अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! सुमाली मारा गया, वसु ने उसके शरीर को भस्म कर दिया और देवताओं से पीड़ित होकर मेरी सेना भागी जा रही है, यह देख रावण का बलवान् पुत्र मेघनाद कुपित हो समस्त राक्षसों को लौटाकर देवताओं से लोहा लेने के लिये स्वयं खड़ा हुआ। वह महारथी वीर इच्छानुसार चलने वाले अग्नितुल्य तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हो वन में फैलाने वाले प्रज्वलित दावानल के समान उस देवसेना की ओर दौड़ा।
नाना प्रकार के आयुध धारण करके अपनी सेना में प्रवेश करने वाले उस मेघनाद को देखते ही सब देवता सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भाग चले। उस समय युद्ध की इच्छा वाले मेघनाद के सामने कोई भी खड़ा न हो सका। तब भयभीत हुए उन समस्त देवताओं को फटकारकर इन्द्र ने उनसे कहा - देवताओ! भय न करो, युद्ध छोड़कर न जाओ और रणक्षेत्र में लौट आओ। यह मेरा पुत्र जयन्त, जो कभी किसी से परास्त नहीं हुआ है, युद्ध के लिये जा रहा है।
'तदनन्तर इन्द्र पुत्र जयन्त देव अद्भुत सजावट से युक्त रथ पर आरूढ़ हो युद्ध के लिये आया। फिर तो सब देवता शची पुत्र जयन्त को चारों ओर से घेरकर युद्धस्थल में आये और रावण के पुत्र पर प्रहार करने लगे। उस समय देवताओं का राक्षसों के साथ और महेन्द्रकुमार का रावणपुत्र के साथ उनके बल पराक्रम के अनुरूप युद्ध होने लगा।'
'रावणकुमार मेघनाद जयन्त के सारथि मातलि पुत्र गोमुख पर सुवर्ण भूषित बाणों की वर्षा करने लगा। शची पुत्र जयन्त ने भी मेघनाद के सारथि को घायल कर दिया। तब कुपित हुए मेघनाद ने जयन्त को भी सब ओर से क्षत-विक्षत कर दिया। उस समय क्रोध से भरा हुआ बलवान् मेघनाद इन्द्रपुत्र जयन्त को आँखें फाड़-फाड़कर देखने और बाणों की वर्षा पीड़ित करने लगा। अत्यन्त कुपित हुए रावणकुमार ने देवताओं की सेना पर भी तीखी धार वाले नाना प्रकार के सहस्रों अस्त्र-शस्त्र बरसाये।'
'उसने शतघ्नी, मूसल, प्रास, गदा, खड्ग और फरसे गिराये तथा बड़े-बड़े पर्वत शिखर भी चलाये। शत्रु सेनाओं के संहार में लगे हुए रावणकुमार की माया से उस समय चारों ओर अन्धकार छा गया; अतः समस्त लोक व्यथित हो उठे। तब शचीकुमार के चारों ओर खड़ी हुई देवताओं की वह सेना बाणों द्वारा पीड़ित हो अनेक प्रकार से अस्वस्थ हो गयी। राक्षस और देवता आपस में किसी को पहचान न सके। वे जहाँ-तहाँ बिखरे हुए चारों ओर चक्कर काटने लगे।'
'अन्धकार से आच्छादित होकर वे विवेक शक्ति खो बैठे थे। अतः देवता देवताओं को और राक्षस राक्षसों को ही मारने लगे तथा बहुतेरे योद्धा युद्ध से भाग खड़े हुए। इसी बीच में पराक्रमी वीर दैत्यराज पुलोमा युद्ध में आया और शची पुत्र जयन्त को पकड़कर वहाँ से दूर हटा ले गया। वह शची का पिता और जयन्त का नाना था, अत: अपने दौहित्र को लेकर समुद्र में घुस गया।'
'देवताओं को जब जयन्त के गायब होने की बात मालूम हुई, तब उनकी सारी खुशी छिन गयी और वे दुःखी होकर चारों ओर भागने लगे। उधर अपनी सेनाओं से घिरे हुए रावणकुमार मेघनाद ने अत्यन्त कुपित हो देवताओं पर धावा किया और बड़े जोर से गर्जना की। पुत्र लापता हो गया और देवताओं की सेना में भगदड़ मच गयी है - यह देखकर देवराज इन्द्र ने मातलि से कहा - 'मेरा रथ ले आओ'।
'मातलि ने एक सजा-सजाया महाभयङ्कर, दिव्य एवं विशाल रथ लाकर उपस्थित कर दिया। उसके द्वारा हाँका जानेवाला वह रथ बड़ा ही वेगशाली था। तदनन्तर उस रथ पर बिजली से युक्त महाबली मेघ उसके अग्र भाग में वायु से चञ्चल हो बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे। देवेश्वर इन्द्र के निकलते ही नाना प्रकार के बाजे बज उठे, गन्धर्व एकाग्र हो गये और अप्सराओं के समूह नृत्य करने लगे।'
'तत्पश्चात् रुद्रों, वसुओं, आदित्यों, अश्विनीकुमारों और मरुद्गणों से घिरे हुए देवराज इन्द्र नाना प्रकार के अस्त्र- शस्त्र साथ लिये पुरी से बाहर निकले। इन्द्र के निकलते ही प्रचण्ड वायु चलने लगी। सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी और आकाश से बड़ी-बड़ी उल्काएँ गिरने लगीं। इसी बीच में प्रतापी वीर दशग्रीव भी विश्वकर्मा के बनाये हुए दिव्य रथ पर सवार हुआ। उस रथ में रोंगटे खड़े कर देने वाले विशालकाय सर्प लिपटे हुए थे। उनकी नि:श्वास - वायु से वह रथ उस युद्धस्थल में ज्वलित-सा जान पड़ता था।'
'दैत्यों और निशाचरों ने उस रथ को सब ओर से घेर रखा था। समराङ्गण की ओर बढ़ता हुआ रावण का वह दिव्य रथ महेन्द्र के सामने जा पहुँचा। रावण अपने पुत्र को रोककर स्वयं ही युद्ध के लिये खड़ा हुआ। तब रावण पुत्र मेघनाद युद्धस्थल से निकलकर चुपचाप अपने रथ पर जा बैठा। फिर तो देवताओं का राक्षसों के साथ घोर युद्ध होने लगा। जल की वर्षा करनेवाले मेघों के समान देवता युद्धस्थल में अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे।'
'राजन्! दुष्टात्मा कुम्भकर्ण नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये किसके साथ युद्ध करता था, इसका पता नहीं लगता था अर्थात् मतवाला होने के कारण अपने और पराये सभी सैनिकों के साथ जूझने लगता था। वह अत्यन्त कुपित हो दाँत, लात, भुजा, हाथ, शक्ति, तोमर और मुद्गर आदि जो ही पाता उसी से देवताओं को पीटता था। वह निशाचर महाभयङ्कर रुद्रों के साथ भिड़कर घोर युद्ध करने लगा। संग्राम में रुद्रों ने अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा उसे ऐसा क्षत-विक्षत कर दिया था कि उसके शरीर में थोड़ी-सी भी जगह बिना घाव के नहीं रह गयी थी।'
'कुम्भकर्ण का शरीर शस्त्रों से व्याप्त हो रक्त की धारा बहा रहा था। उस समय वह बिजली तथा गर्जना से युक्त जल की धारा गिराने वाले मेघ के समान जान पड़ता था। तदनन्तर घोर युद्ध में लगी हुई उस सारी राक्षससेना को रणभूमि में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले रुद्रों और मरुद्गणों ने मार भगाया।'
'कितने ही निशाचर मारे गये। कितने ही कटकर धरती पर लोटने और छटपटाने लगे और बहुत-से राक्षस प्राणहीन हो जाने पर भी उस रणभूमि में अपने वाहनों पर ही चिपटे रहे। कुछ राक्षस रथों, हाथियों, गदहों, ऊँटों, सर्पों, घोड़ों, शिशुमारों, वराहों तथा पिशाचमुख वाहनों को दोनों भुजाओं से पकड़कर उनसे लिपटे हुए निश्चेष्ट हो गये थे। कितने ही जो पहले से मूर्च्छित होकर पड़े थे, मूर्च्छा दूर होने पर उठे, किंतु देवताओं के शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो मौत के मुख में चले गये।'
'प्राणों से हाथ धोकर धरती पर पड़े हुए उन समस्त राक्षसों का इस तरह युद्ध में मारा जाना जादू सा आश्चर्यजनक जान पड़ता था। युद्ध के मुहाने पर रक्त की नदी बह चली, जिसके भीतर अनेक प्रकार के शस्त्र ग्राहों का भ्रम उत्पन्न करते थे। उस नदी के तट पर चारों ओर गीध और कौए छा गये थे। इसी बीच में प्रतापी दशग्रीव ने जब देखा कि देवताओं ने हमारे समस्त सैनिकों को मार गिराया है, तब उसके क्रोध की सीमा न रही।'
'वह समुद्र के समान दूर तक फैली हुई देवसेना में घुस गया और समराङ्गण में देवताओं को मारता एवं धराशायी करता हुआ तुरंत ही इन्द्र के सामने जा पहुँचा। तब इन्द्र ने जोर-जोरसे टङ्कार करनेवाले अपने विशाल धनुष को खींचा। उसकी टङ्कार ध्वनि से दसों दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं । उस विशाल धनुष को खींचकर इन्द्र ने रावण के मस्तक पर अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी बाण मारे। इसी प्रकार महाबाहु निशाचर दशग्रीव ने भी अपने धनुष से छूटे हुए बाणों की वर्षा से इन्द्र को ढक दिया। वे दोनों घोर युद्ध में तत्पर हो जब बाणों की वृष्टि करने लगे, उस समय सब ओर सब कुछ अन्धकार से आच्छादित हो गया। किसी को किसी भी वस्तु की पहचान नहीं हो पाती थी।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४९(49) समाप्त !
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