भाग-५३(53) रावण आदि निशाचरों का सहस्रार्जुन के साथ युद्ध तथा अर्जुन का रावण को कैद करके अपने नगर में ले जाना

 


अगस्त्यजी कहते हैं - हे रघुनन्दन ! नर्मदाजी के तट पर जहाँ क्रूर राक्षसराज रावण महादेवजी को फूलों का उपहार अर्पित कर रहा था, उस स्थान से थोड़ी दूर पर विजयी वीरों में श्रेष्ठ माहिष्मती पुरी का शक्तिशाली राजा अर्जुन (सहस्रार्जुन/सहस्रबाहु) अपनी स्त्रियों के साथ नर्मदा के जल में उतरकर क्रीडा कर रहा था। उन सुन्दरियों के बीच में विराजमान राजा अर्जुन सहस्रों हथिनियों के मध्यभाग में स्थित हुए गजराज के समान शोभा पाता था। 

'अर्जुन के हजार भुजाएँ थीं। उनके उत्तम बल को जाँचने के लिये उसने उन बहुसंख्यक भुजाओं द्वारा नर्मदा वेग को रोक दिया। कृतवीर्य-पुत्र अर्जुन की भुजाओं द्वारा रोका हुआ नर्मदा का वह निर्मल जल तट पर पूजा 'करते हुए रावण के पास तक पहुँच गया और उसी ओर उलटी गति से बहने लगा।' 

'नर्मदा के जल का वह वेग मत्स्य, नक्र, मगर, फूल और कुशास्तरण के साथ बढ़ने लगा। उसमें वर्षाकाल के समान बाढ़ आ गयी। जल का वह वेग, जिसे मानो कार्तवीर्य अर्जुन ने ही भेजा हो, रावण के समस्त पुष्पोपहार को बहा ले गया। रावण का वह पूजन-सम्बन्धी नियम अभी आधा ही समाप्त हुआ था, उसी दशा में उसे छोड़कर वह प्रतिकूल हुई कमनीय कान्तिवाली प्रेयसी की भाँति नर्मदा की ओर देखने लगा।' 

‘पश्चिम से आते और पूर्व दिशा में प्रवेश करके बढ़ते हुए जल के उस वेग को उसने देखा। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो समुद्र में ज्वार आ गया हो। उसके तटवर्ती वृक्षों पर रहनेवाले पक्षियों में कोई घबराहट नहीं थी। वह नदी अपनी परम उत्तम स्वाभाविक स्थिति में स्थित थी। उसका जल पहले ही जैसा स्वच्छ एवं निर्मल दिखायी देता था। उसमें वर्षाकालिक बाढ़ के समय जो मलिनता आदि विकार होते थे, उनका उस समय सर्वथा अभाव था। रावण ने उस नदी को विकारशून्य हृदयवाली नारी के समान देखा।'

'उसके मुख से एक शब्द भी नहीं निकला। उसने मौनव्रत की रक्षा के लिये बिना बोले ही दाहिने हाथ की अङ्गुली से संकेत मात्र करके बाढ़ के कारण का पता लगाने के निमित्त शुक और सारण को आदेश दिया। रावण का आदेश पाकर दोनों वीर भ्राता शुक और सारण आकाशमार्ग से पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थित हुए। केवल आधा योजन जाने पर ही उन दोनों निशाचरों ने एक पुरुष को स्त्रियों के साथ जल में क्रीडा करते देखा।' 

‘उसका शरीर विशाल सालवृक्ष के समान ऊँचा था। उसके केश जलसे ओतप्रोत हो रहे थे। नेत्रप्रान्त में मद की लाली दिखायी दे रही थी और चित्त भी मद से व्याकुल जान पड़ता था। वह शत्रुमर्दन वीर अपनी सहस्र भुजाओं से नदी के वेग को रोककर सहस्रों चरणों से पृथ्वी को थामे रखने वाले पर्वत के समान शोभा पाता था। नयी अवस्था की सहस्रों सुन्दरियाँ उसे घेरे हुए ऐसी जान पड़ती थीं, मानो सहस्रों मदमत्त हथिनियों ने किसी गजराज को घेर रखा हो।' 

उस परम अद्भुत दृश्य को देखकर राक्षस शुक और सारण लौट आये और रावण के पास जाकर बोले - राक्षसराज! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर कोई सालवृक्ष के समान विशालकाय पुरुष है, जो बाँध की तरह नर्मदा के जल को रोककर स्त्रियों के साथ क्रीडा कर रहा है। उसकी सहस्र भुजाओं से नदी का जल रुक गया है। इसीलिये यह बारम्बार समुद्र के ज्वार की भाँति जल के उद्गार की सृष्टि कर रही है। 

इस प्रकार कहते हुए शुक और सारण की बातें सुनकर रावण बोल उठा -  वही अर्जुन है' ऐसा कहकर वह युद्ध की लालसा से उसी ओर चल दिया। 

‘राक्षसराज रावण जब अर्जुन की ओर चला, तब धूल और भारी कोलाहल के साथ वायु प्रचण्ड वेग से चलने लगी। बादलों ने रक्तबिन्दुओं की वर्षा करके एक बार ही बड़े जोर से गर्जना की। इधर राक्षसराज रावण महोदर, महापार्श्व, धूम्राक्ष, शुक और सारण को साथ ले उस स्थान की ओर चला, जहाँ अर्जुन क्रीडा कर रहा था। काजल या कोयले के समान काला वह बलवान् राक्षस थोड़ी ही देर में नर्मदा के उस भयंकर जलाशय के पास जा पहुँचा। वहाँ पहुँचकर राक्षसों के राजा रावण ने कामुकता की इच्छावाली हथिनियों से घिरे हुए गजराज के समान सुन्दरी स्त्रियों से परिवेष्टित महाराज अर्जुन को देखा। 

उसे देखते ही रावण के नेत्र रोष से लाल हो गये। अपने बल के घमंड से उद्दण्ड हुए राक्षसराज ने अर्जुन के मन्त्रियों से गम्भीर वाणी में इस प्रकार कहा – मन्त्रियो! तुम हैहयराज से जल्दी जाकर कहो कि रावण तुम से युद्ध करने के लिये आया है। 

रावण की बात सुनकर अर्जुन के वे मन्त्री हथियार लेकर खड़े हो गये और रावण से इस प्रकार बोले - वाह रे रावण ! वाह! तुम्हें युद्ध के अवसर का अच्छा ज्ञान है। हमारे महाराज जब मदमत्त होकर स्त्रियों के बीच में क्रीडा कर रहे हैं, ऐसे समय में तुम उनके साथ युद्ध करने के लिये उत्साहित हो रहे हो। जैसे कोई व्याघ्र कामवासना से वासित हथिनियों के बीच में खड़े हुए गजराज से जूझना चाहता हो, उसी प्रकार तुम स्त्रियों के समक्ष क्रीडा - विलास में तत्पर हुए राजा अर्जुन के साथ युद्ध करने का हौसला दिखा रहे हो। 

‘तात! दशग्रीव! यदि तुम्हारे हृदय में युद्ध के लिये उत्साह है, तो रात भर क्षमा करो और आज की रात में यहीं ठहरो। फिर कल सबेरे तुम राजा अर्जुन को समराङ्गण में उपस्थित देखोगे। युद्ध की तृष्णा से घिरे हुए राक्षसराज ! यदि तुम्हें जूझने के लिये बड़ी जल्दी लगी हो तो पहले रणभूमि में हम सबको मार गिराओ। उसके बाद महाराज अर्जुन के साथ युद्ध करने पाओगे।' 

‘यह सुनकर रावण के भूखे मन्त्री युद्धस्थल में अर्जुन के अमात्यों को मार-मारकर खाने लगे। इससे अर्जुन के अनुयायियों तथा रावण के मन्त्रियों का नर्मदा के तटपर बड़ा कोलाहल होने लगा। अर्जुन के योद्धा बाणों, तोमरों, भालों, त्रिशूलों और वज्रकर्षण नामक शस्त्रों द्वारा चारों ओर से धावा करके रावण सहित समस्त राक्षसों को घायल करने लगे। हैहयराज के योद्धाओं का वेग नाकों, मत्स्यों और मगरों सहित समुद्र की भीषण गर्जना के समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था।' 

‘रावण के वे मन्त्री प्रहस्त, शुक और सारण आदि कुपित हो अपने बल पराक्रम से कार्तवीर्य अर्जुन की सेना का संहार करने लगे। तब अर्जुन के सेवकों ने भय से विह्वल होकर क्रीडा में लगे हुए अर्जुन से मन्त्री सहित रावण के उस क्रूर कर्म का समाचार सुनाया।' 

सुनकर अर्जुन ने अपनी स्त्रियों से कहा – 'तुम सब लोग डरना मत। ' फिर उन सबके साथ वह नर्मदा के जल से उसी तरह बाहर निकला, जैसे कोई दिग्गज (हथिनियों के साथ) गङ्गाजी के जल से बाहर निकला हो। उसके नेत्र रोष से रक्तवर्ण के हो गये। वह अर्जुनरूपी अनल प्रलयकाल के महाभयंकर पावक की भाँति प्रज्वलित हो उठा। 

‘सुन्दर सोने का बाजूबंद धारण करनेवाले वीर अर्जुन ने तुरंत ही गदा उठा ली और उन राक्षसों पर आक्रमण किया, मानो सूर्यदेव अन्धकार समूह पर टूट पड़े हों। जो भुजाओं द्वारा घुमायी जाती थी उस विशाल गदा को ऊपर उठाकर गरुड़ के समान तीव्र वेग का आश्रय ले राजा अर्जुन तत्काल ही उन निशाचरों पर टूट पड़ा।' 

'उस समय मूसलधारी प्रहस्त, जो विन्ध्यगिरि के समान अविचल था, उसका मार्ग रोककर खड़ा हो गया। ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकाल में विन्ध्याचल ने सूर्यदेव का मार्ग रोक लिया था। मद से उद्दण्ड हुए प्रहस्त ने कुपित हो अर्जुन पर लोहे से मढ़ा हुआ एक भयंकर मूसल चलाया और काल के समान भीषण गर्जना की। प्रहस्त के हाथ से छूटे हुए उस मूसल के अग्रभाग में अशोक - पुष्प के समान लाल रंग की आग प्रकट हो गयी, जो जलती हुई-सी जान पड़ती थी।' 

‘किंतु कार्तवीर्य अर्जुन को इससे तनिक भी भय नहीं हुआ। उसने अपनी ओर वेग पूर्वक आते हुए उस मूसल को गदा मारकर पूर्णत: विफल कर दिया। तत्पश्चात् गदाधारी हैहयराज, जिसे पाँच सौ भुजाओं से उठाकर चलाया जाता था, उस भारी गदा को घुमाता हुआ प्रहस्त की ओर दौड़ा। उस गदा से अत्यन्त वेगपूर्वक आहत होकर प्रहस्त तत्काल पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो कोई पर्वत वज्रधारी इन्द्र के वज्र का आघात पाकर ढह गया हो। प्रहस्त को धराशायी हुआ देख मारीच, शुक, सारण, महोदर और धूम्राक्ष समराङ्गण से भाग खड़े हुए।' 

‘प्रहस्त के गिरने और अमात्यों के भाग जाने पर रावण ने नृपश्रेष्ठ अर्जुन पर तत्काल धावा किया। फिर तो हजार भुजाओं वाले नरनाथ और बीस भुजाओं वाले निशाचरनाथ में वहाँ भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। विक्षुब्ध हुए दो समुद्रों, जिनकी जड़ हिल रही हों ऐसे दो पर्वतों, दो तेजस्वी आदित्यों, दो दाहक अग्नियों, बल से उन्मत्त हुए दो गजराजों, कामवासना वाली गाय के लिये लड़ने वाले दो साँड़ों, जोर-जोर से गर्जने वाले दो मेघों, उत्कट बलशाली दो सिंहों तथा क्रोध से भरे हुए रुद्र और कालदेव के समान वे रावण और अर्जुन गदा लेकर एक-दूसरे पर गहरी चोटें करने लगे।' 

‘जैसे पूर्वकाल में पर्वतों ने वज्र के भयंकर आघात सहे थे, उसी प्रकार वे अर्जुन और रावण वहाँ गदाओं के प्रहार सहन करते थे। जैसे बिजली की कड़क से सम्पूर्ण दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठती हैं, उसी प्रकार उन दोनों वीरों की गदाओं के आघातों से सभी दिशाएँ गूंजने लगीं। जैसे बिजली चमककर आकाश को सुनहरे रंग से युक्त कर देती है, उसी प्रकार रावण की छाती पर गिरायी जाती हुई अर्जुन की गदा उसके वक्ष:स्थल को सुवर्णकी-सी प्रभा से पूर्ण कर देती थी।' 

'उसी प्रकार रावण के द्वारा भी अर्जुन की छाती पर बारम्बार गिरायी जाती हुई गदा किसी महान् पर्वत पर गिरने वाली उल्का के समान प्रकाशित हो उठती थी। उस समय न तो अर्जुन थकता था और न राक्षसगणों का राजा रावण ही। पूर्वकाल में परस्पर जूझने वाले इन्द्र और बलि की भाँति उन दोनों का युद्ध एक समान जान पड़ता था।' 

‘जैसे साँड़ अपने सींगों से और हाथी अपने दाँतों के अग्रभाग से परस्पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार वे नरेश और निशाचर राज एक-दूसरे पर गदाओं से चोट करते थे। इसी बीच में अर्जुन ने कुपित होकर रावण के विशाल वक्ष:स्थल पर दोनों स्तनों के बीच में अपनी पूरी शक्ति से गदा का प्रहार किया। परंतु रावण तो वर के प्रभाव से सुरक्षित था, अतः रावण की छाती पर वेगपूर्वक चोट करके भी वह गदा किसी दुर्बल गदा की भाँति उसके वक्ष की टक्कर से दो टूक होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी।' 

‘तथापि अर्जुन की चलायी हुई गदा के आघात से पीड़ित हो रावण एक धनुष पीछे हट गया और आर्तनाद करता हुआ बैठ गया। दशग्रीव को व्याकुल देख अर्जुन ने सहसा उछलकर उसे पकड़ लिया, मानो गरुड़ ने झपट्टा मारकर किसी सर्प को धर दबाया हो। जैसे पूर्वकाल में भगवान् नारायण ने बलि को बाँधा था, उसी तरह बलवान् राजा अर्जुन ने दशानन को बलपूर्वक पकड़कर अपने हजार हाथों के द्वारा उसे मजबूत रस्सों से बाँध दिया।' 

‘दशग्रीव के बाँधे जाने पर सिद्ध, चारण और देवता 'शाबाश! शाबाश!' कहते हुए अर्जुन के सिर पर फूलों की वर्षा करने लगे। जैसे व्याघ्र किसी हिरण को दबोच लेता है अथवा सिंह हाथी को धर दबाता है, उसी प्रकार रावण को अपने वश में करके हैहयराज अर्जुन हर्षातिरेक से मेघ के समान बारम्बार गर्जना करने लगा। इसके बाद प्रहस्त ने होश सँभाला। दशमुख रावण को बँधा हुआ देख वह राक्षस सहसा कुपित हो हैहयराज की ओर दौड़ा।' 

‘जैसे वर्षाकाल आने पर समुद्र में बादलों का वेग बढ़ जाता है, उसी प्रकार वहाँ आक्रमण करते हुए उन निशाचरों का वेग बढ़ा हुआ प्रतीत होता था। छोड़ो, छोड़ो, ठहरो, ठहरो' ऐसा बारम्बार कहते हुए राक्षस अर्जुन की ओर दौड़े। उस समय प्रहस्त ने रणभूमि में अर्जुन पर मूसल और शूल के प्रहार किये। परंतु अर्जुन को उस समय घबराहट नहीं हुई। उस शत्रुसूदन वीर ने प्रहस्त आदि देवद्रोही निशाचरों के छोड़े हुए उन अस्त्रों को अपने शरीर तक आने से पहले ही पकड़ लिया।' 

‘फिर उन्हीं दुर्धर एवं श्रेष्ठ आयुधों से उन सब राक्षसों को घायल करके उसी तरह भगा दिया, जैसे हवा बादलों को छिन्न-भिन्न करके उड़ा ले जाती है। उस समय कार्तवीर्य अर्जुन ने समस्त राक्षसों को भयभीत कर दिया और रावण को लेकर वह अपने सुहृदों के साथ नगर में आया। नगर के निकट आने पर ब्राह्मणों और पुरवासियों ने अपने इन्द्रतुल्य तेजस्वी नरेश पर फूलों और अक्षतों की वर्षा की और सहस्रनेत्रधारी इन्द्र जैसे बलि को बंदी बनाकर ले गये थे, उसी प्रकार उस राजा अर्जुन ने बँधे हुए रावण को साथ लेकर अपनी पुरी में प्रवेश किया।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-५३(53) समाप्त !

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