सूतजी बोले - हे मुनिजनों ! भगवान शिव से श्रीराम की अमृतमयी महिमा सुनकर देवी पार्वती का मोहरूपी अज्ञान जाता रहा। किन्तु उनकी कथा को सुनने की लालसा ओर भी अधिक बढ़ गयी थी।
तब देवी पार्वती प्रभु शिव से आर्तभाव से बोलीं - हे नाथ ! यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। यह सत्य है कि श्री रामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करने वाले हैं। फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए। पार्वती के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपा निधान शिवजी मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले - हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़जी ने सुना था।
तब माता पार्वती ने पूछा - हे नाथ! आपने श्री रामचरित्र गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुंदर कथा काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी से कही थी। सो कौए का शरीर पाकर भी काकभुशुण्डि वैराग्य, ज्ञान और विज्ञान में दृढ़ हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है और उन्हें श्री रघुनाथजी की भक्ति भी प्राप्त है, इस बात का मुझे परम संदेह हो रहा है।
'हे त्रिपुरारि! सुनिए, हजारों मनुष्यों में कोई एक धर्म के व्रत का धारण करने वाला होता है और करोड़ों धर्मात्माओं में कोई एक विषय से विमुख (विषयों का त्यागी) और वैराग्य परायण होता है। श्रुति कहती है कि करोड़ों विरक्तों में कोई एक ही सम्यक् (यथार्थ) ज्ञान को प्राप्त करता है और करोड़ों ज्ञानियों में कोई एक ही जीवन मुक्त होता है। जगत् में कोई विरला ही ऐसा (जीवन मुक्त) होगा। हजारों जीवन मुक्तों में भी सब सुखों की खान, ब्रह्म में लीन विज्ञानवान् पुरुष और भी दुर्लभ है। धर्मात्मा, वैराग्यवान्, ज्ञानी, जीवन मुक्त और ब्रह्मलीन इन सबमें भी हे देवाधिदेव महादेवजी! वह प्राणी अत्यंत दुर्लभ है जो मद और माया से रहित होकर श्री रामजी की भक्ति के परायण हो। हे विश्वनाथ! ऐसी दुर्लभ हरि भक्ति को कौआ कैसे पा गया, मुझे समझाकर कहिए।'
'हे नाथ! कहिए, ऐसे श्री रामपरायण, ज्ञाननिरत, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुण्डिजी ने कौए का शरीर किस कारण पाया? हे कृपालु! बताइए, उस कौए ने प्रभु का यह पवित्र और सुंदर चरित्र कहाँ पाया? और हे कामदेव के शत्रु! यह भी बताइए, आपने इसे किस प्रकार सुना? मुझे बड़ा भारी कौतूहल हो रहा है। गरुड़जी तो महान् ज्ञानी, सद्गुणों की राशि, श्री हरि के सेवक और उनके अत्यंत निकट रहने वाले (उनके वाहन ही) हैं। उन्होंने मुनियों के समूह को छोड़कर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी? कहिए, काकभुशुण्डि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत किस प्रकार हुई?'
पार्वतीजी की सरल, सुंदर वाणी सुनकर शिवजी सुख पाकर आदर के साथ बोले - हे सती! तुम धन्य हो, तुम्हारी बुद्धि अत्यंत पवित्र है। श्री रघुनाथजी के चरणों में तुम्हारा कम प्रेम नहीं है। अपितु अत्यधिक प्रेम है। अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जिसे सुनने से सारे लोक के भ्रम का नाश हो जाता है तथा श्री रामजी के चरणों में विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है।
'पक्षीराज गरुड़जी ने भी जाकर काकभुशुण्डिजी से प्रायः ऐसे ही प्रश्न किए थे। हे उमा! मैं वह सब आदरसहित कहूँगा, तुम मन लगाकर सुनो। मैंने जिस प्रकार वह भव (जन्म-मृत्यु) से छुड़ाने वाली कथा सुनी, हे सुमुखी! हे सुलोचनी! वह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार दक्ष के घर हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था। दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ। तब तुमने अत्यंत क्रोध करके प्राण त्याग दिए थे और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर दिया था। वह सारा प्रसंग तुम जानती ही हो। तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और हे प्रिये! मैं तुम्हारे वियोग से दुःखी हो गया। मैं विरक्त भाव से सुंदर वन, पर्वत, नदी और तालाबों का कौतुक (दृश्य) देखता फिरता था।'
'सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में और भी दूर, एक बहुत ही सुंदर नील पर्वत है। उसके सुंदर स्वर्णमय शिखर हैं, उनमें से चार सुंदर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुंदर तालाब शोभित है, जिसकी मणियों की सीढ़ियाँ देखकर मन मोहित हो जाता है। उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है, उसमें रंग-बिरंगे बहुत से कमल खिले हुए हैं, हंसगण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। उस सुंदर पर्वत पर वही पक्षी (काकभुशुण्डि) बसता है। उसका नाश कल्प के अंत में भी नहीं होता। मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक, जो सारे जगत् में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास भी कभी नहीं फटकते। वहाँ बसकर जिस प्रकार वह काग हरि को भजता है, हे उमा! उसे प्रेम सहित सुनो।'
'वह पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। श्री हरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है। बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्र को अनेकों प्रकार से प्रेम सहित आदरपूर्वक गान करता है। सब निर्मल बुद्धि वाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते हैं, उसे सुनते हैं। जब मैंने वहाँ जाकर यह कौतुक (दृश्य) देखा, तब मेरे हृदय में विशेष आनंद उत्पन्न हुआ। तब मैंने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और श्री रघुनाथजी के गुणों को आदर सहित सुनकर फिर कैलास को लौट आया। हे गिरिजे! मैंने वह सब इतिहास कहा कि जिस समय मैं काकभुशुण्डि के पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षी कुल के ध्वजा गरुड़जी उस काग के पास गए थे।'
'जब श्री रघुनाथजी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है- मेघनाद के हाथों अपने को बँधा लिया, तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा। सर्पों के भक्षक गरुड़जी बंधन काटकर गए, तब उनके हृदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बंधन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे-जो व्यापक, विकाररहित, वाणी के पति और माया-मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत् में उन्हीं का अवतार है। पर मैंने उस अवतार का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा। जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाते हैं, उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बाँध लिया। गरुड़जी ने अनेकों प्रकार से अपने मन को समझाया। पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ, हृदय में भ्रम और भी अधिक छा गया। (संदेहजनित) दुःख से दुःखी होकर, मन में कुतर्क बढ़ाकर वे तुम्हारी ही भाँति मोहवश हो गए।'
व्याकुल होकर वे देवर्षि नारदजी के पास गए और मन में जो संदेह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर नारद को अत्यंत दया आई। उन्होंने कहा- हे गरुड़! सुनिए! श्री रामजी की माया बड़ी ही बलवती है। जो ज्ञानियों के चित्त को भी भली भाँति हरण कर लेती है और उनके मन में जबर्दस्ती बड़ा भारी मोह उत्पन्न कर देती है तथा जिसने मुझको भी बहुत बार नचाया है, हे पक्षीराज! वही माया आपको भी व्याप गई है। हे गरुड़! आपके हृदय में बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरंत नहीं मिटेगा। अतः हे पक्षीराज! आप ब्रह्माजी के पास जाइए और वहाँ जिस काम के लिए आदेश मिले, वही कीजिएगा।
'ऐसा कहकर परम सुजान देवर्षि नारदजी श्री रामजी का गुणगान करते हुए और बारंबार श्री हरि की माया का बल वर्णन करते हुए चले। तब पक्षीराज गरुड़ ब्रह्माजी के पास गए और अपना संदेह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्माजी ने श्री रामचंद्रजी को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यंत प्रेम छा गया। ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान् की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है। यह सारा चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
तदनन्तर ब्रह्माजी सुंदर वाणी बोले- श्री रामजी की महिमा को महादेवजी जानते हैं। हे गरुड़! तुम शंकरजी के पास जाओ। हे तात! और कहीं किसी से न पूछना। तुम्हारे संदेह का नाश वहीं होगा।
ब्रह्माजी का वचन सुनते ही गरुड़ चल दिए। तब बड़ी आतुरता (उतावली) से पक्षीराज गरुड़ मेरे पास आए। हे उमा! उस समय मैं कुबेर के घर जा रहा था और तुम कैलास पर थीं। गरुड़ ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना संदेह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा - हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ? सब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया जाए और वहाँ सुंदर हरिकथा सुनी जाए जिसे मुनियों ने अनेकों प्रकार से गाया है और जिसके आदि, मध्य और अंत में भगवान् श्री रामचंद्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं। हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब संदेह दूर हो जाएगा और तुम्हें श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम होगा।
'सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्री रामचंद्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता। बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्री रघुनाथजी नहीं मिलते। अतएव तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ जहाँ उत्तर दिशा में एक सुंदर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं। वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल के हैं। वे निरंतर श्री रामचंद्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदर सहित सुनते हैं। वहाँ जाकर श्री हरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा। मैंने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया।
No comments:
Post a Comment