भाग-५०(50) मेघनाद का माया द्वारा इन्द्र को बन्दी बनाना तथा विजयी होकर सेना सहित लङ्का को लौटना

 


अगस्त्यजी कहते हैं - श्रीराम ! जब सब ओर अन्धकार छा गया, तब बल से उन्मत्त हुए वे समस्त देवता और राक्षस एक-दूसरे को मारते हुए परस्पर युद्ध करने लगे। उस समय देवताओं की सेना ने राक्षसों के विशाल सैन्य समूह का केवल दसवाँ हिस्सा युद्धभूमि में खड़ा रहने दिया। शेष सब राक्षसों को यमलोक पहुँचा दिया। उस तामस युद्ध में समस्त देवता और राक्षस परस्पर जूझते हुए एक-दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। इन्द्र, रावण और रावणपुत्र महाबली मेघनाद - ये तीन ही उस अन्धकाराच्छन्न समराङ्गण में मोहित नहीं हुए थे। 

रावण ने देखा, मेरी सारी सेना क्षणभर में मारी गयी, तब उसके मन में बड़ा क्रोध हुआ और उसने बड़ी भारी गर्जना की। उस दुर्जय निशाचर ने रथ पर बैठे हुए अपने सारथि से क्रोधपूर्वक कहा - सूत! शत्रुओं की इस सेना का जहाँ तक अन्त है, वहाँ तक तुम इस सेना के मध्यभाग से होकर मुझे ले चलो। आज मैं स्वयं अपने पराक्रम द्वारा नाना प्रकार के शस्त्रों की मूसलाधार वृष्टि करके इन सब देवताओं को यमलोक पहुँचा दूँगा।  मैं इन्द्र, कुबेर, वरुण और यम का भी वध करूंगा। सब देवताओं का शीघ्र ही संहार करके स्वयं सबके ऊपर स्थित होऊँगा। 

'तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये। शीघ्र मेरे रथ को ले चलो। मैं तुमसे दो बार कहता हूँ, देवताओं की सेना का जहाँ तक अन्त है, वहाँ तक मुझे अभी ले चलो। यह नन्दन वन का प्रदेश है, जहाँ इस समय हम दोनों उपस्थित हैं। यहीं से देवताओं की सेना का आरम्भ होता है। अब तुम मुझे उस स्थान तक ले चलो, जहाँ उदयाचल है नन्दन वन से उदयाचल तक देवताओं की सेना फैली हुई है।' 

रावण की यह बात सुनकर सारथि ने मन के समान वेगशाली घोड़ों को शत्रुसेना के बीच से हाँक दिया। रावण के इस निश्चय को जानकर समर भूमि में रथ पर बैठे हुए देवराज इन्द्र ने उन देवताओं से कहा - देवगण! मेरी बात सुनो। मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इस निशाचर दशग्रीव को जीवित अवस्था में ही भलीभाँति कैद कर लिया जाये। यह अत्यन्त बलशाली राक्षस वायु के समान वेगशाली रथ के द्वारा इस सेना के बीच में होकर उसी तरह तीव्रगति से आगे बढ़ेगा, जैसे पूर्णिमा के दिन उत्ताल तरङ्गों से युक्त समुद्र बढ़ता है। 

'यह आज मारा नहीं जा सकता; क्योंकि ब्रह्माजी के वरदान के प्रभाव से पूर्णत: निर्भय हो चुका है। इसलिये हम लोग इस राक्षस को पकड़कर कैद कर लेंगे। तुम लोग युद्ध में इस बात के लिये पूरा प्रयत्न करो। जैसे राजा बलि के बाँध लिये जाने पर ही मैं तीनों लोकों के राज्य का उपभोग कर रहा हूँ, उसी प्रकार इस पापी निशाचर को बंदी बना लिया जाये, यही मुझे अच्छा लगता है।' 

'महाराज श्रीराम ! ऐसा कहकर इन्द्र ने रावण के साथ युद्ध करना छोड़ दिया और दूसरी ओर जाकर समराङ्गण में राक्षसों को भयभीत करते हुए वे उनके साथ युद्ध करने लगे। युद्ध से पीछे न हटने वाले रावण ने उत्तर की ओर से देवसेना में प्रवेश किया और देवराज इन्द्र ने दक्षिण की ओर से राक्षससेना में। देवताओं की सेना चार सौ कोस तक फैली हुई थी। राक्षसराज रावण ने उसके भीतर घुसकर समूची देवसेना को बाणों की वर्षा से ढक दिया।' 

'अपनी विशाल सेना को नष्ट होती देख इन्द्र ने बिना किसी घबराहट के दशमुख रावण का सामना किया और उसे चारों ओर से घेरकर युद्ध से विमुख कर दिया। इसी समय रावण को इन्द्र के चंगुल में फँसा हुआ देख दानवों तथा राक्षसों ने 'हाय ! हम मारे गये' ऐसा कहकर बड़े जोर से आर्तनाद किया।' 

'तब रावण का पुत्र मेघनाद क्रोध से अचेत-सा हो गया और रथ पर बैठकर अत्यन्त कुपित हो उसने शत्रु की भयंकर सेना में प्रवेश किया। पूर्वकाल में पशुपति महादेवजी से उसको जो तमोमयी महामाया प्राप्त हुई थी, उसमें प्रवेश करके उसने अपने को छिपा लिया और अत्यन्त क्रोधपूर्वक शत्रुसेना में घुसकर उसे खदेड़ना आरम्भ किया।' 

'वह सब देवताओं को छोड़कर इन्द्र पर ही टूट पड़ा, परंतु महातेजस्वी इन्द्र अपने शत्रु के उस पुत्र को देख न सके। महापराक्रमी देवताओं की मार खाने से यद्यपि वहाँ रावणकुमार का कवच नष्ट हो गया था, तथापि उसने अपने मन में तनिक भी भय नहीं किया। उसने अपने सामने आते हुए मातलि को उत्तम बाणों से घायल करके सायकों की झड़ी लगाकर पुन: देवराज इन्द्र को भी ढक दिया।' 

'तब इन्द्र ने रथ को छोड़कर सारथि को विदा कर दिया और ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो वे रावणकुमार की खोज करने लगे। मेघनाद अपनी माया के कारण बहुत प्रबल हो रहा था। वह अदृश्य होकर आकाश में विचरने लगा और इन्द्र को माया से व्याकुल करके बाणों द्वारा उन पर आक्रमण किया। रावणकुमार को जब अच्छी तरह पता चल गया कि इन्द्र बहुत थक गये हैं, तब उन्हें माया से बाँधकर अपनी सेना में ले आया।' 

'महेन्द्र को उस महासमर से मेघनाद द्वारा बलपूर्वक ले जाये जाते देख सब देवता यह सोचने लगे कि अब क्या होगा ? यह युद्धविजयी मायावी राक्षस स्वयं तो दिखायी देता नहीं, इसीलिये इन्द्र पर विजय पाने में सफल हुआ है। यद्यपि देवराज इन्द्र राक्षसी माया का संहार करने की विद्या जानते हैं, तथापि इस राक्षस ने माया द्वारा बलपूर्वक इनका अपहरण किया है।' 

'ऐसा सोचते हुए वे सब देवता उस समय रोष से भर गये और रावण को युद्ध से विमुख करके उस पर बाणों की झड़ी लगाने लगे। रावण आदित्यों और वसुओं का सामना पड़ जाने पर युद्ध में उनके सम्मुख ठहर न सका; क्योंकि शत्रुओं ने उसे बहुत पीड़ित कर दिया था।' 

मेघनाद ने देखा पिता का शरीर बाणों के प्रहार से जर्जर हो गया है और वे युद्ध में उदास दिखायी देते हैं। तब वह अदृश्य रहकर ही रावण से इस प्रकार बोला – पिताजी! चले आइये। अब हम लोग घर चलें। युद्ध बंद कर दिया जाये। हमारी जीत हो गयी; अत: आप स्वस्थ, निश्चिन्त एवं प्रसन्न हो जाइये। ये जो देवताओं की सेना तथा तीनों लोकों के स्वामी इन्द्र हैं, इन्हें मैं देवसेना के बीच से बंदी बना कर लाया हूँ। ऐसा करके मैंने देवताओं का घमंड चूर कर दिया है। आप अपने शत्रु को बलपूर्वक कैद करके इच्छानुसार तीनों लोकों का राज्य भोगिये। यहाँ व्यर्थ श्रम करने से आपको क्या लाभ है? अब युद्ध से कोई प्रयोजन नहीं है। 

मेघनाद की यह बात सुनकर सब देवता युद्ध से निवृत्त हो गये और इन्द्र को साथ लिये बिना ही लौट गये। अपने पुत्र के उस प्रिय वचन को आदरपूर्वक सुनकर महान् बलशाली देवद्रोही तथा सुविख्यात राक्षसराज रावण युद्ध से निवृत्त हो गया और अपने पुत्र से बोला - सामर्थ्यशाली पुत्र! अपने अत्यन्त बल के अनुरूप पराक्रम प्रकट करके आज तुमने जो इन अनुपम बलशाली देवराज इन्द्र को जीता और देवताओं को भी परास्त किया है, इससे यह निश्चय हो गया कि तुम मेरे कुल और वंश के यश और सम्मान की वृद्धि करनेवाले हो। पुत्र ! इन्द्र को रथ पर बैठाकर तुम सेना के साथ यहाँ से लङ्कापुरी को चलो ! मैं भी अपने मन्त्रियों के साथ शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहा हूँ। 

'पिता की यह आज्ञा पाकर पराक्रमी रावणकुमार मेघनाद देवराज को साथ ले सेना और सवारियों सहित अपने निवास स्थान को लौटा। वहाँ पहुँचकर उसने युद्ध में भाग लेने वाले निशाचरों को विदा कर दिया।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-५०(50) समाप्त !

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