अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! उस समय रावण का अत्याचार बहुत बढ़ चूका था। उसकी आज्ञा से असुरों ने ऋषियों के आश्रमों में उत्पात मचाना प्रारम्भ कर दिया। अनेक ऋषि-मुनि असुरों के द्वारा मारे गए। कुछ अपंग कर दिए गए। रावण के इस अत्याचार से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी। रावण से दुखी होकर उसके द्वारा सताए ऋषियों ने महादेव से याचना कि - हे महेश्वर! आपके वरदान से यह पापी हमें नित्य त्रास दे रहा है। प्रभु इसके पापों से हमें मुक्ति दिलाइये।
ऋषियों की करुण पुकार सुनकर महादेव ने कैलाश पर तांडव नृत्य किया। उससे समस्त भू-मंडल, स्वर्ग-लोक, ब्रह्मलोक, वैकुंठ लोक आदि कम्पायमान हो गए। देवताओं ने घबराकर भगवान् विष्णु से कहा - भगवन्! महादेव का क्रोध बढ़ रहा है उन्हें आप ही शांत कर सकते हैं अन्यथा समस्त सृष्टि में समय से पूर्व ही प्रलय आ जाएगी। तब देवताओं के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप लेकर महादेव के साथ नृत्य किया। उस नृत्य के दौरान भगवान शिव और श्रीहरी के मिलन से एक दिव्य तेजपुंज प्रकट हुआ। उस तेजपुंज के प्रकट होते ही भगवान शिव का क्रोध शांत होता है।
भगवान शिव ने देवताओं से कहा - यह तेजपुंज आने वाले समय में शीघ्र ही ग्यारहवें रुद्रावतार के रूप में वानर कुल में अंजना के गर्भ से जन्म लेगा। देवराज इंद्र यह अंजना पूर्व जन्म में पुंजिकस्थला अप्सरा थी। तब आपने पवन देव को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया था। अब आप पवन देव को दंडमुक्त कर दें। ब्रह्माजी से वरदान मांगते समय रावण को मानव और वानर के हाथों अभय नहीं मिला था। अतः श्रीहरी पूर्ण मानव अवतार लेकर रावण का अंत करेंगे तथा मेरा यह रुद्रावतार इनकी सेवा के लिए ही होगा।
'इसके बाद भगवान शिव ने पवन देव को आदेश दिया कि वह इस तेजपुंज को पृथ्वी लोक पर लेजाकर महर्षि नाद के पास सुरक्षित छोड़ आएं। समय आने पर इसी तेजपुंज को वह (पवन देव) अंजना के गर्भ में स्थानांतरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। महादेव कि आज्ञा से पवन देव ने अपना तप समाप्त किया और उस तेजपुंज को महर्षि नाद को सौंप दिया।'
'श्रीराम! अब वानरराज केसरी और अंजना के विवाह का प्रसंग सुनिए। एक बार अंजना अपनी सखियों के साथ उपवन में विचरण कर रही थी। भ्रमण करते-करते वह अपने राज्य की सीमा से बहुत दूर चली जाती है। जिस स्थान पर वह जाती है वहां एक भयंकर आतंकी असुर समसादन का निवास था। उस राह जाने वाले किसी भी प्राणी को वह जीवित ही खा जाता था। जब उसने अंजना को देखा तो वह उसके रूप और सौंदर्य के मोह में उसे पकड़ कर ले जाने लगता है। उसकी सखियाँ चीख पुकार करती है। देववश उस मार्ग से वानर राज केसरी अपनी सेना की टुकड़ी के साथ जा रहे थे। चीख-पुकार की आवाज सुनकर राजा केसरी उसी दिशा में दौड़ते हुए जाते हैं।'
'अंजना को राक्षस के बंधन में देखकर वे उसे ललकारते हैं। ललकार सुनकर समसादन केसरी पर झपट पड़ता है। दोनों के मध्य घमासान युद्ध होता है। वानरराज केसरी ने अपने बाहुबल से उस राक्षस का अंत कर दिया। इस घटना के बाद केसरी व अंजना के पिता ने दोनों का विधिवत विवाह कर दिया। एक बार देवर्षि नारद केसरी और अंजना से मिलने उनके राजमहल में पधारते हैं। नारदजी को आया देख राजा-रानी उनका आदर सत्कार करते हैं। उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर देवर्षि नारद उन्हें पुत्र होने का वरदान देते हैं। नारदजी ने दोनों को शिव आराधना करने का सुझाव दिया।'
'तदनन्तर केसरी और अंजना भगवान शंकर की आराधना करते हैं। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर शिव प्रकट होते हैं तथा उन्हें वहीं आशीर्वाद देते हैं जो उन्होंने उन दोनों को उनके पूर्व जन्म में दिया था। अपने वरदान को फलीभूत करने के लिए भगवान शिव ने पवन देव को आज्ञा दी की वह महर्षि नाद के पास सुरक्षित रखे तेजपुंज को लेजाकर मेरी प्रेरणा से अंजना के गर्भ में स्थापित कर दे।'
भगवान शंकर बोले - हे पवन देव! यह अत्यंत शुभ समय है। अयोध्या के राजा महाराज दशरथ इस समय पुत्र कामेष्टि यज्ञ कर रहे हैं। उस यज्ञ से अग्निदेव हविष्यान्न खीर लेकर प्रकट होंगे। जब वे यह खीर अपनी तीनो रानियों को खिलाएंगे उस समय खीर की कुछ बूंदें धरती पर टपकने लगेंगी तब आप (पवन देव) पक्षी का वेश बनाकर उन बूंदों को धरती पर गिरने से पहले ही एकत्रित कर लेना। फिर उस यज्ञ के प्रसाद में इस तेजपुंज को समाहित कर देना। देवी अंजना प्रातः काल के समय जब अंजलि बांधे ध्यानमग्न रहेंगी तब उसी पक्षी रूप में आप यह तेजपुंज युक्त खीर का भाग उनके हाथ में डाल देना। उस समय मेरी प्रेरणा से देवी अंजना उसे मेरा प्रसाद समझ कर ग्रहण कर लेंगी और इस प्रकार आपके माध्यम से उनका गर्भाधान हो जाएगा। आपके इस कार्य से उनकी पवित्रता भी भंग नहीं होगी। मेरे वरदान स्वरुप आप भी रुद्रावतार के पिता कहलाएंगे तथा वह पवनपुत्र के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करेगा। हे वायु देव ! आप संदेह नहीं करें देवी अंजना और केसरी के स्वप्न में आकर मैं आपके उनके पुत्र का पिता होने का अधिकार उन्हें पहले ही बता चूका हूँ।
'रघुनन्दन ! इस प्रकार हनुमानजी के जन्म का रहस्य मैंने आपको सुना दिया है।'
इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-४(4) समाप्त !
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