अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! अर्जुन से छुटकारा पाकर राक्षस राज रावण निर्वेद रहित हो पुन: सारी पृथ्वी पर विचरण करने लगा। राक्षस हो या मनुष्य, जिसको भी वह बल में बढ़ा-चढ़ा सुनता था, उसी के पास पहुँचकर अभिमानी रावण उसे युद्ध के लिये ललकारता था। तदनन्तर एक दिन वह वाली द्वारा पालित किष्किन्धा पुरी में जाकर सुवर्णमालाधारी बाली को युद्ध के लिये ललकारने लगा।
उस समय युद्ध की इच्छा से आये हुए रावण से वाली के मन्त्री तार, तारा के पिता सुषेण तथा युवराज अङ्गद एवं सुग्रीव ने कहा – राक्षसराज! इस समय वाली तो बाहर गये हुए हैं। वे ही आपकी जोड़ के हो सकते हैं। दूसरा कौन वानर आपके सामने ठहर सकता है। रावण! चारों समुद्रों से सन्ध्योपासन करके वाली अब आते ही होंगे। आप दो घड़ी ठहर जाइये।
‘राजन्! देखिये, ये जो शङ्ख के समान उज्ज्वल हड्डियों के ढेर लग रहे हैं, ये वाली के साथ युद्ध की इच्छा से आये हुए आप-जैसे वीरों के ही हैं। वानर राज वाली के तेज से ही इन सबका अन्त हुआ है। राक्षस रावण! यदि आपने अमृत का रस पी लिया हो तो भी जब आप वाली से टक्कर लेंगे, तब वही आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा।'
‘विश्रवाकुमार! वाली सम्पूर्ण आश्र्चर्य के भण्डार हैं। आप इस समय इनका दर्शन करेंगे। केवल इसी मुहूर्त तक उनकी प्रतीक्षा के लिये ठहरिये; फिर तो आपके लिये जीवन दुर्लभ हो जायेगा। अथवा यदि आपको मरने के लिये बहुत जल्दी लगी हो तो दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाइये। वहाँ आपको पृथ्वी पर स्थित हुए अग्निदेव के समान वाली का दर्शन होगा।'
'तब लोकों को रुलाने वाले रावण ने तार को भला-बुरा कहकर पुष्पकविमान पर आरूढ़ हो दक्षिण समुद्र की ओर प्रस्थान किया। वहाँ रावण ने सुवर्णगिरि के समान ऊँचे वाली को संध्योपासन करते हुए देखा। उनका मुख प्रभातकाल के सूर्य की भाँति अरुण प्रभा से उद्भासित हो रहा था। उन्हें देखकर काजल के समान काला रावण पुष्पक से उतर पड़ा और वाली को पकड़ने के लिये जल्दी-जल्दी उनकी ओर बढ़ने लगा। उस समय वह अपने पैरों की आहट नहीं होने देता था।'
'दैवयोग से वाली ने भी रावण को देख लिया; किंतु वे उसके पापपूर्ण अभिप्राय को जानकर भी घबराये नहीं। जैसे सिंह खरगोश को और गरुड़ सर्प को देखकर भी उसकी परवाह नहीं करता, उसी प्रकार वाली ने पापपूर्ण विचार रखने वाले रावण को देखकर भी चिन्ता नहीं की। उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि जब पापात्मा रावण मुझे पकड़ने की इच्छा से निकट आयेगा, तब मैं इसे काँख में दबाकर लटका लूँगा और इसे लिये दिये शेष तीन महासागरों पर भी हो आऊँगा।'
'इसकी जाँघ, हाथ-पैर और वस्त्र खिसकते होंगे। यह मेरी काँख में दबा होगा और उस दशा में लोग मेरे शत्रु को गरुड़ के पंजे में दबे हुए सर्प के समान लटकते देखेंगे। ऐसा निश्चय करके वाली मौन ही रहे और वैदिक मन्त्रों का जप करते हुए गिरिराज सुमेरु की भाँति खड़े रहे। इस प्रकार बल के अभिमान से भरे हुए वे वानरराज और राक्षसराज दोनों एक-दूसरे को पकड़ना चाहते थे। दोनों ही इसके लिये प्रयत्नशील थे और दोनों ही वह काम बनाने की घात में लगे थे।'
'रावण के पैरों की हलकी-सी आहट से वाली यह समझ गये कि अब रावण हाथ बढ़ाकर मुझे पकड़ना चाहता है। फिर तो दूसरी ओर मुँह किये होने पर भी वाली ने उसे उसी तरह सहसा पकड़ लिया, जैसे गरुड़ सर्प को दबोच लेता है। पकड़ने की इच्छावाले उस राक्षसराज को वाली ने स्वयं ही पकड़कर अपनी काँख में लटका लिया और बड़े वेग से वे आकाश में उछले।'
'रावण अपने नखों से बारम्बार वाली को बकोटता और पीड़ा देता रहा, तो भी जैसे वायु बादलों को उड़ा ले जाती है, उसी प्रकार वाली रावण को बगल में दबाये लिये फिरते थे। इस प्रकार रावण के हर लिये जाने पर उसके मन्त्री उसे वाली से छुड़ाने के लिये कोलाहल करते हुए उनके पीछे- पीछे दौड़ते रहे। पीछे-पीछे राक्षस चलते थे और आगे-आगे वाली। इस अवस्था में वे आकाश के मध्यभाग में पहुँचकर मेघसमूहों से अनुगत हुए आकाशवर्ती अंशुमाली सूर्य के समान शोभा पाते थे।'
वे श्रेष्ठ राक्षस बहुत प्रयत्न करने पर भी वाली के पास तक न पहुँच सके। उनकी भुजाओं और जाँघों के वेग से उत्पन्न हुई वायु के थपेड़ों से थककर वे खड़े हो गये। वाली के मार्ग से उड़ते हुए बड़े- बड़े पर्वत भी हट जाते थे; फिर रक्त-मांसमय शरीर धारण करने वाला और जीवन की रक्षा चाहने वाला प्राणी उनके मार्ग से हट जाये, इसके लिये तो कहना ही क्या है।'
'जितनी देर में बाली समुद्रों तक पहुँचते थे, उतनी देर में तीव्रगामी पक्षियों के समूह भी नहीं पहुँच पाते थे। उन महावेगशाली वानरराज ने क्रमश: सभी समुद्रों के तट पर पहुँचकर संध्या-वन्दन किया। समुद्रों की यात्रा करते हुए आकाशचारियों में श्रेष्ठ वाली की सभी खेचर प्राणी पूजा एवं प्रशंसा करते थे। वे रावण को बगल में दबाये हुए पश्चिम समुद्र के तट पर आये।'
'वहाँ स्नान, संध्योपासन और जप करके वे वानर वीर दशानन को लिये दिये उत्तर समुद्र के तटपर जा पहुँचे। वायु और मन के समान वेग वाले वे महावानर वाली कई सहस्र योजन तक रावण को ढोते रहे। फिर अपने उस शत्रु के साथ ही वे उत्तर समुद्र के किनारे गये। उत्तर सागर के तट पर संध्योपासना करके दशानन का भार वहन करते हुए वाली पूर्व दिशावर्ती महासागर के किनारे गये। वहाँ भी संध्योपासना सम्पन्न करके वे इन्द्रपुत्र वानर राज वाली दशमुख रावण को बगल में दबाये फिर किष्किन्धा पुरी के निकट आये।'
इस तरह चारों समुद्रों में संध्योपासना का कार्य पूरा करके रावण को ढोने के कारण थके हुए वानर राज वाली किष्किन्धा के उपवन में आ पहुँचे। वहाँ आकर उन कपिश्रेष्ठ ने रावण को अपनी काँख से छोड़ दिया और बारम्बार हँसते हुए पूछा - कहो जी, तुम कहाँ से आये हो।
रावण की आँखें श्रम के कारण चञ्चल हो रही थीं। वाली के इस अद्भुत पराक्रम को देखकर उसे महान् आश्चर्य हुआ और उस राक्षसराज ने उन वानर राज से इस प्रकार कहा - महेन्द्र के समान पराक्रमी वानरेन्द्र ! मैं राक्षसेन्द्र रावण हूँ और युद्ध करने की इच्छा से यहाँ आया था, सो वह युद्ध तो आपसे मिल ही गया। अहो! आप में अद्भुत बल है, अद्भुत पराक्रम है और आश्चर्यजनक गम्भीरता है। आपने मुझे पशु की तरह पकड़कर चारों समुद्रों पर घुमाया है।
‘वानरवीर! तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा शूरवीर होगा, जो मुझे इस प्रकार बिना थके-माँदे शीघ्रतापूर्वक ढो सके। वानरराज! ऐसी गति तो मन, वायु और गरुड़ - इन तीन भूतों की ही सुनी गयी है। नि:संदेह इस जगत में चौथे आप भी ऐसे तीव्र वेगवाले हैं। कपिश्रेष्ठ! मैंने आपका बल देख लिया। अब मैं अग्नि को साक्षी बनाकर आपके साथ सदा के लिये स्नेहपूर्ण मित्रता कर लेना चाहता हूँ। वानरराज! स्त्री, पुत्र, नगर, राज्य, भोग, वस्त्र और भोजन – इन सभी वस्तुओं पर हम दोनों का साझे का अधिकार होगा।'
'तब वानरराज और राक्षसराज दोनों ने अग्नि प्रज्वलित करके एक-दूसरे को हृदय से लगाकर आपस में भाईचारे का सम्बन्ध जोड़ा। फिर वे दोनों वानर और राक्षस एक-दूसरेका हाथ पकड़े बड़ी प्रसन्नता के साथ किष्किन्धा पुरी के भीतर गये, मानो दो सिंह किसी गुफा में प्रवेश कर रहे हों। रावण वहाँ सुग्रीव की तरह सम्मानित हो महीने भर रहा। फिर तीनों लोकों को उखाड़ फेंकने की इच्छा रखने वाले उसके मन्त्री आकर उसे लिवा ले गये।'
'प्रभो! इस प्रकार यह घटना पहले घटित हो चुकी है। वाली ने रावण को हराया और फिर अग्नि के समीप उसे अपना भाई बना लिया। श्रीराम ! वाली में बहुत अधिक और अनुपम बल था, परंतु आपने उसको भी अपनी बाणाग्नि से उसी तरह दग्ध कर डाला, जैसे आग पतिंगे को जला देती है ।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-५५(55) समाप्त !
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