भाग-५९(59) गुरुजी का शिवजी से अपराध क्षमापन, शापानुग्रह और काकभुशुण्डि की आगे की कथा

 


काकभुशुण्डि कहते हैं - हे पक्षीराज ! सर्वज्ञ शिवजी ने विनती सुनी और ब्राह्मण का प्रेम देखा। तब मंदिर में आकाशवाणी हुई कि हे द्विजश्रेष्ठ! वर माँगो। 

ब्राह्मण ने कहा - हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और हे नाथ! यदि इस दीन पर आपका स्नेह है, तो पहले अपने चरणों की भक्ति देकर फिर दूसरा वर दीजिए। हे प्रभो! यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वश होकर निरंतर भूला फिरता है। हे कृपा के सागर भगवान्‌! उस पर क्रोध न कीजिए। हे दीनों पर दया करने वाले (कल्याणकारी) शंकर! अब इस पर कृपालु होइए (कृपा कीजिए), जिससे हे नाथ! थोड़े ही समय में इस पर शाप के बाद अनुग्रह (शाप से मुक्ति) हो जाए। हे कृपानिधान! अब वही कीजिए, जिससे इसका परम कल्याण हो। 

'दूसरे के हित से सनी हुई ब्राह्मण की वाणी सुनकर फिर आकाशवाणी हुई- 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो)। यद्यपि इसने भयानक पाप किया है और मैंने भी इसे क्रोध करके शाप दिया है, तो भी तुम्हारी साधुता देखकर मैं इस पर विशेष कृपा करूँगा। हे द्विज! जो क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही प्रिय हैं जैसे खरारि श्री रामचंद्रजी। हे द्विज! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा। यह हजार जन्म अवश्य पाएगा। परंतु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख जरा भी न व्यापेगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। हे शूद्र! मेरा प्रामाणिक (सत्य) वचन सुन।'

'प्रथम तो तेरा जन्म श्री रघुनाथजी की पुरी में हुआ। फिर तूने मेरी सेवा में मन लगाया। पुरी के प्रभाव और मेरी कृपा से तेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न होगी। हे भाई! अब मेरा सत्य वचन सुन। द्विजों की सेवा ही भगवान्‌ को प्रसन्न करने वाला व्रत है। अब कभी ब्राह्मण का अपमान न करना। संतों को अनंत श्री भगवान्‌ ही के समान जानना। इंद्र के वज्र, मेरे विशाल त्रिशूल, काल के दंड और श्री हरि के विकराल चक्र के मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रद्रोह रूपी अग्नि से भस्म हो जाता है। ऐसा विवेक मन में रखना। फिर तुम्हारे लिए जगत्‌ में कुछ भी दुर्लभ न होगा। मेरा एक और भी आशीर्वाद है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी अर्थात्‌ तुम जहाँ जाना चाहोगे, वहीं बिना रोक-टोक के जा सकोगे।'

'आकाशवाणी के द्वारा शिवजी के वचन सुनकर गुरुजी हर्षित होकर 'ऐसा ही हो' यह कहकर मुझे बहुत समझाकर और शिवजी के चरणों को हृदय में रखकर अपने घर गए। काल की प्रेरणा से मैं विन्ध्याचल में जाकर सर्प हुआ। फिर कुछ काल बीतने पर बिना ही परिश्रम (कष्ट) के मैंने वह शरीर त्याग दिया।'

'हे हरिवाहन! मैं जो भी शरीर धारण करता, उसे बिना ही परिश्रम वैसे ही सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग देता है और नया पहिन लेता है। शिवजी ने वेद की मर्यादा की रक्षा की और मैंने क्लेश भी नहीं पाया। इस प्रकार हे पक्षीराज! मैंने बहुत से शरीर धारण किए, पर मेरा ज्ञान नहीं गया।'

'तिर्यक्‌ योनि (पशु-पक्षी), देवता या मनुष्य का, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ उस-उस शरीर में मैं श्री रामजी का भजन जारी रखता। इस प्रकार मैं सुखी हो गया, परंतु एक शूल मुझे बना रहा, गुरुजी का कोमल, सुशील स्वभाव मुझे कभी नहीं भूलता अर्थात्‌ मैंने ऐसे कोमल स्वभाव दयालु गुरु का अपमान किया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा। मैंने अंतिम शरीर ब्राह्मण का पाया, जिसे पुराण और वेद देवताओं को भी दुर्लभ बताते हैं। मैं वहाँ ब्राह्मण शरीर में भी बालकों में मिलकर खेलता तो श्री रघुनाथजी की ही सब लीलाएँ किया करता।'

'सयाना होने पर पिताजी मुझे पढ़ाने लगे। मैं समझता, सुनता और विचारता, पर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। मेरे मन से सारी वासनाएँ भाग गईं। केवल श्री रामजी के चरणों में लव लग गई। हे गरुड़जी! कहिए, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गदही की सेवा करेगा? प्रेम में मग्न रहने के कारण मुझे कुछ भी नहीं सुहाता। पिताजी पढ़ा-पढ़ाकर हार गए। जब पिता-माता कालवश हो गए (मर गए), तब मैं भक्तों की रक्षा करने वाले श्री रामजी का भजन करने के लिए वन में चला गया। वन में जहाँ-जहाँ मुनीश्वरों के आश्रम पाता, वहाँ-वहाँ जा-जाकर उन्हें सिर नवाता। हे गरुड़जी ! उनसे मैं श्री रामजी के गुणों की कथाएँ पूछता। वे कहते और मैं हर्षित होकर सुनता। इस प्रकार मैं सदा-सर्वदा श्री हरि के गुणानुवाद सुनता फिरता। शिवजी की कृपा से मेरी सर्वत्र अबाधित गति थी (अर्थात्‌ मैं जहाँ चाहता वहीं जा सकता था)।'

'मेरी तीनों प्रकार की (पुत्र की, धन की और मान की) गहरी प्रबल वासनाएँ छूट गईं और हृदय में एक यही लालसा अत्यंत बढ़ गई कि जब श्री रामजी के चरणकमलों के दर्शन करूँ तब अपना जन्म सफल हुआ समझूँ। जिनसे मैं पूछता, वे ही मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर सर्वभूतमय है। यह निर्गुण मत मुझे नहीं सुहाता था। हृदय में सगुण ब्रह्म पर प्रीति बढ़ रही थी।' 

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-५९(59) समाप्त !    

   

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