अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! जब रावण की माता केकसी को यह पता चला की उसके पराक्रमी पुत्र को दैत्यराज बलि, वानरराज बाली, महिष्मति नरेश सहस्रबाहु ने रणभूमि में धुल चटाई है तो वह बहुत बेचैन हो गयी। उन्हें लगने लगा की ब्रह्माजी और भगवान शिव से शक्तियां और अनेक वरदान पाकर भी रावण का अस्तित्व खतरे में हैं। क्योंकि जब रावण ने ब्रह्माजी से वरदान पाया तो उस समय उसने वानरों और मानवों से अभयदान नहीं माँगा था।
'केकसी को इस बात की भी चिंता थी कि अवश्य ही देवता उसके पुत्र का अहित करने के लिए कोई योजना अवश्य बनाएँगे। जिस प्रकार राक्षसराज हिरणकशिपु का अंत हुआ कहीं रावण का भी नहीं हो जाये। अतः यह सब सोचते हुए उसने अपने पुत्र रावण को अपने पास बुलाकर समझाया। रावण की माता कि इच्छा थी की इन सभी दुष्परिणामों से बचने के लिए वह महादेव को लंका में आमंत्रित करें। यदि किसी भी प्रकार रावण महादेव के आत्मज्योतर्लिंग को लंका में ला सकेगा तो फिर रावण का अंत कभी नहीं होगा। रावण ने अपनी माँ की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए कैलाश की ओर प्रस्थान किया।'
'तदनन्तर राक्षसराज रावण अभिमानी तो था ही, वह अपने अहंकार को भी शीघ्र प्रकट करने वाला था। एक समय वह कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था। बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा। उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया। राक्षस कुल भूषण उस रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया। उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था। तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया।'
'वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था। इन तीन विधियों के द्वारा रावण की तपस्या चल रही थी। इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए।'
'कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब रावण अपना एक-एक सिर काटकर शिव जी की पूजा करने लगा। वह शास्त्र विधि से भगवान की पूजा करता और उस पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटता तथा भगवान को समर्पित कर देता था। इस प्रकार क्रमश: उसने अपने नौ मस्तक काट डाले। जब वह अपना अन्तिम दसवाँ मस्तक काटना ही चाहता था, तब तक भक्तवत्सल भगवान महेश्वर उस पर सन्तुष्ट और प्रसन्न हो गये। उन्होंने साक्षात प्रकट होकर रावण के सभी मस्तकों को स्वस्थ करते हुए उन्हें पूर्ववत जोड़ दिया।'
भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा – देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ। आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए।
इस प्रकार रावण के कथन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस की स्थिति में पड़ गये। उन्होंने उपस्थित धर्मसंकट को टालने के लिए अनमने होकर कहा– राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना- रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो।
'रावण को भगवान का आत्मज्योतर्लिंग मिल गया। किन्तु देवी पार्वती प्रसन्न नहीं थी। क्योंकि उस आत्मज्योतिर्लिंग में साक्षात् महादेवजी का निवास था जिसकी पूजा वह स्वयं किया करती थी। किन्तु महादेव को विवश जानकर उन्होंने श्रीनारायण और अपने पुत्र गणेश की सहायता ली। देवी पार्वती के अनुरोध पर श्रीहरि ने अपनी माया का प्रभाव दिखाया।'
'भगवान विष्णु की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग की प्रबल इच्छा हुई। सामर्थ्यशाली रावण मूत्र के वेग को रोकने में असमर्थ रहा और शिवलिंग को एक ग्वाले का रूप धारण किये श्रीगणेश के हाथ में सौंप कर स्वयं लघुशंका करने के लिए बैठ गया। एक मुहूर्त बीतने के बाद वह ग्वाला शिवलिंग के भार से पीड़ित हो उठा और उसने लिंग को पृथ्वी पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही वह मणिमय शिवलिंग वहीं पृथ्वी में स्थिर हो गया। गणेशजी अपना कार्य कर चुके थे अतः वे वहां से चले गए।'
'जब रावण वहां पहुंचा तो उसने पवित्र शिवलिंग को भूमि पर स्थापित देखा। वहां उसे ग्वाला दिखाई नहीं दिया। रावण समझ चूका था की उसके साथ माया रची गयी है। तब उसने बलपूर्वक उसे उठाने का प्रयास किया किन्तु जितना वह उस पर अपनी शक्ति लगाता वह शिव लिंग उतना ही धरती में धंस जाता। बार-बार प्रयास करने पर भी उसे सफलता नहीं मिली। अब तो वह शिवलिंग भूमि इतना गढ़ चूका था की उसे हाथों से पकड़ पाना भी संभव नहीं था।'
'हताशा और निराशा में रावण वहां से चला गया। तदनन्तर देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने लिंग सम्बन्धी समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये। भगवान शिव में अटूट भक्ति होने के कारण उन लोगों ने अतिशय प्रसन्नता के साथ शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की। सभी ने भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया।'
'श्रीराम ! इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया। जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है। इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है। प्रभो! रावण अपने इस कार्य में इसलिए भी सफल नहीं हुआ क्योंकि उसका मनोरथ स्वार्थ से परिपूर्ण था।'
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-५७(57) समाप्त !
No comments:
Post a Comment