अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! जब सूर्य अस्ताचल को चले गये, तब पराक्रमी दशग्रीव ने अपनी सेना के साथ कैलाश पर ही रात में ठहर जाना ठीक समझा। उसने वहीं छावनी डाल दी। फिर, कैलाश के ही समान श्वेत कान्तिवाले निर्मल चन्द्रदेव का उदय हुआ और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित निशाचरों की वह विशाल सेना गाढ़ निद्रा में निमग्न हो गयी। परंतु महापराक्रमी रावण उस पर्वत के शिखर पर चुपचाप बैठकर चन्द्रमा की चाँदनी से सुशोभित होनेवाले उस पर्वत के विभिन्न स्थानों की जो सम्पूर्ण कामभोग के उपयुक्त थे नैसर्गिक छटा निहारने लगा।
'कहीं कनेर के दीप्तिमान् कानन शोभा पाते थे, कहीं कदम्ब और बकुल (मौलसिरी) वृक्षों के समूह अपनी रमणीयता बिखेर रहे थे, कहीं मन्दाकिनी के जल से भरी हुई और प्रफुल्ल कमलों से अलंकृत पुष्करिणियाँ शोभा दे रही थीं, कहीं चम्पा, अशोक, पुंनाग (नागकेसर ), मन्दार, आम, पाहूर, लोध, प्रियङ्गु, अर्जुन, केतक, तगर, नारिकेल, प्रियाल और पनस आदि वृक्ष अपने पुष्प आदि की शोभा से उस पर्वत शिखर के वन्य प्रान्त को उद्भासित कर रहे थे।'
'मधुर कण्ठवाले कामार्त किन्नर अपनी कामिनियों के साथ वहाँ रागयुक्त गीत गा रहे थे, जो कानों में पड़कर मन का आनन्द-वर्धन करते थे। जिनके नेत्र प्रान्त मद से कुछ लाल हो गये थे, वे मदमत्त विद्याधर युवतियों के साथ क्रीडा करते और हर्षमग्न होते थे। वहाँ से कुबेर के भवन में गाती हुई अप्सराओं के गीत की मधुर ध्वनि घण्टानाद के समान सुनायी पड़ती थी। वसन्त-ऋतु के सभी पुष्पों की गन्ध से युक्त वृक्ष हवा के थपेड़े खाकर फूलों की वर्षा करते हुए उस समूचे पर्वत को सुवासित-सा कर रहे थे।'
'विविध कुसुमों के मधुर मकरन्द तथा पराग से मिश्रित प्रचुर सुगन्ध लेकर मन्द मन्द बहती हुई सुखद वायु रावण की काम वासना को बढ़ा रही थी। सङ्गीत की मीठी तान, भाँति-भाँति के पुष्पों की समृद्धि, शीतल वायु का स्पर्श, पर्वत के (रमणीयता आदि ) आकर्षक गुण, रजनी की मधुवेला और चन्द्रमा का उदय - उद्दीपन के इन सभी उपकरणों के कारण वह महापराक्रमी रावण काम के अधीन हो गया और बारम्बार लंबी साँस खींचकर चन्द्रमा की ओर देखने लगा।'
'इसी बीच में समस्त अप्सराओं में श्रेष्ठ सुन्दरी, पूर्ण चन्द्रमुखी रम्भा दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हो उस मार्ग से आ निकली। उसके अङ्गों में दिव्य चन्दन का अनुलेप लगा था और केशपाश में पारिजात के पुष्प गुँथे हुए थे। दिव्य पुष्पों से अपना श्रृङ्गार करके वह प्रिय-समागमरूप दिव्य उत्सव के लिये जा रही थी।'
'मनोहर नेत्र तथा काञ्ची की लड़ियों से विभूषित पीन जघन स्थल को वह रति के उत्तम उपहार के रूप में धारण किये हुए थी। उसके कपोल आदि पर हरिचन्दन से चित्र - रचना की गयी थी। वह छहों ऋतुओं में होनेवाले नूतन पुष्पों के आर्द्र हारों से विभूषित थी और अपनी अलौकिक कान्ति, शोभा, द्युति एवं कीर्ति से युक्त हो उस समय दूसरी लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी।'
'उसका मुख चन्द्रमा के समान मनोहर था और दोनों सुन्दर भौंहें कमान-सी दिखायी देती थीं। वह सजल जलधर के समान नील रंग की साड़ी से अपने अङ्गों को ढके हुए थी। उसकी जाँघों का चढ़ाव उतार हाथी की सूँड के समान था। दोनों हाथ ऐसे कोमल थे, मानो (देहरूपी रसाल की डाल के) नये-नये पल्लव हों। वह सेना के बीच से होकर जा रही थी, अतः रावण ने उसे देख लिया।'
देखते ही वह कामदेव के बाणों का शिकार हो गया और खड़ा होकर उसने अन्यत्र जाती हुई रम्भा का हाथ पकड़ लिया। बेचारी अबला लाज से गड़ गयी; परंतु वह निशाचर मुसकराता हुआ उससे बोला – वरारोहे! कहाँ जा रही हो? किसकी इच्छा पूर्ण करने के लिये स्वयं चल पड़ी हो? किसके भाग्योदय का समय आया है, जो तुम्हारा उपभोग करेगा? कमल और उत्पल की सुगन्ध धारण करने वाले तुम्हारे इस मनोहर मुखारविन्द का रस अमृत का भी अमृत है। आज इस अमृत रस का आस्वादन करके कौन तृप्त होगा ?
‘भीरु! परस्पर सटे हुए तुम्हारे ये सुवर्णमय कलशों के सदृश सुन्दर पीन उरोज किसके वक्ष:स्थलों को अपना स्पर्श प्रदान करेंगे? सोने की लड़ियों से विभूषित तथा सुवर्णमय चक्र के समान विपुल विस्तार से युक्त तुम्हारे पीन जघन स्थल पर जो मूर्तिमान् स्वर्ग-सा जान पड़ता है, आज कौन आरोहण करेगा?'
‘इन्द्र, उपेन्द्र अथवा अश्विनीकुमार ही क्यों न हों, इस समय कौन पुरुष मुझसे बढ़कर है? भीरु ! तुम मुझे छोड़कर अन्यत्र जा रही हो, यह अच्छा नहीं है। स्थूल नितम्ब वाली सुन्दरी ! यह सुन्दर शिला है, इस पर बैठकर विश्राम करो। इस त्रिभुवन का जो स्वामी है, वह मुझसे भिन्न नहीं है - मैं ही सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हूँ। तीनों लोकों के स्वामी का भी स्वामी तथा विधाता यह दशमुख रावण आज इस प्रकार विनीत भाव से हाथ जोड़कर तुमसे याचना करता है। सुन्दरी! मुझे स्वीकार करो।'
रावण के ऐसा कहने पर रम्भा काँप उठी और हाथ जोड़कर बोली - प्रभो! प्रसन्न होइये - मुझपर कृपा कीजिये। आपको ऐसी बात मुँह से नहीं निकालनी चाहिये; क्योंकि आप मेरे गुरुजन हैं - पिता के तुल्य हैं। यदि दूसरे कोई पुरुष मेरा तिरस्कार करने पर उतारू हों तो उनसे भी आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये। मैं धर्मतः आपकी पुत्रवधू हूँ - यह आपसे सच्ची बात बता रही हूँ।'
रम्भा अपने चरणों की ओर देखती हुई नीचे मुँह किये खड़ी थी। रावण की दृष्टि पड़ने मात्र से भय के कारण उसके रोंगटे खड़े हो गये थे। उस समय उससे रावण ने कहा - रम्भे! यदि यह सिद्ध हो जाय कि तुम मेरे पुत्र की पत्नी हो, तभी मेरी पुत्रवधू हो सकती हो, अन्यथा नहीं।'
तब रम्भा ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर रावण को इस प्रकार उत्तर दिया – राक्षसशिरोमणे! धर्म के अनुसार मैं आपके पुत्र की ही भार्या हूँ। आपके बड़े भाई कुबेर के पुत्र मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। वे तीनों लोकों में ‘नलकूबेर' नाम से विख्यात हैं तथा धर्मानुष्ठान की दृष्टि से ब्राह्मण और पराक्रम की दृष्टि से क्षत्रिय हैं। वे क्रोध में अग्नि और क्षमा में पृथ्वी के समान हैं। उन्हीं लोकपाल कुमार प्रियतम नलकूबेर को आज मैंने मिलने के लिये संकेत दिया है।
'यह सारा श्रृङ्गार मैंने उन्हीं के लिये धारण किया है; जैसे उनका मेरे प्रति अनुराग है, उसी प्रकार मेरा भी उन्हीं के प्रति प्रगाढ़ प्रेम है, दूसरे किसी के प्रति नहीं। शत्रुओं का दमन करने वाले राक्षसराज ! इस सत्य को दृष्टि में रखकर आप इस समय मुझे छोड़ दीजिये; वे मेरे धर्मात्मा प्रियतम उत्सुक होकर मेरी प्रतीक्षा करते होंगे। उनकी सेवा के इस कार्य में आपको यहाँ विघ्न नहीं डालना चाहिये। मुझे छोड़ दीजिये। राक्षसराज ! आप सत्पुरुषों द्वारा आचरित धर्म के मार्ग पर चलिये। आप मेरे माननीय गुरुजन हैं, अत: आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये।'
यह सुनकर दशग्रीव ने उसे नम्रतापूर्वक उत्तर दिया - रम्भे! तुम अपने को जो मेरी पुत्रवधू बता रही हो, वह ठीक नहीं जान पड़ता। यह नाता-रिश्ता उन स्त्रियों के लिये लागू होता है, जो किसी एक पुरुष की पत्नी हों। तुम्हारे देवलोक की तो स्थिति ही दूसरी है। वहाँ सदा से यही नियम चला आ रहा है कि अप्सराओं का कोई पति नहीं होता। वहाँ कोई एक स्त्री के साथ विवाह करके नहीं रहता है।
ऐसा कहकर उस राक्षस ने रम्भा को बलपूर्वक शिला पर बैठा लिया और कामभोग में आसक्त हो उसके साथ समागम किया। उसके पुष्पहार टूटकर गिर गये, सारे आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये। उपभोग के बाद रावण ने रम्भा को छोड़ दिया। उसकी दशा उस नदी के समान हो गयी जिसे किसी गजराज ने क्रीडा करके मथ डाला हो; वह अत्यन्त व्याकुल हो उठी।
'वेणी-बन्ध टूट जाने से उसके खुले हुए केश हवा में उड़ने लगे – उसका श्रृङ्गार बिगड़ गया। कर- पल्लव काँपने लगे। वह ऐसी लगती थी - मानो फूलों से सुशोभित होने वाली किसी लता को हवा ने झकझोर दिया हो। लज्जा और भय से काँपती हुई वह नलकूबेर के पास गयी और हाथ जोड़कर उनके पैरों पर गिर पड़ी।'
रम्भा को इस अवस्था में देखकर महामना नलकूबेर ने पूछा - 'भद्रे ! क्या बात है? तुम इस तरह मेरे पैरों पर क्यों पड़ गयीं?'
वह थर-थर काँप रही थी। उसने लंबी साँस खींचकर हाथ जोड़ लिये और जो कुछ हुआ था, वह सब ठीक-ठीक बताना आरम्भ किया - देव! यह दशमुख रावण स्वर्गलोक पर आक्रमण करने के लिये आया है। इसके साथ बहुत बड़ी सेना है। उसने आज की रात में यहीं डेरा डाला है। शत्रुदमन वीर! मैं आपके पास आ रही थी, किंतु उस राक्षस ने मुझे देख लिया और मेरा हाथ पकड़ लिया। फिर पूछा- 'तुम किसकी स्त्री हो ?'
‘मैंने उसे सब कुछ सच-सच बता दिया, किंतु उसका हृदय कामजनित मोह से आक्रान्त था, इसलिये मेरी वह बात नहीं सुनी। देव! मैं बारम्बार प्रार्थना करती ही रह गयी कि प्रभो! मैं आपकी पुत्रवधू हूँ, मुझे छोड़ दीजिये; किंतु उसने मेरी सारी बातें अनसुनी कर दीं और बलपूर्वक मेरे साथ अत्याचार किया।'
'उत्तम व्रत का पालन करने वाले प्रियतम् ! इस बेबसी की दशा में मुझ से जो अपराध बन गया है, उसे आप क्षमा करें। सौम्य ! नारी अबला होती है, उसमें पुरुष के बराबर शारीरिक बल नहीं होता है इसीलिये उस दुष्ट से अपनी रक्षा मैं नहीं कर सकी।'
यह सुनकर वैश्रवण कुमार नलकूबेर को बड़ा क्रोध हुआ। रम्भा पर किये गये उस महान् अत्याचार को सुनकर उन्होंने ध्यान लगाया। उस समय दो ही घड़ी में रावण की उस करतूत को जानकर कुबेर पुत्र नलकूबेर के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और उन्होंने अपने हाथ में जल लिया। जल लेकर पहले विधिपूर्वक आचमन करके नेत्र आदि सारी इन्द्रियों का स्पर्श करने के अनन्तर उन्होंने राक्षसराज को बड़ा भयंकर शाप दिया।
वे बोले - भद्रे! तुम्हारी इच्छा न रहने पर भी रावण ने तुमपर बलपूर्वक अत्याचार किया है। अत: वह आज से दूसरी किसी ऐसी युवती से समागम नहीं कर सकेगा जो उसे चाहती न हो। यदि वह काम पीड़ित होकर उसे न चाहने वाली युवती पर बलात्कार करेगा तो तत्काल उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जायेंगे।
'नलकूबेर के मुख से प्रज्वलित अग्नि के समान दग्ध कर देनेवाले इस शाप के निकलते ही देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। ब्रह्मा आदि सभी देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ। रावण के द्वारा की गयी लोक की सारी दुर्दशा को और उस राक्षस की मृत्यु को भी जानकर ऋषियों तथा पितरों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।'
'उस रोमाञ्चकारी शाप को सुनकर दशग्रीव ने अपने को न चाहने वाली स्त्रियों के साथ बलात्कार करना छोड़ दिया। वह जिन-जिन पतिव्रता स्त्रियों को हरकर ले गया था, उन सबके मन को नलकूबेर का दिया वह शाप बड़ा प्रिय लगा। उसे सुनकर वे सब की सब बहुत प्रसन्न हुईं।'
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४७(47) समाप्त !
No comments:
Post a Comment