रकाशमान एवं भयंकर हो गया। बालक हनुमान को देखकर शचीपति इन्द्र को अधिक क्रोध नहीं हुआ। फिर भी इस प्रकार धावा करते हुए इन्द्र बालक वानर पर उन्होंने अपने हाथसे छूटे हुए वज्रके द्वारा प्रहार किया। 

'इन्द्र के वज्र की चोट खाकर ये एक पहाड़ पर गिरे। वहाँ गिरते समय इनकी बायीं ठुड्डी टूट गयी। वज्र के आघात से व्याकुल होकर इनके गिरते ही वायुदेव इन्द्र पर कुपित हो उठे। उनका यह क्रोध प्रजाजनों के लिये अहितकारक हुआ। सामर्थ्यशाली वायुदेव ने समस्त प्रजा के भीतर रहकर भी वहाँ अपनी गति समेट ली - श्वास आदि के रूप में संचार रोक दिया और अपने शिशुपुत्र हनुमान को लेकर वे पर्वत की गुफा में घुस गये।' 

'जैसे इन्द्र वर्षा रोक देते हैं, उसी प्रकार वे वायुदेव प्रजाजनों के मलाशय और मूत्राशय को रोककर उन्हें बड़ी पीड़ा देने लगे। उन्होंने सम्पूर्ण भूतों के प्राण-संचार का अवरोध कर दिया। वायु के प्रकोप से समस्त प्राणियों की साँस बंद होने लगी। उनके सभी अङ्गों के जोड़ टूटने लगे और वे सब-के-सब काठ के समान चेष्टाशून्य हो गये। तीनों लोकों में न कहीं वेदों का स्वाध्याय होता था और न यज्ञ । सारे धर्म-कर्म बन्द हो गये। त्रिभुवन के प्राणी ऐसे कष्ट पाने लगे, मानो नरक में गिर गये हों।' 

तब गन्धर्व, देवता, असुर और मनुष्य आदि सभी प्रजा व्यथित हो सुख पाने की इच्छा से प्रजापति ब्रह्माजी के पास दौड़ी गयी। उस समय देवताओं के पेट इस तरह फूल गये थे, मानो उन्हें महोदर का रोग हो गया हो। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा - भगवन्! स्वामिन्! आपने चार प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि की है। आपने हम सबको हमारी आयु के अधिपति के रूप में वायुदेव को अर्पित किया है। साधुशिरोमणे ! ये पवनदेव हमारे प्राणों के ईश्वर हैं तो भी क्या कारण है कि आज इन्होंने अन्त: पुर में स्त्रियों की भाँति हमारे शरीर के भीतर अपने संचार को रोक दिया है और इस प्रकार ये हमारे लिये दुःखजनक हो गये हैं। वायु से पीड़ित होकर आज हम लोग आपकी शरण में आये हैं। दु:खहारी प्रजापते! आप हमारे इस वायुरोध जनित दु:ख को दूर कीजिये। 

प्रजाजनों की यह बात सुनकर उनके पालक और रक्षक ब्रह्माजी ने कहा -  इसमें कुछ कारण है। ऐसा कहकर वे प्रजाजनों से फिर बोले - प्रजाओ! जिस कारण को लेकर वायुदेवता ने क्रोध और अपनी गति का अवरोध किया है, उसे बताता हूँ, सुनो। वह कारण तुम्हारे सुनने योग्य और उचित है। आज देवराज इन्द्र ने राहु की बात सुनकर वायु के पुत्र को मार गिराया है, इसीलिये वे कुपित हो उठे हैं। वायुदेव स्वयं शरीर धारण न करके समस्त शरीरों में उनकी रक्षा करते हुए विचरते हैं। वायु के बिना यह शरीर सूखे काठ के समान हो जाता है। वायु ही सबका प्राण है। वायु ही सुख है और वायु ही यह सम्पूर्ण जगत् है। वायु से परित्यक्त (अलग) होकर जगत् कभी सुख नहीं पा सकता। 

'वायु ही जगत की आयु है। इस समय वायु ने संसार के प्राणियों को त्याग दिया है, इसलिये वे सब-के-सब निष्प्राण होकर काठ और दीवार के समान हो गये हैं। अदिति-पुत्रो! अत: अब हमें उस स्थान पर चलना चाहिये, जहाँ हम सबको पीड़ा देनेवाले वायुदेव छिपे बैठे हैं। कहीं ऐसा न हो कि उन्हें प्रसन्न किये बिना हम सबका विनाश हो जाय।' 

‘तदनन्तर देवता, गन्धर्व, नाग और गुह्यक आदि प्रजाओं को साथ ले प्रजापति ब्रह्माजी उस स्थान पर गये, जहाँ वायुदेव इन्द्र द्वारा मारे गये अपने पुत्र को लेकर बैठे हुए थे। तत्पश्चात् चतुर्मुख ब्रह्माजी ने देवताओं, गन्धर्वों, ऋषियों तथा यक्षों के साथ वहाँ पहुँचकर वायुदेवता की गोद में सोये हुए उनके पुत्र रुद्रावतार मारुती को देखा, जिसकी अङ्गकान्ति सूर्य, अग्नि और सुवर्ण के समान प्रकाशित हो रही थी। उसकी वैसी दशा देखकर ब्रह्माजी को उसपर बड़ी दया आयी।' 

इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-५(5) समाप्त ! 

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