भाग-५(5) ध्रुव का घर लौटना तथा पिता उत्तानपाद द्वारा उनका भव्य स्वागत करना

 


सूतजी कहते हैं - बालक ध्रुव से इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदान कर भगवान् श्रीगरुड़ध्वज उसके देखते-देखते अपने लोक को चले गये। प्रभु की चरण सेवा से संकल्पित वस्तु प्राप्त हो जाने के कारण यद्यपि ध्रुव जी का संकल्प तो निवृत्त हो गया, किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगर लौट गये।

ऋषियों ने पूछा - ब्रह्मन्! मायापति श्रीहरि का परमपद तो अत्यत्न दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलों की उपासना से ही है। ध्रुव जी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्म में उस परमपद को पा लेने पर भी उन्होंने अपने को अकृतार्थ (जिसे लाभ प्राप्त न हो) क्यों समझा?

सूतजी ने कहा - ध्रुव जी का हृदय अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से बिंध गया था तथा वर माँगने के समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसी से उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरि से मुक्ति नहीं माँगी। अब जब भगवद्दर्शन से वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूल के लिये पश्चाताप हुआ। ध्रुव जी मन-ही-मन कहने लगे- अहो! सनकादि उर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधि द्वारा अनेकों जन्मों में प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणों की छाया को मैंने छः महीने में ही पा लिया, किन्तु चित्त में दूसरी वासना रहने के कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया।

'अहो! मुझ मन्दभाग्य की मुर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाश को काटने वाले प्रभु के पादपद्मों में पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तु की ही याचना की! देवताओं को स्वर्गभोग के पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थिति को सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्ट ने नारदजी की यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की।' 

'यद्यपि संसार में आत्मा के सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्न में अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादि से डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान् की माया से मोहित होकर भाई को ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोग से जलने लगा। जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरि को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायुपुरुष के लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धन का नाश करने वाले प्रभु से मैंने संसार ही माँगा।'

'मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ। जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट् को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलों की कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करने वाले श्रीहरि से मुर्खतावश व्यर्थ का अभिमान बढ़ाने वाले उच्चपदादि ही माँगे हैं।'

सूतजी कहते हैं - जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्द के ही मधुकर हैं-जो निरन्तर प्रभु की चरण-रज का ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान् से उनकी सेवा के सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते।

'इधर जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसी के यमलोक से लौटने की बात पर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागे का ऐसा भाग्य कहाँ’। परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारद की बात याद आ गयी। इससे उनका इस बात में विश्वास हुआ।' 

'वे आनन्द के वेग से अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लाने वाले को एक बहुमूल्य हार दिया। राजा उत्तानपाद ने पुत्र का मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनों को साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ों वाले सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर वे झटपट नगर के बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शंख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों मांगलिक बाजे बजते जाते थे। उनकी दोनों रानियाँ- सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो राजकुमार उत्तम के साथ पालकियों पर चढ़कर चल रही थीं।'

'ध्रुव जी उपवन के पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथ से उतर पड़े। पुत्र को देखने के लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी-लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुव को भुजाओं में भर लिया। अब ये पहले के ध्रुव नहीं थे, प्रभु के परमपुनीत पादपद्मों का स्पर्श होने से इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे। राजा उत्तानपाद की एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्र का सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेम के कारण निकलने वाले ठंडे-ठंडे आँसुओं से उन्हें नहला दिया।'

'तदनन्तर सज्जनों में अग्रगण्य ध्रुव जी ने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्नादि से सम्मानित हो दोनों माताओं को प्रणाम किया। छोटी माता सुरुचि ने अपने चरणों पर झुके हुए बालक ध्रुव को उठाकर हृदय से लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणी से ‘चिरंजीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया। जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचे की ओर बहने लगता है-उसी प्रकार मैत्री आदि गुणों के कारण जिस पर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं।'

'इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेम से विह्वल होकर मिले। एक-दूसरे के अंगों का स्पर्श पाकर उन दोनों के ही शरीर में रोमांच हो आया तथा नेत्रों से बार-बार आसुओं की धारा बहने लगी। ध्रुव की माता सुनीति अपने प्राणों से भी प्यारे पुत्र को गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अंगों के स्पर्श से उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ।'

'हे ऋषिगणों! वीरमाता सुनीति के स्तन उसके नेत्रों से झरते हुए मंगलमय आनन्दाश्रुओं से भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने लगा। उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानी! आपका लाल बहुत दिनों से खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दुःख दूर करने वाला है। बहुत दिनों तक भूमण्डल की रक्षा करेगा। आपने अवश्य ही शरणागत भयभंजन श्रीहरि की उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करने वाले धीरपुरुष परमदुर्जय मृत्यु को भी जीत लेते हैं’।

इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुव के प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तम के सहित हथिनी पर चढ़ाकर महाराज उत्तानपाद ने बड़े हर्ष के साथ राजधानी में प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्य की बड़ाई कर रहे थे। नगर में जहाँ-तहाँ मगर के आकार के सुन्दर दरवाजे बनाये गये थे तथा फल-फूलों के गुच्छों के सहित केले के खम्भे और सुपारी के पौधे सजाये गये थे। द्वार-द्वार पर दीपक के सहित जल के कलश रखे हुए थे-जो आम के पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोती की लकड़ियों से सुसज्जित थे।' 

'जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलों से नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्ण की सामग्रियों से सजाया गया था तथा उनके कँगूरे विमानों के शिखरों के समान चमक रहे थे। नगर के चौक, गलियों, अटारियों और सडकों को झाड़-बुहारकर उन पर चन्दन का छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य मांगलिक उपहार-सामग्रियाँ सजी रखी थीं।'

'ध्रुव जी राजमार्ग से जा रहे थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगर की शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखने को एकत्र हो रही थीं। उन्होंने वात्सल्यभाव से अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उन पर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलों की वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुव जी ने अपने पिता के महल में प्रवेश किया। वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियों की लड़ियों से सुसज्जित था।' 

'उसमें अपने पिताजी के लाड़-प्यार सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्ग में देवता लोग रहते हैं। वहाँ दूध के फेन के समान सफेद और कोमल शय्याएँ, हाथी-दाँत के पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोने का सामान था। उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारों में रत्नों की बनी हुई स्त्रीमूर्तियों पर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे। उस महल के चारों ओर अनेक जाति के दिव्य वृक्षों से सुशोभित उद्यान थे, जिसमें नर और मादा पक्षियों का कलरव तथा मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था। उन बगीचों में वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियों से सुशोभित बावलियाँ थीं-जिनमें लाल, नीले और सफेद रंग के कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीड़ा करते रहते थे।'

'राजर्षि उत्तानपाद ने अपने पुत्र के अति अद्भुत प्रभाव की बात देवर्षि नारद से पहले ही सुन रखी थी; अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्था को प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं तथा प्रजा का भी उन पर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डल के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए संसार से विरक्त होकर वन को चल दिये।'

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-५(5) समाप्त !

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