महातेजस्वी श्रीराम ने मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य को प्रणाम करके पुनः विस्मय पूर्वक पूछा - भगवन्! द्विजश्रेष्ठ! जब क्रूर निशाचर रावण पृथ्वी पर विजय करता घूम रहा था, उस समय क्या यहाँ के सभी लोग शौर्यसम्बन्धी गुणों से शून्य ही थे? क्या उन दिनों यहाँ कोई भी क्षत्रिय- नरेश अथवा क्षत्रियेतर राजा अधिक बलवान् नहीं था, जिससे इस भूतल पर पहुँचकर राक्षस राज रावण को पराजित या अपमानित होना नहीं पड़ा। अथवा उस समय के सभी राजा पराक्रम शून्य तथा शस्त्रज्ञान से हीन थे, जिसके कारण उन बहुसंख्यक श्रेष्ठ नरपालों को रावण से परास्त होना पड़ा।
श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुनकर अगस्त्य मुनि ठठाकर हँस पड़े और जैसे ब्रह्माजी महादेवजी से कोई बात कहते हों, इसी तरह वे श्रीरामचन्द्रजी से बोले - पृथ्वीनाथ! भूपालशिरोमणे ! श्रीराम ! इसी प्रकार सब राजाओं को सताता और पराजित करता हुआ रावण इस पृथ्वी पर विचरने लगा। घूमते-घूमते वह स्वर्ग पुरी अमरावती के समान सुशोभित होने वाली माहिष्मती नामक नगरी में जा पहुँचा, जहाँ अग्निदेव सदा विद्यमान रहते थे। उन अग्निदेव के प्रभाव से वहाँ अग्नि के ही समान तेजस्वी अर्जुन नामक राजा राज्य करता था, जिसके राज्यकाल में कुशास्तरण से युक्त अग्निकुण्ड में सदा अग्निदेवता निवास करते थे। जिस दिन रावण वहाँ पहुँचा, उसी दिन बलवान् हैहयराज राजा सहस्त्रार्जुन अपनी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जल-क्रीड़ा करने के लिये चला गया था।
उसी दिन रावण माहिष्मतीपुरी में आया। वहाँ आकर राक्षसराज रावण ने राजा के मन्त्रियों से पूछा - मन्त्रियो! जल्दी और ठीक-ठीक बताओ, राजा अर्जुन कहाँ हैं? मैं रावण हूँ और तुम्हारे महाराज से युद्ध करने के लिये आया हूँ। तुम लोग पहले ही जाकर उन्हें मेरे आगमन की सूचना दे दो।
रावण के ऐसा कहने पर राजा के विद्वान् मन्त्रियों ने राक्षसराज को बताया कि हमारे महाराज इस समय राजधानी में नहीं हैं।
'पुरवासियों के मुख से राजा अर्जुन के बाहर जाने की बात सुनकर विश्रवा का पुत्र रावण वहाँ से हटकर हिमालय के समान विशाल विन्ध्यगिरि पर आया। वह इतना ऊँचा था कि उसका शिखर बादलों में समाया हुआ-सा जान पड़ता था तथा वह पर्वत पृथ्वी फोड़कर ऊपर को उठा हुआ-सा प्रतीत होता था। विन्ध्य के गगनचुम्बी शिखर आकाश में रेखा खींचते से जान पड़ते थे। रावणने उस महान् शैल को देखा। वह अपने सहस्रों श्रृङ्गों से सुशोभित हो रहा था और उसकी कन्दराओं में सिंह निवास करते थे।'
'उसके सर्वोच्च शिखर के तट से जो शीतल जल की धाराएँ गिर रही थीं, उनके द्वारा वह पर्वत अट्टहास करता-सा प्रतीत होता था। देवता, दानव, गन्धर्व और किन्नर अपनी-अपनी स्त्रियों और अप्सराओं के साथ वहाँ क्रीड़ा कर रहे थे। वह अत्यन्त ऊँचा पर्वत अपनी सुरम्य सुषमा से स्वर्ग के समान सुशोभित हो रहा था।'
'स्फटिक के समान निर्मल जल का स्रोत बहाने वाली नदियों के कारण वह विन्ध्यगिरि चञ्चल जिह्वा वाले फनों से उपलक्षित शेषनाग के समान स्थित था। अधिक ऊँचाई के कारण वह ऊर्ध्वलोक को जाता-सा जान पड़ता था। हिमालय के समान विशाल एवं विस्तृत विन्ध्यगिरि बहुत-सी गुफाओं से युक्त दिखायी देता था।'
‘विन्ध्याचल की शोभा को देखता हुआ रावण पुण्यसलिला नर्मदा नदी के तट पर गया, जिसमें शिलाखण्डों से युक्त चञ्चल जल प्रवाहित हो रहा था। वह नदी पश्चिम समुद्र की ओर चली जा रही थी। धूप से तपे हुए प्यासे भैंसे, हिरन, सिंह, व्याघ्र, रीछ और गजराज उसके जलाशय को विक्षुब्ध कर रहे थे। सदा मतवाले होकर कलरव करने वाले चक्रवाक, कारण्डव, हंस, जलकुक्कुट और सारस आदि जलपक्षी नर्मदा की जल राशि पर छा रहे थे।'
‘सरिताओं में श्रेष्ठ नर्मदा परम सुन्दरी प्रियतमा नारी के समान प्रतीत होती थी। खिले हुए तटवर्ती वृक्ष मानो उसके आभूषण थे। चक्रवाक के जोड़े उसके दोनों स्तनों का स्थान ले रहे थे। ऊँचे और विस्तृत पुलिन नितम्ब के समान जान पड़ते थे। हंसों की पंक्ति मोतियों की बनी हुई मेखला ( करधनी) - के समान शोभा दे रही थी। पुष्पों के पराग ही अङ्गराग बनकर उसके अङ्ग अङ्ग में अनुलिप्त हो रहे थे।'
'जल का उज्ज्वल फेन ही उसकी स्वच्छ, श्वेत साडी जैसा प्रतीत हो रहा था। जल में गोता लगाना ही उसका सुखद संस्पर्श था और खिले हुए कमल ही उसके सुन्दर नेत्र जान पड़ते थे। राक्षसशिरोमणि दशमुख रावण ने शीघ्र ही पुष्पकविमान से उतरकर नर्मदा के जल में डुबकी लगायी और बाहर निकलकर वह नाना मुनियों से सेवित उसके रमणीय तट पर अपने मन्त्रियों के साथ बैठा।'
ये साक्षात् गङ्गा हैं’ ऐसा कहकर दशानन रावण ने नर्मदा की प्रशंसा की और उसके दर्शन से हर्ष का अनुभव किया। फिर वहाँ उसने शुक, सारण तथा अन्य मन्त्रियों से लीलापूर्वक कहा - 'ये सूर्यदेव अपनी सहस्रों किरणों से सम्पूर्ण जगत को मानो काञ्चनमय बनाकर प्रचण्ड ताप देते हुए इस समय आकाश के मध्यभाग में विराज रहे हैं।किंतु मुझे यहाँ बैठा जानकर ही चन्द्रमा के समान शीतल हो गये हैं। मेरे ही भय से वायु भी नर्मदा के जल से शीतल, सुगन्धित और श्रमनाशक होकर बड़ी सावधानी के साथ मन्दगति से बह रही है।
'सरिताओं में श्रेष्ठ यह नर्मदा भी क्रीड़ारस एवं प्रीति को बढ़ा रही है। इसकी लहरों में मगर, मत्स्य और जलपक्षी खेल रहे हैं और यह भयभीत नारी के समान स्थित है। तुम लोग युद्धस्थल में इन्द्रतुल्य पराक्रमी नरेशों द्वारा अस्त्र-शस्त्रों से घायल कर दिये गये हो और रक्त से इस प्रकार नहा उठे हो कि तुम्हारे अङ्गों में लालचन्दन रस का लेप-सा लगा हुआ जान पड़ता है। अत: तुम सब-के-सब सुख देनेवाली इस मङ्गलकारिणी नर्मदा नदी में स्नान करो। ठीक उसी तरह, जैसे सार्वभौम आदि महान् दिग्गज मतवाले होकर गङ्गा में अवगाहन करते हैं।'
‘इस महानदी में स्नान करके तुम पाप-ताप से मुक्त हो जाओगे। मैं भी आज शरद् ऋतु के चन्द्रमा की भाँति उज्ज्वल नर्मदा-तट पर धीरे-धीरे जटाजूटधारी महादेवजी को फूलों का उपहार समर्पित करूँगा।'
‘रावण के ऐसा कहने पर प्रहस्त, शुक, सारण, महोदर और धूम्राक्ष ने नर्मदा में स्नान किया। राक्षसराज की सेना के हाथियों ने नर्मदा नदी में उतरकर उसके जल को मथ डाला, मानो वामन, अञ्जन, पद्म आदि बड़े-बड़े दिग्गजों ने गङ्गाजी के जल को विक्षुब्ध कर डाला हो। तदनन्तर वे महाबली राक्षस नर्मदा में स्नान करके बाहर आये और रावण के शिवपूजन के लिये फूल जुटाने लगे।'
‘श्वेत बादलों के समान शुभ्र एवं मनोरम नर्मदा - पुलिन पर उन राक्षसों ने दो ही घड़ी में फूलों का पहाड़ जैसा ढेर लगा दिया। इस प्रकार पुष्पों का संचय हो जाने पर राक्षसराज रावण स्वयं स्नान करने के लिये नर्मदा नदी में उतरा, मानो कोई महान् गजराज गङ्गा में अवगाहन करने के लिये घुसा हो।'
'वहाँ विधि पूर्वक स्नान करके रावण ने परम उत्तम जपनीय मन्त्र का जप किया। इसके बाद वह नर्मदा के जल से बाहर निकला। फिर भीगे कपड़े को उतारकर उसने श्वेत वस्त्र धारण किया। इसके बाद वह हाथ जोड़े महादेवजी की पूजा के लिये चला। उस समय और सब राक्षस भी उसके पीछे हो लिये, मानो मूर्तिमान् पर्वत उसकी गति के अधीन हो खिंचे चले जा रहे हों।'
‘राक्षसराज रावण जहाँ-जहाँ भी जाता था, वहाँ-वहाँ एक सुवर्णमय शिवलिङ्ग अपने साथ लिये जाता था। रावण ने बालू की वेदी पर उस शिवलिङ्ग को स्थापित कर दिया और चन्दन तथा अमृत के समान सुगन्ध वाले पुष्पों से उसका पूजन किया। जो अपने ललाट में चन्द्रकिरणों को आभूषण रूप से धारण करते हैं, सत्पुरुषों की पीड़ा हर लेते हैं तथा भक्तों को मनोवाञ्छित वर प्रदान करते हैं, उन श्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट देवता भगवान् शङ्कर का भलीभाँति पूजन करके वह निशाचर उनके सामने गाने और हाथ फैलाकर नाचने लगा।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-५२(52) समाप्त !
No comments:
Post a Comment