भाग-५१(51) ब्रह्माजी का इन्द्रजीत को वरदान देकर इन्द्र को उसकी कैद से छुड़ाना

 


अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! रावण पुत्र मेघनाद जब अत्यन्त बलशाली इन्द्र को जीतकर अपने नगर में ले गया, तब सम्पूर्ण देवता प्रजापति ब्रह्माजी को आगे करके लङ्का में पहुँचे। 

ब्रह्माजी आकाश में खड़े-खड़े ही पुत्रों और भाइयों के साथ बैठे हुए रावण के निकट जा उसे कोमल वाणी में समझाते हुए बोले - वत्स रावण! युद्ध में तुम्हारे पुत्र की वीरता देखकर मैं बहुत संतुष्ट हुआ हूँ। अहो ! इसका उदार पराक्रम तुम्हारे समान या तुमसे भी बढ़कर है। तुमने अपने तेज से समस्त त्रिलोकी पर विजय पायी है और अपनी प्रतिज्ञा सफल कर ली है। इसलिये पुत्र सहित तुम पर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। 

'रावण! तुम्हारा यह पुत्र अतिशय बलशाली और पराक्रमी है। आज से यह संसार में इन्द्रजीत नाम से विख्यात होगा। राजन्! यह राक्षस बड़ा बलवान् और दुर्जय होगा, जिसका आश्रय लेकर तुमने समस्त देवताओं को अपने अधीन कर लिया। महाबाहो! अब तुम पाक शासन इन्द्र को छोड़ दो और बताओ इन्हें छोड़ने के बदले में देवता तुम्हें क्या दें।  

तब युद्धविजयी महातेजस्वी इन्द्रजीत ने स्वयं ही कहा – देव ! यदि इन्द्र को छोड़ना है तो मैं इसके बदले में अमरत्व लेना चाहता हूँ। 

यह सुनकर महातेजस्वी प्रजापति ब्रह्माजी ने मेघनाद से कहा – वत्स! इस भूतल पर पक्षियों, चौपायों तथा महातेजस्वी मनुष्य आदि प्राणियों में से कोई भी प्राणी सर्वथा अमर नहीं हो सकता। 

भगवान् ब्रह्माजी की कही हुई यह बात सुनकर इन्द्रविजयी महाबली मेघनाद ने वहाँ खड़े हुए अविनाशी ब्रह्माजी से कहा - भगवन्! यदि सर्वथा अमरत्व प्राप्त होना असम्भव है। तब इन्द्र को छोड़ने के सम्बन्ध में जो मेरी दूसरी शर्त है - जो दूसरी सिद्धि प्राप्त करना मुझे अभीष्ट है, उसे सुनिये। मेरे विषय में यह सदा के लिये नियम हो जाये कि जब मैं शत्रु पर विजय पाने की इच्छा से संग्राम में उतरना चाहूँ और मन्त्र युक्त हव्य की आहुति से अग्निदेव की पूजा करूँ, उस समय अग्नि से मेरे लिये एक ऐसा रथ प्रकट हो जाया करे, जो घोड़ों से जुता जुताया तैयार हो और उसपर जब तक मैं बैठा रहूँ, तब तक मुझे कोई भी मार न सके, यही मेरा निश्चित वर है। 

'यदि युद्ध के निमित्त किये जानेवाले जप और होम को पूर्ण किये बिना ही मैं समराङ्गण में युद्ध करने लगूँ, तभी मेरा विनाश हो। देव! सब लोग तपस्या करके अमरत्व प्राप्त करते हैं; परंतु मैंने पराक्रम द्वारा इस अमरत्व का वरण किया है।' 

यह सुनकर भगवान् ब्रह्माजी ने कहा- 'एवमस्तु (ऐसा ही हो)। इसके बाद इन्द्रजीत ने इन्द्र को मुक्त कर दिया और सब देवता उन्हें साथ लेकर स्वर्गलोक को चले गये। 

'श्रीराम! उस समय इन्द्र का देवोचित तेज नष्ट हो गया था। वे दुःखी हो चिन्ता में डूबकर अपनी पराजय का कारण सोचने लगे। 

भगवान् ब्रह्माजी ने उनकी इस अवस्था को लक्ष्य किया और कहा - शतक्रतो! यदि आज तुम्हें इस अपमान से शोक और दुःख हो रहा है तो बताओ पूर्वकाल में तुमने बड़ा भारी दुष्कर्म क्यों किया था? प्रभो! देवराज! पहले मैंने अपनी बुद्धि से जिन प्रजाओं को उत्पन्न किया था, उन सबकी अङ्गकान्ति, रूप, भाषा, और अवस्था सभी बातें एक जैसी थीं।' 

‘उनके रूप और रंग आदि में परस्पर कोई विलक्षणता नहीं थी। तब मैं एकाग्रचित्त होकर उन प्रजाओं के विषय में विशेषता लाने के लिये कुछ विचार करने लगा। विचार के पश्चात् उन सब प्रजाओं की अपेक्षा विशिष्ट प्रजा को प्रस्तुत करने के लिये मैंने एक नारी की सृष्टि की। प्रजाओं के प्रत्येक अङ्ग में जो-जो अद्भुत विशिष्टता – सारभूत सौन्दर्य था, उसे मैंने उसके अङ्गों में प्रकट किया।' 

'उन अद्भुत रूप-गुणों से उपलक्षित जिस नारी का मेरे द्वारा निर्माण हुआ था, उसका नाम हुआ अहिल्या था। इस जगत में हल कहते हैं कुरूपता को, उससे जो निन्दनीयता प्रकट होती है उसका नाम हल्य है। जिस नारी में हल्य (निन्दनीय रूप) न हो, वह अहिल्या कहलाती है; इसीलिये वह नवनिर्मित नारी अहिल्या नाम से विख्यात हुई। मैंने ही उसका नाम अहिल्या रख दिया था।' 

'देवेन्द्र! सुरश्रेष्ठ! जब उस नारी का निर्माण हो गया, तब मेरे मन में यह चिन्ता हुई कि यह किसकी पत्नी होगी ? प्रभो! पुरंदर! देवेन्द्र! उन दिनों तुम अपने स्थान और पद की श्रेष्ठता के कारण मेरी अनुमति के बिना ही मन-ही-मन यह समझने लगे थे कि यह मेरी ही पत्नी होगी। मैंने धरोहर के रूप में महर्षि गौतम के हाथ में उस कन्या को सौंप दिया। वह बहुत वर्षों तक उनके यहाँ रही। फिर गौतम ने उसे मुझे लौटा दिया।' 

'महामुनि गौतम के उस महान् स्थैर्य (इन्द्रिय-संयम) तथा तपस्या विषयक सिद्धि को जानकर मैंने वह कन्या पुनः उन्हीं को पत्नी रूप में दे दी। धर्मात्मा महामुनि गौतम उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगे। जब अहिल्या गौतम को दे दी गयी, तब देवता निराश हो गये। तुम्हारे तो क्रोध की सीमा न रही। तुम्हारा मन काम के अधीन हो चुका था; इसलिये तुमने मुनि के आश्रम पर जाकर अग्निशिखा के समान प्रज्वलित होने वाली उस दिव्य सुन्दरी को देखा।' 

‘इन्द्र! तुमने कुपित और काम से पीड़ित होकर उसके साथ बलात्कार किया। उस समय उन महर्षि ने अपने आश्रम में तुम्हें देख लिया। देवेन्द्र! इससे उन परम तेजस्वी महर्षि को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने तुम्हें शाप दे दिया। उसी शाप के कारण तुमको इस विपरीत दशा में आना पड़ा है - शत्रु का बंदी बनना पड़ा है।' 

उन्होंने शाप देते हुए कहा - 'वासव! शक्र ! तुमने निर्भय होकर मेरी पत्नी के साथ बलात्कार किया है; इसलिये तुम युद्ध में जाकर शत्रु के हाथ में पड़ जाओगे। दुर्बुद्धे! तुम-जैसे राजा के दोष से मनुष्य लोक में भी यह जार भाव प्रचलित हो जायेगा, जिसका तुमने स्वयं यहाँ सूत्रपात किया है; इसमें संशय नहीं है। 

'जो जार भाव से पापाचार करेगा, उस पुरुष पर उस पाप का आधा भाग पड़ेगा और आधा तुम पर पड़ेगा; क्योंकि इसके प्रवर्तक तुम्हीं हो। नि:संदेह तुम्हारा यह स्थान स्थिर नहीं होगा। जो कोई भी देवराज के पद पर प्रतिष्ठित होगा, वह वहाँ स्थिर नहीं रहेगा। यह शाप मैंने इन्द्रमात्र के लिये दे दिया है। यह बात मुनि ने तुमसे कही थी। 

फिर उन महातपस्वी मुनि ने अपनी उस पत्नी को भी भलीभाँति डाँट फटकारकर कहा - दुष्टे ! तू मेरे आश्रम के पास ही अदृश्य होकर रह और अपने रूप-सौन्दर्य से भ्रष्ट हो जा। रूप और यौवन से सम्पन्न होकर मर्यादा में स्थित नहीं रह सकी है, इसलिये अब लोक में तू अकेली ही रूपवती नहीं रहेगी (बहुत-सी रूपवती स्त्रियाँ उत्पन्न हो जायेगी)। जिस एक रूप-सौन्दर्य को लेकर इन्द्र के मन में यह काम - विकार उत्पन्न हुआ था, तेरे उस रूप-सौन्दर्य को समस्त प्रजाएँ प्राप्त कर लेंगी, इसमें संशय नहीं है।  

तभी से अधिकांश प्रजा रूपवती होने लगी। अहिल्या ने उस समय विनीत वचनों द्वारा महर्षि गौतम को प्रसन्न किया और कहा - 'विप्रवर! ब्रह्मर्षे! देवराज ने आपका ही रूप धारण करके मुझे कलङ्कित किया है। मैं उसे पहचान न सकी थी। अत: अनजाने में मुझसे यह अपराध हुआ है, स्वेच्छा चारवश नहीं। इसलिये आपको मुझ पर कृपा करनी चाहिये। 

अहिल्या के ऐसा कहने पर गौतम ने उत्तर दिया - भद्रे ! इक्ष्वाकुवंश में एक महातेजस्वी महारथी वीर का अवतार होगा, जो संसार में श्रीराम के नाम से विख्यात होंगे। महाबाहु श्रीराम के रूप में साक्षात् भगवान् विष्णु ही मनुष्य शरीर धारण करके प्रकट होंगे। वे ब्राह्मण (विश्वामित्र आदि) के कार्य से तपोवन में पधारेंगे। जब तुम उनका दर्शन करोगी, तब पवित्र हो जाओगी। तुमने जो पाप किया है, उससे तुम्हें वे ही पवित्र कर सकते हैं। 

'वरवर्णिनि! उनका आतिथ्य-सत्कार करके तुम मेरे पास आ जाओगी और फिर मेरे ही साथ रहने लगोगी।  

'ऐसा कहकर ब्रह्मर्षि गौतम अपने आश्रम के भीतर आ गये और उन ब्रह्मवादी मुनि की पत्नी वह अहिल्या बड़ी भारी तपस्या करने लगी। महाबाहो! उन ब्रह्मर्षि गौतम के शाप देने से ही तुम पर यह सारा संकट उपस्थित हुआ है। अत: तुमने जो पाप किया था, उसको याद करो।' 

‘वासव! उस शाप के ही कारण तुम शत्रु की कैद में पड़े हो, दूसरे किसी कारण से नहीं। अत: अब एकाग्रचित्त हो शीघ्र ही वैष्णव-यज्ञ का अनुष्ठान करो। देवेन्द्र! उस यज्ञ से पवित्र होकर तुम पुनः स्वर्गलोक प्राप्त कर लोगे। तुम्हारा पुत्र जयन्त उस महासमर में मारा नहीं गया है। उसका नाना पुलोमा उसे महासागर में ले गया है। इस समय वह उसी के पास है।' 

'ब्रह्माजी की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र ने वैष्णव यज्ञ का अनुष्ठान किया। वह यज्ञ पूरा करके देवराज स्वर्गलोक में गये और वहाँ देवराज्य का शासन करने लगे। रघुनन्दन ! यह है इन्द्रविजयी मेघनाद का बल, जिसका मैंने आपसे वर्णन किया है। उसने देवराज इन्द्र को भी जीत लिया था; फिर दूसरे प्राणियों की तो बिसात ही क्या थी। 

अगस्त्यजी की यह बात सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण तत्काल बोल उठे – आश्चर्य है। साथ ही वानरों और राक्षसों को भी इस बात से बड़ा विस्मय हुआ। उस समय श्रीराम के बगल में बैठे हुए विभीषण ने कहा- मैंने पूर्वकाल में जो आश्चर्य की बातें देखी थीं, उनका आज महर्षि ने स्मरण दिला दिया है। 

तब श्रीरामचन्द्रजी ने अगस्त्यजी से कहा - आपकी बात सत्य है। मैंने भी विभीषण के मुख से यह बात सुनी थी।  

फिर अगस्त्यजी बोले – 'श्रीराम ! इस प्रकार पुत्र सहित रावण सम्पूर्ण जगत के लिये कण्टक रूप था, जिसने देवराज इन्द्र को भी संग्राम में जीत लिया था। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-५१(51) समाप्त !

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