अगस्त्यजी कहते हैं - श्रीराम ! कैलाश-पर्वत को पार करके महा तेजस्वी दशमुख रावण सेना और सवारियों के साथ इन्द्रलोक में जा पहुँचा। सब ओर से आती हुई राक्षस सेना का कोलाहल देवलोक में ऐसा जान पड़ता था, मानो महासागर के मथे जाने का शब्द प्रकट हो रहा हो।
रावण का आगमन सुनकर इन्द्र अपने आसन से उठ गये और अपने पास आये हुए समस्त देवताओं से बोले – उन्होंने आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, साध्यों तथा मरुद्गणों से भी कहा – तुम सब लोग दुरात्मा रावण के साथ युद्ध करने के लिये तैयार हो जाओ। इन्द्र के ऐसा कहने पर युद्ध में उन्हीं के समान पराक्रम प्रकट करने वाले महाबली देवता कवच आदि धारण करके युद्ध के लिये उत्सुक हो गये।
देवराज इन्द्र को रावण से भय हो गया था। अत: वे दु:खी हो भगवान् विष्णु के पास आये और इस प्रकार बोले - विष्णुदेव! मैं राक्षस रावण के लिये क्या करूँ? अहो ! वह अत्यन्त बलशाली निशाचर मेरे साथ युद्ध करने के लिये आ रहा है। वह केवल ब्रह्माजी के वरदान के कारण प्रबल हो गया है; दूसरे किसी हेतु से नहीं। कमलयोनि ब्रह्माजी ने जो वर दे दिया है, उसे सत्य करना हम सब लोगों का कार्य है। अत: जैसे पहले आपके बल का आश्रय लेकर मैंने नमुचि, वृत्रासुर, बलि, नरक और शम्बर आदि असुरों को दग्ध कर डाला है, उसी प्रकार इस समय भी इस असुर का अन्त हो जाये, ऐसा कोई उपाय आप ही कीजिये।
‘मधुसूदन! आप देवताओं के भी देवता एवं ईश्वर हैं। इस चराचर त्रिभुवन में आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो हम देवताओं को सहारा दे सके। आप ही हमारे परम आश्रय हैं। आप पद्मनाभ हैं - आप ही के नाभिकमल से जगत की उत्पत्ति हुई है। आप ही सनातनदेव श्रीमान् नारायण हैं। आपने ही इन तीनों लोकों को स्थापित किया है और आपने ही मुझे देवराज इन्द्र बनाया है। भगवन्! आपने ही स्थावर-जङ्गम प्राणियों सहित इस समस्त त्रिलोकी की सृष्टि की है और प्रलयकाल में सम्पूर्ण भूत आप में ही प्रवेश करते हैं। इसलिये देव! आप ही मुझे कोई ऐसा अमोघ उपाय बताइये, जिससे मेरी विजय हो। क्या आप स्वयं चक्र और तलवार लेकर रावण से युद्ध करेंगे?'
इन्द्र के ऐसा कहने पर भगवान् नारायण देव बोले – देवराज! तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। मेरी बात सुनो। पहली बात तो यह है इस दुष्टात्मा रावण को सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी न तो मार सकते हैं और न परास्त ही कर सकते हैं; क्योंकि वरदान पाने के कारण यह इस समय दुर्जय हो गया है।
'अपने पुत्र के साथ आया हुआ यह उत्कट बलशाली राक्षस सब प्रकार से महान् पराक्रम प्रकट करेगा। यह बात मुझे अपनी स्वाभाविक ज्ञान दृष्टि से दिखायी दे रही है। सुरेश्वर! दूसरी बात जो मुझे कहनी है, इस प्रकार है - तुम जो मुझसे कह रहे थे कि 'आप ही उसके साथ युद्ध कीजिये' उसके उत्तर में निवेदन है कि मैं इस समय युद्धस्थल में राक्षस रावण का सामना करने के लिये नहीं जाऊँगा।'
'मुझ विष्णु का यह स्वभाव है कि मैं संग्राम में शत्रु का वध किये बिना पीछे नहीं लौटता; परंतु इस समय रावण वरदान से सुरक्षित है, इसलिये उसकी ओर से मेरी इस विजय - सम्बन्धिनी इच्छा की पूर्ति होनी कठिन है। परंतु देवेन्द्र! शतक्रतो! मैं तुम्हारे समीप इस बात की प्रतिज्ञा करता हूँ कि समय आने पर मैं ही इस राक्षस की मृत्यु का कारण बनूँगा।'
‘मैं ही रावण को उसके अग्रगामी सैनिकों सहित मारूँगा और देवताओं को आनन्दित करूँगा; परंतु यह तभी होगा जब मैं जान लूँगा कि इसकी मृत्यु का समय आ पहुँचा है। देवराज! ये सब बातें मैंने तुम्हें ठीक-ठीक बता दीं। महाबलशाली शचीवल्लभ ! इस समय तो तुम्हीं देवताओं सहित जाकर उस राक्षस के साथ निर्भय हो युद्ध करो।'
'तदनन्तर रुद्र, आदित्य, वसु, मरुद्गुण और अश्विनीकुमार आदि देवता युद्ध के लिये तैयार होकर तुरंत अमरावती पुरी से बाहर निकले और राक्षसों का सामना करने के लिये आगे बढ़े। इसी बीच में रात बीतते-बीतते सब ओर से युद्ध के लिये उद्यत हुई रावण की सेना का महान् कोलाहल सुनायी देने लगा। वे महापराक्रमी राक्षस सैनिक सबेरे जागने पर एक-दूसरे की ओर देखते हुए बड़े हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध के लिये ही आगे बढ़ने लगे।'
'तदनन्तर युद्ध के मुहाने पर राक्षसों की उस अनन्त एवं विशाल सेना को देखकर देवताओं की सेना में बड़ा क्षोभ हुआ। फिर तो देवताओं का दानवों और राक्षसों के साथ भयंकर युद्ध छिड़ गया। भयंकर कोलाहल होने लगा और दोनों ओर से नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की बौछार आरम्भ हो गयी। इसी समय रावण के मन्त्री शूरवीर राक्षस, जो बड़े भयंकर दिखायी देते थे, युद्ध के लिये आगे बढ़ आये।'
'मारीच, प्रहस्त, महापार्श्व, महोदर, अकम्पन निकुम्भ, शुक, शारण, संह्लाद, धूमकेतु, महादंष्ट्र, घटोदर, जम्बुमाली, महाह्लाद, विरूपाक्ष, सुप्तन्न, यज्ञकोप, दुर्मुख, दूषण, खर, त्रिशिरा, करवीराक्ष, सूर्यशत्रु, महाकाय, अतिकाय, देवान्तक तथा नरान्तक - इन सभी महापराक्रमी राक्षसों से घिरे हुए महाबली सुमाली ने, जो रावण का नाना था, देवताओं की सेना में प्रवेश किया। उसने कुपित हो नाना प्रकार के पैने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा समस्त देवताओं को उसी तरह मार भगाया, जैसे वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है।'
'श्रीराम ! निशाचरों की मार खाकर देवताओं की वह सेना सिंह द्वारा खदेड़े गये मृगों की भाँति सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चली। इसी समय वसुओं में से आठवें वसु ने, जिनका नाम सावित्र है, समराङ्गण में प्रवेश किया। वे नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित एवं उत्साहित सैनिकों से घिरे हुए थे। उन्होंने शत्रु सेनाओं को संत्रस्त करते हुए रणभूमि में पदार्पण किया। इनके सिवा अदिति के दो महा पराक्रमी पुत्र त्वष्टा और पूषा ने अपनी सेना के साथ एक ही समय युद्धस्थल में प्रवेश किया, वे दोनों वीर निर्भय थे।'
'फिर तो देवताओं का राक्षसों के साथ घोर युद्ध होने लगा। युद्ध से पीछे न हटने वाले राक्षसों की बढ़ती हुई कीर्ति देख-सुनकर देवता उनके प्रति बहुत कुपित थे। तत्पश्चात् समस्त राक्षस समरभूमि में खड़े हुए लाखों देवताओं को नाना प्रकार के घोर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा मारने लगे। इसी तरह देवता भी महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न घोर राक्षसों को समराङ्गण में चमकीले अस्त्र-शस्त्रों से मार- मारकर यमलोक भेजने लगे।'
'श्रीराम! इसी बीच में सुमाली नामक राक्षस ने कुपित होकर नाना प्रकार के आयुधों द्वारा देव सेना पर आक्रमण किया। उसने अत्यन्त क्रोध से भरकर बादलों को छिन्न-भिन्न कर देने वाली वायु के समान अपने भाँति-भाँति के तीखे अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा समस्त देव सेना को तितर-बितर कर दिया। उसके महान् बाणों और भयङ्कर शूलों एवं प्रासों की वर्षा से मारे जाते हुए सभी देवता युद्धक्षेत्र में संगठित होकर खड़े न रह सके।'
'सुमाली द्वारा देवताओं के भगाये जाने पर आठवें वसु सावित्र को बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी रथ सेनाओं के साथ आकर उस प्रहार करनेवाले निशाचर के सामने खड़े हो गये। महातेजस्वी सावित्र ने युद्धस्थल में अपने पराक्रम द्वारा सुमाली को आगे बढ़ने से रोक दिया। सुमाली और वसु दोनों में से कोई भी युद्ध से पीछे हटने वाला नहीं था; अत: उन दोनों में महान् एवं रोमाञ्चकारी युद्ध छिड़ गया।'
'तदनन्तर महात्मा वसु ने अपने विशाल बाणों द्वारा सुमाली के सर्प जुते हुए रथ को क्षणभर में तोड़-फोड़कर गिरा दिया। युद्ध स्थल में सैकड़ों बाणों से छिदे हुए सुमाली के रथ को नष्ट करके वसु ने उस निशाचर के वध के लिये कालदण्ड के समान एक भयङ्कर गदा हाथ में ली, जिसका अग्रभाग अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। उसे लेकर सावित्र ने सुमाली के मस्तक पर दे मारा।'
'उसके ऊपर गिरती हुई वह गदा उल्का के समान चमक उठी, मानो इन्द्र के द्वारा छोड़ी गयी विशाल अशनि भारी गड़गड़ाहट के साथ किसी पर्वत के शिखर पर गिर रही हो। उसकी चोट लगते ही समराङ्गण में सुमाली का काम तमाम हो गया। न उसकी हड्डी का पता लगा, न मस्तक का और न कहीं उसका मांस ही दिखायी दिया। वह सब कुछ उस गदा की आग से भस्म हो गया। युद्ध में सुमाली को मारा गया देख वे सब राक्षस एक-दूसरे को पुकारते हुए एक साथ चारों ओर भाग खड़े हुए। वसु के द्वारा खदेड़े जानेवाले वे राक्षस समरभूमि में खड़े न रह सके।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४८(48) समाप्त !
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