भाग-५४(54) गरुड़जी का काकभुशुण्डि से रामकथा और राम महिमा सुनना

 


गरुड़ को काकभुशुण्डि के पास जाकर सत्संग सुनने का परामर्श देने के पश्चात शिवजी कहते हैं - हे उमा! मैंने (गरुड़) उसको इसीलिए नहीं समझाया कि मैं श्री रघुनाथजी की कृपा से उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान श्री रामजी नष्ट करना चाहते हैं। फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी पक्षी की ही बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभु की माया बड़ी ही बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले? जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान्‌ के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं। 

'यह माया जब शिवजी और ब्रह्माजी को भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा क्या चीज है? जी में ऐसा जानकर ही मुनि लोग उस माया के स्वामी भगवान्‌ का भजन करते हैं। गरुड़जी वहाँ गए जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्ति वाले काकभुशुण्डि बसते थे। उस पर्वत को देखकर उनका मन प्रसन्न हो गया और उसके दर्शन से ही सब माया, मोह तथा सोच जाता रहा। तालाब में स्नान और जलपान करके वे प्रसन्नचित्त से वटवृक्ष के नीचे गए। वहाँ श्री रामजी के सुंदर चरित्र सुनने के लिए बूढ़े-बूढ़े पक्षी आए हुए थे। भुशुण्डिजी कथा आरंभ करना ही चाहते थे कि उसी समय पक्षीराज गरुड़जी वहाँ जा पहुँचे। पक्षियों के राजा गरुड़जी को आते देखकर काकभुशुण्डिजी सहित सारा पक्षी समाज हर्षित हुआ।'

उन्होंने पक्षीराज गरुड़जी का बहुत ही आदर-सत्कार किया और स्वागत (कुशल) पूछकर बैठने के लिए सुंदर आसन दिया। फिर प्रेम सहित पूजा कर के कागभुशुण्डिजी मधुर वचन बोले - हे नाथ ! हे पक्षीराज ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें मैं अब वही करूँ। हे प्रभो ! आप किस कार्य के लिए आए हैं ? 

पक्षीराज गरुड़जी ने कोमल वचन कहे - आप तो सदा ही कृतार्थ रूप हैं, जिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजी ने आदरपूर्वक अपने श्रीमुख से की है। हे तात! सुनिए, मैं जिस कारण से आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गए। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह संदेह और अनेक प्रकार के भ्रम सब जाते रहे। अब हे तात! आप मुझे श्री रामजी की अत्यंत पवित्र करने वाली, सदा सुख देने वाली और दुःख समूह का नाश करने वाली कथा सादर सहित सुनाएँ। हे प्रभो! मैं बार-बार आप से यही विनती करता हूँ। 

'गरुड़जी की विनम्र, सरल, सुंदर प्रेमयुक्त, सुप्रद और अत्यंत पवित्र वाणी सुनते ही भुशण्डिजी के मन में परम उत्साह हुआ और वे श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहने लगे। हे भवानी! पहले तो उन्होंने बड़े ही प्रेम से रामचरित मानस सरोवर का रूपक समझाकर कहा। फिर नारदजी का अपार मोह और फिर रावण का अवतार कहा। फिर प्रभु के अवतार की कथा वर्णन की। तदनन्तर मन लगाकर श्री रामजी की बाल लीलाएँ कहीं।'

'मन में परम उत्साह भरकर अनेकों प्रकार की बाल लीलाएँ कहकर, फिर ऋषि विश्वामित्रजी का अयोध्या आना और श्री रघुवीरजी का विवाह वर्णन किया। फिर श्री रामजी के राज्याभिषेक का प्रसंग फिर राजा दशरथजी के वचन से राजरस (राज्याभिषेक के आनंद) में भंग पड़ना, फिर नगर निवासियों का विरह, विषाद और श्री राम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा। श्री राम का वनगमन, केवट का प्रेम, गंगाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्री रामजी का मिलन और जैसे भगवान्‌ चित्रकूट में बसे, वह सब कहा।'

'फिर मंत्री सुमंत्रजी का नगर में लौटना, राजा दशरथजी का मरण, भरतजी का (ननिहाल से) अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजा की अन्त्येष्टि क्रिया करके नगर निवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गए जहाँ सुख की राशि प्रभु श्री रामचंद्रजी थे। फिर श्री रघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया, जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आए, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दीग्राम में रहने की रीति, इंद्रपुत्र जयंत की नीच करनी और फिर प्रभु श्री रामचंद्रजी और अत्रिजी का मिलाप वर्णन किया।'

'जिस प्रकार विराध का वध हुआ और शरभंगजी ने शरीर त्याग किया, वह प्रसंग कहकर, फिर सुतीक्ष्णजी का प्रेम वर्णन करके प्रभु और अगस्त्यजी का सत्संग वृत्तान्त कहा। दंडकवन का पवित्र करना कहकर फिर भुशुण्डिजी ने गृध्रराज के साथ मित्रता का वर्णन किया। फिर जिस प्रकार प्रभु ने पंचवटी में निवास किया और सब मुनियों के भय का नाश किया, और फिर जैसे लक्ष्मणजी को अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखा को कुरूप किया, वह सब वर्णन किया। फिर खर-दूषण वध और जिस प्रकार रावण ने सब समाचार जाना, वह बखानकर कहा, तथा जिस प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुई, वह सब उन्होंने कही। फिर माया सीता का हरण और श्री रघुवीर के विरह का कुछ वर्णन किया।'

'फिर प्रभु ने गिद्ध जटायु की जिस प्रकार क्रिया की, कबन्ध का वध करके शबरी को परमगति दी और फिर जिस प्रकार विरह वर्णन करते हुए श्री रघुवीरजी पंपासर के तीर पर गए, वह सब कहा। प्रभु और नारदजी का संवाद और मारुति के मिलने का प्रसंग कहकर फिर सुग्रीव से मित्रता और बालि के प्राणनाश का वर्णन किया। सुग्रीव का राजतिलक करके प्रभु ने प्रवर्षण पर्वत पर निवास किया, वह तथा वर्षा और शरद् का वर्णन, श्री रामजी का सुग्रीव पर रोष और सुग्रीव का भय आदि प्रसंग कहे।'

'जिस प्रकार वानरराज सुग्रीव ने वानरों को भेजा और वे सीताजी की खोज में जिस प्रकार सब दिशाओं में गए, जिस प्रकार उन्होंने बिल में प्रवेश किया और फिर जैसे वानरों को सम्पाती मिला, वह कथा कही। सम्पाती से सब कथा सुनकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी जिस तरह अपार समुद्र को लाँघ गए, फिर हनुमान्‌जी ने जैसे लंका में प्रवेश किया और फिर जैसे सीताजी को धीरज दिया, सो सब कहा। अशोक वन को उजाड़कर, रावण को समझाकर, लंकापुरी को जलाकर फिर जैसे उन्होंने समुद्र को लाँघा और जिस प्रकार सब वानर वहाँ आए जहाँ श्री रघुनाथजी थे और आकर श्री जानकीजी की कुशल सुनाई, फिर जिस प्रकार सेना सहित श्री रघुवीर जाकर समुद्र के तट पर उतरे और जिस प्रकार विभीषणजी आकर उनसे मिले, वह सब और समुद्र के बाँधने की कथा उसने सुनाई।'

'पुल बाँधकर जिस प्रकार वानरों की सेना समुद्र के पार उतरी और जिस प्रकार वीर श्रेष्ठ बालिपुत्र अंगद दूत बनकर गए वह सब कहा। फिर राक्षसों और वानरों के युद्ध का अनेकों प्रकार से वर्णन किया। फिर कुंभकर्ण और मेघनाद के बल, पुरुषार्थ और संहार की कथा कही। नाना प्रकार के राक्षस समूहों के मरण तथा श्री रघुनाथजी और रावण के अनेक प्रकार के युद्ध का वर्णन किया। रावण वध, मंदोदरी का शोक, विभीषण का राज्याभिषेक और देवताओं का शोकरहित होना कहकर, फिर सीताजी और श्री रघुनाथजी का मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओं ने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे वानरों समेत पुष्पक विमान पर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरी को चले, वह कहा। जिस प्रकार श्री रामचंद्रजी अपने नगर (अयोध्या) में आए, वे सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुण्डिजी ने विस्तारपूर्वक वर्णन किए। फिर उन्होंने श्री रामजी का राज्याभिषेक कहा।' 

शिवजी कहते हैं - अयोध्यापुरी का और अनेक प्रकार की राजनीति का वर्णन करते हुए - भुशुण्डिजी ने वह सब कथा कही जो हे भवानी! मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर गरुड़जी मन में बहुत उत्साहित (आनंदित) होकर वचन कहने लगे - श्री रघुनाथजी के सब चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा संदेह जाता रहा। हे काकशिरोमणि! आपके अनुग्रह से श्री रामजी के चरणों में मेरा प्रेम हो गया। युद्ध में प्रभु का नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था कि श्री रामजी तो सच्चिदानंदघन हैं, वे किस कारण व्याकुल हैं। बिलकुल ही लौकिक मनुष्यों का सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया। मैं अब उस भ्रम (संदेह) को अपने लिए हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझ पर यह बड़ा अनुग्रह किया। 

'जो धूप से अत्यंत व्याकुल होता है, वही वृक्ष की छाया का सुख जानता है। हे तात! यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता? और कैसे अत्यंत विचित्र यह सुंदर हरिकथा सुनता, जो आपने बहुत प्रकार से गाई है? वेद, शास्त्र और पुराणों का यही मत है, सिद्ध और मुनि भी यही कहते हैं, इसमें संदेह नहीं कि - शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैं, जिसे श्री रामजी कृपा करके देखते हैं। श्री रामजी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया।'

'पक्षीराज गरुड़जी की विनय और प्रेमयुक्त वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी का शरीर पुलकित हो गया, उनके नेत्रों में जल भर आया और वे मन में अत्यंत हर्षित हुए। हे उमा! सुंदर बुद्धि वाले सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन अत्यंत गोपनीय सबके सामने प्रकट न करने योग्य रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं। 

काकभुशुण्डिजी ने फिर कहा- पक्षीराज पर उनका प्रेम कम न था (अर्थात्‌ बहुत था)- हे नाथ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्री रघुनाथजी के कृपापात्र हैं। आपको न संदेह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझ पर दया की है। हे पक्षीराज! मोह के बहाने श्री रघुनाथजी ने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है। हे पक्षियों के स्वामी! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाईं! यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारदजी, शिवजी, ब्रह्माजी और सनकादि जो आत्मतत्त्व के मर्मज्ञ और उसका उपदेश करने वाले श्रेष्ठ मुनि हैं। 

'उनमें से भी किस-किस को मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया? जगत्‌ में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया? क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया? इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडंबना (मिट्टी पलीद) न की हो। लक्ष्मी के मद ने किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है जिसे मृगनयनी (युवती स्त्री) के नेत्र बाण न लगे हों।'

'रज, तम आदि गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं किया? ममता ने किस के यश का नाश नहीं किया? मत्सर (डाह) ने किसको कलंक नहीं लगाया? शोक रूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया? चिंता रूपी साँपिन ने किसे नहीं खा लिया? जगत में ऐसा कौन है, जिसे माया न व्यापी हो? मनोरथ क्रीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान्‌ कौन है, जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की, इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?'

'माया की प्रचंड सेना संसार भर में छाई हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दम्भ, कपट और पाखंड योद्धा हैं। वह माया श्री रघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही है, किंतु वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ। जो माया सारे जगत्‌ को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसी ने नहीं लख पाया, हे खगराज गरुड़जी! वही माया प्रभु श्री रामचंद्रजी की भृकुटी के इशारे पर अपने समाज (परिवार) सहित नटी की तरह नाचती है।'

'श्री रामजी वही सच्चिदानंदघन हैं जो अजन्मे, विज्ञानस्वरूप, रूप और बल के धाम, सर्वव्यापक एवं व्याप्य (सर्वरूप), अखंड, अनंत, संपूर्ण, अमोघशक्ति (जिसकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती) और छह ऐश्वर्यों से युक्त भगवान्‌ हैं। वे निर्गुण (माया के गुणों से रहित), महान्‌, वाणी और इंद्रियों से परे, सब कुछ देखने वाले, निर्दोष, अजेय, ममतारहित, निराकार (मायिक आकार से रहित), मोहरहित, नित्य, मायारहित, सुख की राशि, प्रकृति से परे, प्रभु (सर्वसमर्थ), सदा सबके हृदय में बसने वाले, इच्छारहित विकाररहित, अविनाशी ब्रह्म हैं। यहाँ (श्री राम में) मोह का कारण ही नहीं है। क्या अंधकार का समूह कभी सूर्य के सामने जा सकता है?'

'भगवान्‌ प्रभु श्री रामचंद्रजी ने भक्तों के लिए राजा का शरीर धारण किया और साधारण मनुष्यों के से अनेकों परम पावन चरित्र किए। जैसे कोई नट (खेल करने वाला) अनेक वेष धारण करके नृत्य करता है और वही-वही (जैसा वेष होता है, उसी के अनुकूल) भाव दिखलाता है, पर स्वयं वह उनमें से कोई हो नहीं जाता, हे गरुड़जी! ऐसी ही श्री रघुनाथजी की यह लीला है, जो राक्षसों को विशेष मोहित करने वाली और भक्तों को सुख देने वाली है। हे स्वामी! जो मनुष्य मलिन बुद्धि, विषयों के वश और कामी हैं, वे ही प्रभु पर इस प्रकार मोह का आरोप करते हैं।'

'जब जिसको कवँल आदि नेत्र दोष होता है, तब वह चंद्रमा को पीले रंग का कहता है। हे पक्षीराज! जब जिसे दिशाभ्रम होता है, तब वह कहता है कि सूर्य पश्चिम में उदय हुआ है। नौका पर चढ़ा हुआ मनुष्य जगत को चलता हुआ देखता है और मोहवश अपने को अचल समझता है। बालक घूमते (चक्राकार दौड़ते) हैं, घर आदि नहीं घूमते। पर वे आपस में एक-दूसरे को झूठा कहते हैं।'

'हे गरुड़जी! श्री हरि के विषय में मोह की कल्पना भी ऐसी ही है, भगवान्‌ में तो स्वप्न में भी अज्ञान का प्रसंग (अवसर) नहीं है, किंतु जो माया के वश, मंदबुद्धि और भाग्यहीन हैं और जिनके हृदय पर अनेकों प्रकार के परदे पड़े हैं, वे मूर्ख हठ के वश होकर संदेह करते हैं और अपना अज्ञान श्री रामजी पर आरोपित करते हैं। जो काम, क्रोध, मद और लोभ में रत हैं और दुःख रूप घर में आसक्त हैं, वे श्री रघुनाथजी को कैसे जान सकते हैं? वे मूर्ख तो अंधकार रूपी कुएँ में पड़े हुए हैं। निर्गुण रूप अत्यंत सुलभ (सहज ही समझ में आ जाने वाला) है, परंतु (गुणातीत दिव्य) सगुण रूप को कोई नहीं जानता, इसलिए उन सगुण भगवान्‌ के अनेक प्रकार के सुगम और अगम चरित्रों को सुनकर मुनियों के भी मन को भ्रम हो जाता है।      

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-५४(54) समाप्त !

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