सूतजी बोले – हे महर्षियों! एक दिन की बात है असुरराज जलंधर अपने दरबारियों एवं मंत्रियों के साथ अपनी राजसभा में विराजमान था। तभी वहां असुरों के महान गुरु शुक्राचार्य पधारे। वे परम कांतिमान थे और उनके तेज से सब दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं। शुक्राचार्य को वहां आया देखकर जलंधर राजसिंहासन से उठा और आदरपूर्वक अपने गुरु को नमस्कार करने लगा। तत्पश्चात उन्हें सुयोग्य दिव्य आसन पर बिठाया। फिर उसने भी अपना आसन ग्रहण किया। अपने गुरु की यथायोग्य सेवा करने के उपरांत जलंधर ने शुक्राचार्य से प्रश्न किया - गुरुजी! राहु का सिर किसने काटा था? इसके बारे में आप मुझे सविस्तार बताइए ।
शुक्राचार्य ने अपने शिष्य सागर पुत्र जलंधर के प्रश्न का उत्तर देना आरंभ किया। वे बोले - एक बार देवताओं और असुरों ने मिलकर सागर के गर्भ में छुपे अनमोल रत्नों को निकालने के लिए सागर मंथन करने के विषय में सोचा। इस प्रकार दोनों (असुरों व देवताओं) में यह तय हुआ कि जो कुछ भी समुद्र मंथन से प्राप्त होगा उसे देवताओं और असुरों में आधा-आधा बांट लिया जाएगा।
'तब दोनों ओर से देवता और असुर प्रसन्नतापूर्वक इस कार्य को पूरा करने में लग गए। समुद्र मंथन में बहुत से बहुमूल्य रत्न आदि प्राप्त हुए, जिसे देवताओं और असुरों ने आपस में बांट लिया परंतु जब समुद्र मंथन द्वारा अमृत का कलश निकला तो राहु ने देवता का रूप धर कर अमृत पी लिया। यह जानते ही की राहु ने अमृत पी लिया है, देवताओं के पक्षधर भगवान विष्णु ने राहु का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।'
'यह सब उन्होंने देवराज इंद्र के बहकावे में आकर किया था। यह सुनते ही जलंधर के नेत्र क्रोध से लाल हो गए। उसने घस्मर नामक राक्षस का स्मरण किया, जो पलभर में ही वहां उपस्थित हो गया। जलंधर ने पूरा वृत्तांत घस्मर को बताते हुए इंद्र को बंदी बनाकर लाने का आदेश दे दिया। घस्मर जलंधर का वीर और पराक्रमी दूत था। वह आज्ञा पाते ही इंद्र देव को लाने के लिए वहां से चला गया।'
देवराज इंद्र की सभा में पहुंचकर जलंधर के दूत ने अपने स्वामी का संदेश इंद्र को सुना दिया। वह बोला - तुमने मेरे स्वामी जलंधर के पिता समुद्र देव का मंथन करके उनके सभी रत्नों को ले लिया है। तुम वह सभी रत्न लेकर और अपने अधीनस्थों के साथ मेरे स्वामी की शरण में चलो।
घस्मर के वचन सुनकर देवराज इंद्र अत्यंत क्रोधित हो गए और बोले - उस सागर ने मुझसे भयभीत होकर अपने अंदर सभी रत्नों को छुपा लिया था। उसने मेरे शत्रु असुरों की भी मदद की है और उनकी रक्षा की है। इसलिए मैंने समुद्र के कोष पर अपना अधिकार किया है। मैं किसी से नहीं डरता हूं। जाकर अपने स्वामी को बता दो कि हिम्मत है तो इंद्र के सामने आकर दिखाओ।
'देवराज इंद्र के ऐसे वचन सुनकर जलंधर का घस्मर नामक दूत वापिस लौट गया। उसने अपने स्वामी जलंधर को इंद्र के कथन से अवगत कराया। यह सुनकर जलंधर के क्रोध की कोई सीमा न रही और उसने देवलोक पर तुरंत चढ़ाई कर दी। अपनी वीर पराक्रमी असुर सेना के साथ उसने देवराज इंद्र पर आक्रमण कर दिया। उनके युद्धों के बिगुल से पूरा इंद्रलोक गूंज उठा। चारों ओर भयानक युद्ध चल रहा था। मार-काट मची हुई थी। मृत सैनिकों को देवताओं के गुरु बृहस्पति और दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य मृत संजीवनी से पुनः जीवित कर रहे थे।'
जब किसी भी प्रकार से उन्हें युद्ध में विजय नहीं मिल रही थी तो जलंधर ने अपने गुरु शुक्राचार्य से प्रश्न किया - हे गुरुदेव! मैं रोज युद्ध में देवताओं के अनेक सैनिकों को मार में गिराता हूं, फिर भी देवसेना किसी भी तरह कम नहीं हो रही है। मेरे द्वारा मारे गए सारे देवगण अगले दिन फिर से युद्ध करते हुए दिखते हैं। गुरुदेव ! मृतकों को जीवन देने वाली विद्या तो आपके पास है, फिर देवता कैसे जीवित हो जाते हैं?
तब शुक्राचार्य ने जलंधर को बताया - वत्स! द्रोणगिरी पर्वत पर अनमोल औषधि है, जो देवताओं की रक्षा कर रही है। यदि तुम उन्हें हराना चाहते हो तो द्रोणगिरी को उखाड़ कर समुद्र में फेंक दो। अपने गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा लेकर जलंधर द्रोण पर्वत की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर उसने अपनी महापराक्रमी भुजाओं से द्रोण पर्वत को उठाकर समुद्र में फेंक दिया और पुनः जाकर देवसेना से युद्ध करने लगा।
'जलंधर ने अनेक देवताओं को अपने प्रहारों से घायल कर दिया और हजारों देवगणों को पलक झपकते ही मौत के घाट उतार दिया। जब देवगुरु बृहस्पति देवताओं के लिए औषधि लेने द्रोणगिरी पहुंचे तो पर्वत को अपने स्थान पर न देखकर बहुत आश्चर्यचकित हुए। वापस आकर उन्होंने देवराज इंद्र को इस विषय में बताया और आज्ञा दी कि यह युद्ध तुरंत रोक दिया जाए, क्योंकि अब तुम असुरराज जलंधर को नहीं जीत सकोगे। ऐसी स्थिति में प्राणों की रक्षा करना ही बुद्धिमत्ता है।'
सूतजी बोले - हे शौनकजी ! इस प्रकार जब देवगुरु बृहस्पति ने देवताओं को युद्ध रोक देने के विषय में कहा तो सभी ने गुरु की आज्ञा का पालन किया और युद्ध रुक गया परंतु जलंधर का क्रोध शांत नहीं हुआ। वह इंद्र को ढूंढ़ता-ढूंढ़ता स्वर्ग लोक आ पहुंचा। जलंधर को वहां आता देखकर इंद्र व अन्य देवता अपने प्राणों की रक्षा करने हेतु वहां से भागकर भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में वैकुण्ठ लोक जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान विष्णु को प्रणाम किया और उनकी भक्ति भाव से स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने भगवान विष्णु से कहा- हे कृपानिधान! हम आपकी शरण में आए हैं, हमारी रक्षा कीजिए। तब देवताओं ने विष्णुजी को जलंधर के विषय में सब कुछ बता दिया।
समस्त वृत्तांत सुनकर श्रीहरि विष्णु ने देवताओं से कहा - वे अपने भय का त्याग कर दें। उन्होंने उनकी प्राण रक्षा करने का आश्वासन दिया और कहा कि मैं जलंधर का वध कर तुम्हें उससे मुक्ति दिलाऊंगा। यह कहकर भगवान विष्णु अपने वाहन गरुड़ पर सवार होकर चलने लगे। यह देखकर देवी लक्ष्मी के नेत्रों में आंसू आ गए और वे बोलीं - हे स्वामी! जलंधर समुद्र देव का जातक पुत्र होने के कारण मेरा भाई है। आप मेरे स्वामी होकर मेरे भाई को क्यों मारना चाहते हैं? यदि मैं आपको प्रिय हूं तो आप मेरे भाई का वध नहीं करेंगे।
अपनी प्राणवल्लभा लक्ष्मी जी के वचन सुनकर, विष्णुजी बोले - हे देवी! यदि तुम ऐसा चाहती हो तो ऐसा ही होगा परंतु तुम तो जानती ही हो कि पापी का नाश अवश्य होता है। तुम्हारा भाई जलंधर अधर्म के मार्ग पर चल रहा है और देवताओं को कष्ट पहुंचा रहा है। फिर भी मैं उसका वध अपने हाथों से नहीं करूंगा परंतु इस समय तो मुझे युद्ध में जाना होगा। यह कहकर भगवान विष्णु युद्धस्थल की ओर चल दिए।
भगवान विष्णु उस स्थान पर पहुंचे, जहां असुरराज जलंधर था। भगवान विष्णु को आया देखकर देवताओं में हर्ष और ऊर्जा का संचार हुआ। देवसेना अत्यंत रोमांचित हो गई। सभी देवताओं ने हाथ जोड़कर श्रीहरि को प्रणाम किया। भगवान विष्णु का मुखमंडल अद्भुत आभा से प्रकाशित हो रहा था। उनके दिव्य तेज के सामने दैत्य और दानवों का खड़े रह पाना मुश्किल हो रहा था। श्रीहरि विष्णु के वाहन गरुड़ के पंखों से निकलने वाली प्रबल वायु: ने वहां पर आंधी-सी ला दी थी। इस आंधी में दैत्य इस प्रकार घूमने लगे, जिस प्रकार आसमान में बादल घूमते हैं। अपनी सेना को ऐसी विकट परिस्थिति में देखकर जलंधर अत्यंत क्रोधित हो उठा।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४(4) समाप्त !
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