भाग-४(4) दंडकारण्य में शिव को श्रीराम के प्रति मस्तक झुकाते देख सती का मोह तथा शिव की आज्ञा से उनके द्वारा श्रीराम की परीक्षा

 




सूतजी कहते हैं - हे मुनियों ! अभी आपने भगवान शिव और देवी सती के मंगलकारी सुयश का वर्णन सुना। अब मुझसे सती और शिव के चरित्र का प्रेम से श्रवण करो। वे दोनों दम्पति वहां लौकिकी गति का आश्रय ले नित्य-निरंतर क्रीड़ा किया करते थे। इसके उपरांत महादेवी सती को अपने पति शंकर का वियोग प्राप्त हुआ। 

'परन्तु मुनियों ! वास्तव में उन दोनों का वियोग कैसे हो सकता है ? क्योंकि वे दोनों वाणी अर्थ के समान एक दूसरे से सदा मिले-जुले हैं, शक्ति और शक्तिमान हैं तथा चित्तस्वरूप हैं। फिर भी उनमे लीला-विषयक रूचि होने के कारण वह सब कुछ संघटित हो सकता है। सती और शिव यद्यपि  ईश्वर हैं फिर भी लौकिक रीती का अनुसरण करके वे जो-जो लीलाएं करते हैं, वे सब संभव हैं। दक्षकन्या सती ने जब देखा कि मेरे पति ने मुझे त्याग दिया है, तब वे अपने पिता दक्ष के यज्ञ में गयीं और वहां भगवान शंकर का अनादर देख उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। वे ही सती पुनः हिमालय के घर पार्वती के नाम से प्रकट हुई और बड़ी भारी तपस्या करके उन्होंने पुनः भगवान शिव को प्राप्त कर लिया।'

शौनकजी ने पूछा - हे ज्ञान के भंडार सूतजी ! आप के द्वारा भगवान शिव और माता सती का चरित्र सुनकर हमारे मन में इस सम्पूर्ण कथा को विस्तार से जानने कि इच्छा है। हे मुनिवर ! दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव का अनादर कैसे हुआ ? और वहां पिता के यज्ञ में जाकर सती ने अपने शरीर का त्याग किस प्रकार किया ? उसके बाद वहां क्या हुआ ? भगवान महेश्वर ने क्या किया ? ये सब बातें आप हमे विस्तार से कहिये। इसके लिए हमारे मन में बड़ी श्रद्धा है।    

सूतजी कहते हैं - मुने ! यह सब भगवान शिव की लीला ही है। वे प्रभु अनेक प्रकार की लीला करनेवाले, स्वतन्त्र और निर्विकार हैं। देवी सती भी वैसी ही हैं। अन्यथा वैसा कर्म करने में कौन समर्थ हो सकता है। 

'एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत्‌ के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया। मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया। श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले।'

'उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान्‌ उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे। शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान्‌ के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे। श्री शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में (भेद खुलने का) डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे।'

'रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी। इस प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह (मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया। मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर (अर्थात्‌ वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आए।'

'श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया। श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं।'

'श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया। जगत्‌ को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे। सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन कहने लगीं कि) शंकरजी की सारा जगत्‌ वंदना करता है, वे जगत्‌ के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं।'

'उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती। जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान्‌ हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान्‌ विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?'

'फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था। यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए। जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं।'

'ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्म रूप भगवान्‌ श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है। यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मन में भगवान्‌ की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले - जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ। जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। 

सूतजी कहते हैं - हे मुनियों ! भगवान शिव की आज्ञा से ईश्वरी सती वहां गयीं और मन ही मन यह सोचने लगी कि "मैं वनचारी राम कि कैसे परीक्षा करुं, अच्छा मैं सीता का रूप धारण करके राम के पास चलूँ। यदि राम साक्षात् विष्णु हैं, तब तो सब कुछ जान लेंगे; अन्यथा वे मुझे नहीं पहचानेंगे।" इस प्रकार सती, सीता बनकर श्रीराम के समीप गयीं। वास्तव में वे मोह में पड़ गयीं थी।

'सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे। सती को सीता के रूप में सामने आयी देख शिव-शिव का जप करते हुए रघुकुलनन्दन श्री राम सब कुछ जान गये और हँसते हुए उन्हें नमस्कार करके बोले। पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?'

'श्रीराम कि यह बात सुनकर सती आश्चर्चकित हो गयीं। वे शिवजी की कही हुई बात का स्मरण करके और उसे यथार्थ समझ कर बहुत लज्जित हुईं। श्रीराम को साक्षात् विष्णु जान अपने रूप को प्रकट करके मन-ही-मन भगवान शिव के चरणविंदो का चिंतन कर प्रसन्नचित हुईं। सती श्रीराम से इस तरह बोली - रघुनंदन ! स्वतंत्र परमेश्वर भगवान शिव मेरे साथ पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए इस वन में आ गये थे। यहाँ सीता कि खोज में लगे हुए लक्ष्मण सहित आपको देखा। उस समय देवी सीता के लिए आपके मन में बड़ा क्लेश था और आप विरह शौक से पीड़ित दिखाई दिए। उस अवस्था में भगवान शिव ने आपको प्रणाम किया और एक वटवृक्ष के निचे खड़े हो गये। वे आपकी महिमा का गान कर रहे थे यद्यपि उस समय आप अपने चतुर्भुज रूप में नहीं थे, फिर भी आपके इस निर्मल रूप को देखकर वे आनंद विभोर हो गये। जब मैंने इस विषय में उनसे पूछा तो मेरे मन में भारी भ्रम उत्पन्न हो गया। अतः हे राघवेंद्र ! उनकी आज्ञा लेकर ही अपने भ्रम को मिटाने के लिये मैंने आपकी इस प्रकार परीक्षा ली है।'

'अब मुझे ज्ञात हो गया है कि आप ही साक्षात् विष्णु हैं। आपकी सारी प्रभुता मैंने अपने नेत्रों से देख ली है। अब मेरा संशय दूर हो गया तो भी महामते ! आप मेरी बात सुनें। मेरे सामने यह सच-सच बताएं कि आप तीनों लोकों में वंदनीय परब्रह्म, अविनाशी भगवान शिव के वंदनीय किस प्रकार हुए ? मेरे मन में यहीं एक संदेह है इसे निकाल दो और शीघ्र ही मुझे पूर्ण शांति प्रदान करो।'

'सती का यह वचन सुनकर श्रीराम प्रफुल्लित हो गये और उन्होंने अपने प्रभु भगवान शिव का स्मरण किया। इससे उनके हृदय में प्रेम की बाढ़ आ गई। हे मुने ! आज्ञा न होने के कारण वे सती के साथ भगवान शिव के निकट नहीं गये तथा मन-ही-मन उनकी महिमा का वर्णन करके श्री रघुनाथजी ने सती से कहना प्रारम्भ किया।           

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-भाग-४(4) समाप्त !                 



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