भाग-५६(56) श्रीराम की महिमा जानकर गरुड़ के मोह का नाश

 


काकभुशुण्डि कहते हैं - जिस सुख के लिए (सबको) सुख देने वाले कल्याण रूप त्रिपुरारि शिवजी ने अशुभ वेष धारण किया, उस सुख में अवधपुरी के नर-नारी निरंतर निमग्न रहते हैं। उस सुख का लवलेशमात्र जिन्होंने एक बार स्वप्न में भी प्राप्त कर लिया, हे पक्षीराज! वे सुंदर बुद्धि वाले सज्जन पुरुष उसके सामने ब्रह्मसुख को भी कुछ नहीं गिनते। मैं और कुछ समय तक अवधपुरी में रहा और मैंने श्री रामजी की रसीली बाल लीलाएँ देखीं। श्री रामजी की कृपा से मैंने भक्ति का वरदान पाया। तदनन्तर प्रभु के चरणों की वंदना करके मैं अपने आश्रम पर लौट आया। 

'इस प्रकार जब से श्री रघुनाथजी ने मुझको अपनाया, तब से मुझे माया कभी नहीं व्यापी। श्री हरि की माया ने मुझे जैसे नचाया, वह सब गुप्त चरित्र मैंने कहा। हे पक्षीराज गरुड़! अब मैं आपसे अपना निजी अनुभव कहता हूँ। वह यह है कि भगवान्‌ के भजन बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षीराज! सुनिए, श्री रामजी की कृपा बिना श्री रामजी की प्रभुता नहीं जानी जाती, प्रभुता जाने बिना उन पर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षीराज! जल की चिकनाई ठहरती नहीं। गुरु के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? अथवा वैराग्य के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? इसी तरह वेद और पुराण कहते हैं कि श्री हरि की भक्ति के बिना क्या सुख मिल सकता है?'

'हे तात! स्वाभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा सकता है? चाहे करोड़ों उपाय करके पच-पच मारिए, (फिर भी) क्या कभी जल के बिना नाव चल सकती है? संतोष के बिना कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता और श्री राम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं? बिना धरती के भी कहीं पेड़ उग सकता है?'

'विज्ञान (तत्त्वज्ञान) के बिना क्या समभाव आ सकता है? आकाश के बिना क्या कोई अवकाश (पोल) पा सकता है? श्रद्धा के बिना धर्म (का आचरण) नहीं होता। क्या पृथ्वी तत्त्व के बिना कोई गंध पा सकता है? तप के बिना क्या तेज फैल सकता है? जल-तत्त्व के बिना संसार में क्या रस हो सकता है? पंडितजनों की सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त हो सकता है? हे गोसाईं! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं मिलता निज-सुख (आत्मानंद) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? वायु-तत्त्व के बिना क्या स्पर्श हो सकता है? क्या विश्वास के बिना कोई भी सिद्धि हो सकती है? इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता।'

'बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री रामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्री रामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता। हे धीरबुद्धि! ऐसा विचारकर संपूर्ण कुतर्कों और संदेहों को छोड़कर करुणा की खान सुंदर और सुख देने वाले श्री रघुवीर का भजन कीजिए। हे पक्षीराज! हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु के प्रताप और महिमा का गान किया। मैंने इसमें कोई बात युक्ति से बढ़ाकर नहीं कही है। यह सब अपनी आँखों देखी कही है। श्री रघुनाथजी की महिमा, नाम, रूप और गुणों की कथा सभी अपार एवं अनंत हैं तथा श्री रघुनाथजी स्वयं भी अनंत हैं। मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार श्री हरि के गुण गाते हैं। वेद, शेष और शिवजी भी उनका पार नहीं पाते।'

'आप से लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाश में उड़ते हैं, किंतु आकाश का अंत कोई नहीं पाता। इसी प्रकार हे तात! श्री रघुनाजी की महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है? श्री रामजी का अरबों कामदेवों के समान सुंदर शरीर है। वे अनंत कोटि दुर्गाओं के समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इंद्रों के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशों के समान उनमें अनंत अवकाश (स्थान) है। अरबों पवन के समान उनमें महान्‌ बल है और अरबों सूर्यों के समान प्रकाश है। अरबों चंद्रमाओं के समान वे शीतल और संसार के समस्त भयों का नाश करने वाले हैं। अरबों कालों के समान वे अत्यंत दुस्तर, दुर्गम और दुरंत हैं। वे भगवान्‌ अरबों धूमकेतुओं (पुच्छल तारों) के समान अत्यंत प्रबल हैं।'

'अरबों पातालों के समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजों के समान भयानक हैं। अनंतकोटि तीर्थों के समान वे पवित्र करने वाले हैं। उनका नाम संपूर्ण पापसमूह का नाश करने वाला है। श्री रघुवीर करो़ड़ों हिमालयों के समान अचल (स्थिर) हैं और अरबों समुद्रों के समान गहरे हैं। भगवान्‌ अरबों कामधेनुओं के समान सब कामनाओं (इच्छित पदार्थों) के देने वाले हैं। उनमें अनंतकोटि सरस्वतियों के समान चतुरता है। अरबों ब्रह्माओं के समान सृष्टि रचना की निपुणता है। वे करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करने वाले और अरबों रुद्रों के समान संहार करने वाले हैं।'

'वे अरबों कुबेरों के समान धनवान्‌ और करोड़ों मायाओं के समान सृष्टि के खजाने हैं। बोझ उठाने में वे अरबों शेषों के समान हैं। अधिक क्या जगदीश्वर प्रभु श्री रामजी सभी बातों में सीमारहित और उपमारहित हैं। श्री रामजी उपमारहित हैं, उनकी कोई दूसरी उपमा है ही नहीं। श्री राम के समान श्री राम ही हैं, ऐसा वेद कहते हैं। जैसे अरबों जुगनुओं के समान कहने से सूर्य प्रशंसा को नहीं वरन अत्यंत लघुता को ही प्राप्त होता है अर्थात सूर्य की निंदा ही होती है। इसी प्रकार अपनी-अपनी बुद्धि के विकास के अनुसार मुनीश्वर श्री हरि का वर्णन करते हैं, किंतु प्रभु भक्तों के भावमात्र को ग्रहण करने वाले और अत्यंत कपालु हैं। वे उस वर्णन को प्रेमसहित सुनकर सुख मानते हैं। श्री रामजी अपार गुणों के समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है? संतों से मैंने जैसा कुछ सुना था, वही आपको सुनाया।'

'सुख के भंडार, करुणाधाम भगवा्‌न भाव (प्रेम) के वश हैं। (अतएव) ममता, मद और मान को छोड़कर सदा श्री जानकीनाथजी का ही भजन करना चाहिए।'

शिवजी कहते हैं - हे भवानी! भुशुण्डिजी के सुंदर वचन सुनकर पक्षीराज ने हर्षित होकर अपने पंख फुला लिए। उनके नेत्रों में प्रेमानंद के आँसुओं का जल आ गया और मन अत्यंत हर्षित हो गया। उन्होंने श्री रघुनाथजी का प्रताप हृदय में धारण किया। वे अपने पिछले मोह को समझकर याद करके पछताने लगे कि मैंने अनादि ब्रह्म को मनुष्य करके माना। गरुड़जी ने बार-बार काकभुशुण्डिजी के चरणों पर सिर नवाया और उन्हें श्री रामजी के ही समान जानकर प्रेम बढ़ाया। गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्माजी और मेरे (शंकरजी के) समान ही क्यों न हो। 

गरुड़जी ने कहा - हे तात! मुझे संदेह रूपी सर्प ने डस लिया था और साँप के डसने पर जैसे विष चढ़ने से लहरें आती हैं वैसे ही बहुत सी कुतर्क रूपी दुःख देने वाली लहरें आ रही थीं। आपके स्वरूप रूपी गारुड़ी (साँप का विष उतारने वाले) के द्वारा भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी ने मुझे जिला लिया। आपकी कृपा से मेरा मोह नाश हो गया और मैंने श्री रामजी का अनुपम रहस्य जाना। 

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-५६(56) समाप्त ! 

   

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