भाग-४(4) सुमन्त्र के कहने से राजा दशरथ का सपरिवार अंगराज के यहाँ जाकर वहाँ से शान्ता और ऋष्यश्रृंग को अपने घर ले आना

 


तदनन्तर सुमन्त्र ने फिर कहा - राजेन्द्र ! आप पुनः मुझसे अपने हित की वह बात सुनिये, जिसे देवताओं में श्रेष्ठ बुद्धिमान् सनत्कुमारजी ने ऋषियों को सुनाया था। उन्होंने कहा था - इक्ष्वाकुवंश में दशरथ नाम से प्रसिद्ध एक परम धार्मिक सत्यप्रतिज्ञ राजा होंगे। उनकी अंगराज के साथ मित्रता होगी। दशरथ के एक परम सौभाग्यशालिनी कन्या होगी, जिसका नाम होगा ‘शान्ता’।  

अंगदेश के राजकुमार का नाम होगा ' रोमपाद'। महायशस्वी राजा दशरथ उनके पास जायेंगे और कहेंगे - 'धर्मात्मन्! मैं संतानहीन हूँ। यदि आप आज्ञा दें तो शान्ता के पति ऋष्यश्रृंग मुनि चलकर मेरा यज्ञ करा दें। इससे मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी और मेरे वंश की रक्षा हो जायगी। राजा की यह बात सुनकर मन ही मन उसपर विचार करके मनस्वी राजा रोमपाद शान्ता के पुत्रवान् पति को उनके साथ भेज देंगे। 

ब्राह्मण ऋष्यश्रृंग को पाकर राजा दशरथ की सारी चिन्ता दूर हो जायेगी और वे प्रसन्नचित्त होकर उस यज्ञ का अनुष्ठान करेंगे। यश की इच्छा रखने वाले धर्मज्ञ राजा दशरथ हाथ जोड़कर द्विजश्रेष्ठ ऋष्यश्रृंग का यज्ञ, पुत्र और स्वर्ग के लिये वरण करेंगे तथा वे प्रजापालक नरेश उन श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि से अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेंगे। राजा के चार पुत्र होंगे, जो अप्रमेय पराक्रमी, वंश की मर्यादा बढ़ानेवाले और सर्वत्र विख्यात होंगे। 

महाराज! पहले सत्ययुग में शक्तिशाली देवप्रवर भगवान् सनत्कुमारजी ने ऋषियों के समक्ष ऐसी कथा कही थी। पुरुषसिंह महाराज! इसलिये आप स्वयं ही सेना और सवारियों के साथ अंगदेश में जाकर मुनिकुमार ऋष्यश्रृंग को सत्कारपूर्वक यहाँ ले आइये। 

सुमन्त्र का वचन सुनकर राजा दशरथ को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने मुनिवर वसिष्ठजी को भी सुमन्त्र की बातें सुनायीं और उनकी आज्ञा लेकर रनिवास की रानियों तथा मन्त्रियों के साथ अंगदेश के लिये प्रस्थान किया, जहाँ विप्रवर ऋष्यश्रृंग निवास करते थे। मार्ग में अनेकानेक वनों और नदियों को पार करके वे धीरे-धीरे उस देश में जा पहुँचे, जहाँ मुनिवर ऋष्यश्रृंग विराजमान थे। वहाँ पहुँचने पर उन्हें द्विजश्रेष्ठ ऋष्यश्रृंग रोमपाद के पास ही बैठे दिखायी दिये। वे ऋषिकुमार प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। 

तदनन्तर राजा रोमपाद ने मित्रता के नाते अत्यन्त प्रसन्न हृदय से महाराज दशरथ का शास्त्रोक्त विधि के अनुसार विशेषरूप से पूजन किया और बुद्धिमान् ऋषिकुमार ऋष्यश्रृंग को राजा दशरथ के साथ अपनी मित्रता की बात बतायी। उसपर उन्होंने भी राजा का सम्मान किया। इस प्रकार भलीभाँति आदर-सत्कार पाकर नरश्रेष्ठ राजा दशरथ रोमपाद के साथ वहाँ सात-आठ दिनों तक रहे। 

इसके बाद वे अंगराज से बोले - प्रजापालक नरेश ! तुम्हारी पुत्री शान्ता अपने पति के साथ मेरे नगर में पदार्पण करे; क्योंकि वहाँ एक महान् आवश्यक कार्य उपस्थित हुआ है। 

राजा रोमपाद ने 'बहुत अच्छा' कहकर उन बुद्धिमान् महर्षि का जाना स्वीकार कर लिया और ऋष्यश्रृंग से कहा - विप्रवर! आप शान्ता के साथ महाराज दशरथ के यहाँ जाइये। राजा की आज्ञा पाकर उन ऋषिपुत्र ने 'तथास्तु' कहकर राजा दशरथ को अपने चलने की स्वीकृति दे दी। राजा रोमपाद की अनुमति ले ऋष्यश्रृंग ने पत्नी के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। उस समय शक्तिशाली राजा रोमपाद और दशरथ ने एक-दूसरे को हाथ जोड़कर स्नेहपूर्वक छाती से लगाया तथा अभिनन्दन किया। फिर मित्र से विदा ले रघुकुलनन्दन दशरथ वहाँ से प्रस्थित हुए। 

उन्होंने पुरवासियों के पास अपने शीघ्रगामी दूत भेजे और कहलाया कि 'समस्त नगर को शीघ्र ही सुसज्जित किया जाये। सर्वत्र धूप की सुगन्ध फैले। नगर की सड़कों को झाड़-बुहारकर उनपर पानी का छिड़काव कर दिया जाये तथा सारा नगर ध्वजा-पताकाओं से अलंकृत हो। राजा का आगमन सुनकर पुरवासी बड़े प्रसन्न हुए। महाराज ने उनके लिये जो संदेश भेजा था, उसका उन्होंने उस समय पूर्णरूप से पालन किया। 

तदनन्तर राजा दशरथ ने शङ्ख और दुन्दुभि आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ विप्रवर ऋष्यश्रृंग को आगे करके अपने सजे-सजाये नगर में प्रवेश किया। उन द्विजकुमार का दर्शन करके सभी नगर निवासी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने इन्द्र के समान पराक्रमी नरेन्द्र दशरथ के साथ पुरी में प्रवेश करते हुए ऋष्यश्रृंग का उसी प्रकार सत्कार किया, जैसे देवताओं ने स्वर्ग में सहस्राक्ष इन्द्र के साथ प्रवेश करते हुए कश्यपनन्दन वामनजी का समादर किया था। 

ऋषि को अन्त:पुर में ले जाकर राजा ने शास्त्रविधि के अनुसार उनका पूजन किया और उनके निकट आ जाने से अपने को कृतकृत्य माना। विशाललोचना शान्ता को इस प्रकार अपने पति के साथ उपस्थित देख अन्तःपुर की सभी रानियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्दमग्न हो गयीं।शान्ता भी उन रानियों से तथा विशेषत: महाराज दशरथ के द्वारा आदर-सत्कार पाकर वहाँ कुछ काल तक अपने पति विप्रवर ऋष्यश्रृंग के साथ बड़े सुख से रही। 

तदनन्तर बहुत समय बीत जाने के पश्चात् कोई परम मनोहर – दोषरहित समय प्राप्त हुआ। उस समय वसन्त ऋतु का आरम्भ हुआ था। राजा दशरथ ने उसी शुभ समय में यज्ञ आरम्भ करने का विचार किया। तत्पश्चात् उन्होंने देवोपम कान्तिवाले विप्रवर ऋष्यश्रृंग को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और वंशपरम्परा की रक्षा के लिये पुत्र-प्राप्ति के निमित्त यज्ञ कराने के उद्देश्य से उनका वरण किया। 

ऋष्यश्रृंग ने ‘बहुत अच्छा' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उन पृथ्वीपति नरेश से कहा – 'राजन्! यज्ञ की सामग्री एकत्र कराइये। भूमण्डल में भ्रमण के लिये आपका यज्ञसम्बन्धी अश्व छोड़ा जाये और सरयू के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण किया जाये। 

तब राजा ने कहा - सुमन्त्र ! तुम शीघ्र ही वेदविद्या के पारंगत ब्राह्मणों तथा ब्रह्मवादी ऋत्विजों को बुला ले आओ। सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि, काश्यप, पुरोहित, वसिष्ठ तथा अन्य जो श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, उन सबको बुलाओ। तब शीघ्रगामी सुमन्त्र तुरंत जाकर वेदविद्या के पारगामी उन समस्त ब्राह्मणों को बुला लाये।  

धर्मात्मा राजा दशरथ ने उन सबका पूजन किया और उनसे धर्म तथा अर्थ से युक्त मधुर वचन कहा - महर्षियो! मैं पुत्र के लिये निरन्तर संतप्त रहता हूँ। उसके बिना इस राज्य आदि से भी मुझे सुख नहीं मिलता है। अत: मैंने यह विचार किया है कि पुत्र के लिये अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करूँ। इसी संकल्प के अनुसार मैं अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ करना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है कि ऋषिपुत्र ऋष्यश्रृंग के प्रभाव से मैं अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लूंगा। राजा दशरथ के मुख से निकले हुए इस वचन की वसिष्ठ आदि सब ब्राह्मणों ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ी सराहना की। 

इसके बाद ऋष्यश्रृंग आदि सब महर्षियों ने उस समय राजा दशरथ से पुन: यह बात कही - महाराज ! यज्ञसामग्री का संग्रह किया जाये, यज्ञ सम्बन्धी अश्व छोड़ा जाये तथा सरयू के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण किया जाये। तुम यज्ञ द्वारा सर्वथा चार अमित पराक्रमी पुत्र प्राप्त करोगे; क्योंकि पुत्र के लिये तुम्हारे मन में ऐसे धार्मिक विचार का उदय हुआ है। ब्राह्मणों की यह बात सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। 

उन्होंने बड़े हर्ष के साथ अपने मन्त्रियों से यह शुभ अक्षरों वाली बात कही - गुरुजनों की आज्ञा के अनुसार तुम लोग शीघ्र ही मेरे लिये यज्ञ की सामग्री जुटा दो। शक्तिशाली वीरों के संरक्षण में यज्ञीय अश्व छोड़ा जाये और उसके साथ प्रधान ऋत्विज् भी रहें। सरयू के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण हो, शास्त्रोक्त विधि के अनुसार क्रमश: शान्ति कर्म – पुण्याहवाचन आदि का विस्तारपूर्वक अनुष्ठान किया जाये, जिससे विघ्नों का निवारण हो। 

यदि इस श्रेष्ठ यज्ञ में कष्टप्रद अपराध बन जाने का भय न हो तो सभी राजा इसका सम्पादन कर सकते हैं। परंतु ऐसा होना कठिन है; क्योंकि ये विद्वान् ब्रह्मराक्षस यज्ञ में विघ्न डालने के लिये छिद्र ढूँढ़ा करते हैं। विधिहीन यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला यजमान तत्काल नष्ट हो जाता है। अत: मेरा यह यज्ञ जिस तरह विधिपूर्वक सम्पूर्ण हो सके वैसा उपाय किया जाये। तुम सब लोग ऐसे साधन प्रस्तुत करने में समर्थ हो। 

तब ‘बहुत अच्छा' कहकर सभी मन्त्रियों ने राजराजेश्वर दशरथ के उस कथन का आदर किया और उनकी आज्ञा अनुसार सारी व्यवस्था की। तत्पश्चात् उन ब्राह्मणों ने भी धर्मज्ञ नृपश्रेष्ठ दशरथ की प्रशंसा की और उनकी आज्ञा पाकर सब जैसे आये थे, वैसे ही फिर चले गये। उन ब्राह्मणों के चले जाने पर मन्त्रियों को भी विदा करके वे महाबुद्धिमान् नरेश अपने महल में गये। 

इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-४(4) समाप्त !

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