अगस्त्यजी कहते हैं - श्रीराम ! रावण को पकड़ लेना वायु को पकड़ने के समान था। धीरे-धीरे यह बात स्वर्ग में देवताओं के मुख से पुलस्त्यजी ने सुनी। यद्यपि वे महर्षि महान् धैर्यशाली थे तो भी संतान के प्रति होनेवाले स्नेह के कारण कृपा परवश हो गये और माहिष्मती नरेश से मिलने के लिये भूतल पर चले आये।
'उनका वेग वायु के समान था और गति मन के समान, वे ब्रह्मर्षि वायुपथ का आश्रय ले माहिष्मती पुरी में आ पहुँचे। जैसे ब्रह्माजी इन्द्र की अमरावतीपुरी में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार पुलस्त्यजी ने हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरी हुई और अमरावती के समान शोभा से सम्पन्न माहिष्मती नगरी में प्रवेश किया।'
'आकाश से उतरते समय वे पैरों से चलकर आते हुए सूर्य के समान जान पड़ते थे। अत्यन्त तेज के कारण उनकी ओर देखना बहुत ही कठिन जान पड़ता था। अर्जुन के सेवकों ने उन्हें पहचानकर राजा अर्जुन को उनके शुभागमन की सूचना दी। सेवकों के कहने से जब हैहयराज को यह पता चला कि पुलस्त्यजी पधारे हैं, तब वे सिर पर अञ्जलि बाँधे उन तपस्वी मुनि की अगवानी के लिये आगे बढ़ आये।'
'राजा अर्जुन के पुरोहित अर्घ्य और मधुपर्क आदि लेकर उनके आगे-आगे चले, मानो इन्द्र के आगे बृहस्पति चल रहे हों। वहाँ आते हुए वे महर्षि उदित होते हुए सूर्य के समान तेजस्वी दिखायी देते थे। उन्हें देखकर राजा अर्जुन चकित रह गया। उसने उन ब्रह्मर्षि के चरणों में उसी तरह आदरपूर्वक प्रणाम किया, जैसे इन्द्र ब्रह्माजी के आगे मस्तक झुकाते हैं।'
ब्रह्मर्षि को पाद्य, अर्घ्य, मधुपर्क और गौ समर्पित करके राजाधिराज अर्जुन ने हर्षगद्गद वाणी में पुलस्त्यजी से कहा - द्विजेन्द्र! आपका दर्शन परम दुर्लभ है, तथापि आज मैं आपके दर्शन का सुख उठा रहा हूँ। इस प्रकार यहाँ पधारकर आपने इस माहिष्मती पुरी को अमरावतीपुरी के समान गौरवशालिनी बना दिया।
‘देव! आज मैं आपके देववन्द्य चरणों की वन्दना कर रहा हूँ; अतः आज ही मैं वास्तव में सकुशल हूँ। आज मेरा व्रत निर्विघ्न पूर्ण हो गया। आज ही मेरा जन्म सफल हुआ और तपस्या भी सार्थक हो गयी। ब्रह्मन् ! यह राज्य, ये स्त्री- पुत्र और हम सब लोग आपके ही हैं। आप आज्ञा दीजिये। हम आपकी क्या सेवा करें?'
तब पुलस्त्यजी हैयराज अर्जुन के धर्म, अग्नि और पुत्रों का कुशल- समाचार पूछकर उससे इस प्रकार बोले - पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाले कमलनयन नरेश ! तुम्हारे बल की कहीं तुलना नहीं है; क्योंकि तुमने दशग्रीव को जीत लिया। जिसके भय से समुद्र और वायु भी चञ्चलता छोड़कर सेवा में उपस्थित होते हैं, उस मेरे रणदुर्जय पौत्र को तुमने संग्राम में बाँध लिया।
'ऐसा करके तुम मेरे इस बच्चे का यश पी गये और सर्वत्र अपने नाम का ढिंढोरा पीट दिया। वत्स ! अब मेरे कहने से तुम दशानन को छोड़ दो। यह तुमसे मेरी याचना है।'
'पुलस्त्यजी की इस आज्ञा को शिरोधार्य करके अर्जुन ने इसके विपरीत कोई बात नहीं कही। उस राजाधिराज ने बड़ी प्रसन्नता के साथ राक्षसराज रावण को बन्धन से मुक्त कर दिया। उस देवद्रोही राक्षस को बन्धनमुक्त करके अर्जुन ने दिव्य आभूषण, माला और वस्त्रों से उसका पूजन किया और अग्नि को साक्षी बनाकर उसके साथ ऐसी मित्रता का सम्बन्ध स्थापित किया, जिसके द्वारा किसी की हिंसा न हो (अर्थात् उन दोनों ने यह प्रतिज्ञा की कि हमलोग अपनी मैत्री का उपयोग दूसरे प्राणियों की हिंसा में नहीं करेंगे)। इसके बाद ब्रह्मपुत्र पुलस्त्यजी को प्रणाम करके राजा अर्जुन अपने घर को लौट गया।'
'इस प्रकार अर्जुन द्वारा आतिथ्य सत्कार करके छोड़े गये प्रतापी राक्षसराज रावण को पुलस्त्यजी ने हृदय से लगा लिया, परंतु वह पराजय के कारण लज्जित ही रहा। दशग्रीव को छुड़ाकर ब्रह्माजी के पुत्र मुनिवर पुलस्त्यजी पुनः ब्रह्मलोक को चले गये।'
'इस प्रकार रावण को कार्तवीर्य अर्जुन के हाथ से पराजित होना पड़ा था और फिर पुलस्त्यजी के कहने से उस महाबली राक्षस को छुटकारा मिला था। आगे चलकर इसी सहस्रबाहु का भगवान परशुराम से विरोध हुआ और यह अर्जुन उन्ही के हाथों मारा गया। जिसके बारे में आप पहले से जानते है।' (अध्याय-२ वंश चरित्र भाग-45)
'रघुकुलनन्दन! इस प्रकार संसार में बलवान् से बलवान् वीर पड़े हुए हैं; अतः जो अपना कल्याण चाहे उसे दूसरे की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। सहस्रबाहु की मैत्री पाकर राक्षसों का राजा रावण पुन: घमंड से भरकर सारी पृथ्वी पर विचरने और नरेशों का संहार करने लगा।
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