भाग-४६(46) यज्ञों द्वारा मेघनाद की सफलता, विभीषण का रावण को पर स्त्री-हरण के दोष बताना, रावण का देवलोक पर आक्रमण करना

 


अगस्त्यजी कहते हैं - श्रीराम ! खर को राक्षसों की भयङ्कर सेना देकर और बहिन को धीरज बँधाकर रावण बहुत ही प्रसन्न और स्वस्थचित्त हो गया। तदनन्तर बलवान् राक्षसराज रावण लङ्का के निकुम्भिला नामक उत्तम उपवन में गया। उसके साथ बहुत-से सेवक भी थे। रावण अपनी शोभा एवं तेज से अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। उसने निकुम्भिला में पहुँचकर देखा, एक यज्ञ हो रहा है, जो सैकड़ों यूपों से व्याप्त और सुन्दर देवालयों से सुशोभित है। 

फिर वहाँ उसने अपने पुत्र मेघनाद को देखा, जो काला मृग चर्म पहने हुए तथा कमण्डलु, शिखा और ध्वज धारण किये बड़ा भयङ्कर जान पड़ता था। उसके पास पहुँचकर लङ्केश्वर ने अपनी भुजाओं द्वारा उसका आलिङ्गन किया और पूछा - पुत्र! यह क्या कर रहे हो? ठीक-ठीक बताओ।  

मेघनाद यज्ञ के नियमानुसार मौन रहा उस समय पुरोहित महातपस्वी द्विजश्रेष्ठ शुक्राचार्य ने, जो यज्ञ- सम्पत्ति की समृद्धि के लिये वहाँ आये थे, राक्षस शिरोमणि रावण से कहा - राजन्! मैं सब बातें बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनिये - आपके पुत्र ने बड़े विस्तार के साथ सात यज्ञों का अनुष्ठान किया है। अग्निष्टोम, अश्वमेध, बहुसुवर्णक, राजसूय, गोमेध तथा वैष्णव – ये छ: यज्ञ पूर्ण करके जब इसने सातवाँ माहेश्वर यज्ञ, जिसका अनुष्ठान दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है, आरम्भ किया, तब आपके इस पुत्र को साक्षात् भगवान् पशुपति से बहुत से वर प्राप्त हुए। साथ ही इच्छानुसार चलने वाला एक दिव्य आकाशचारी रथ भी प्राप्त हुआ है, इसके सिवा तामसी नाम की माया उत्पन्न हुई है, जिससे अन्धकार उत्पन्न किया जाता है। 

'राक्षसेश्वर ! संग्राम में इस माया का प्रयोग करने पर देवता और असुरों को भी प्रयोग करने वाले पुरुष की गतिविधि का पता नहीं लग सकता। राजन्! बाणों से भरे हुए दो अक्षय तरकस, अटूट धनुष तथा रणभूमि में शत्रु का विध्वंस करने वाला प्रबल अस्त्र - इन सब की प्राप्ति हुई है। दशानन! तुम्हारा यह पुत्र इन सभी मनोवाञ्छित वरों को पाकर आज यज्ञ की समाप्ति के दिन तुम्हारे दर्शन की इच्छा से यहाँ खड़ा है।' 

यह सुनकर दशग्रीव ने कहा- पुत्र! तुमने यह अच्छा नहीं किया है; क्योंकि इस यज्ञसम्बन्धी द्रव्यों द्वारा मेरे शत्रुभूत इन्द्र आदि देवताओं का पूजन हुआ है। फिर भी, जो कर दिया, सो अच्छा ही किया; इसमें संशय नहीं है। सौम्य ! अब आओ, चलो। हमलोग अपने घर को चलें। 

'तदनन्तर दशग्रीव ने अपने पुत्र और विभीषण के साथ जाकर पुष्पक विमान से उन सब स्त्रियों को उतारा, जिन्हें हरकर ले आया था। वे अब भी आँसू बहाती हुई गद्दकण्ठ से विलाप कर रही थीं। वे उत्तम लक्षणों से सुशोभित होती थीं और देवताओं, दानवों तथा राक्षसों के घर की रत्न थीं।' 

उनमें रावण की आसक्ति जानकर धर्मात्मा विभीषण ने कहा – राजन्! ये आचरण यश, धन और कुल का नाश करने वाले हैं। इनके द्वारा जो प्राणियों को पीड़ा दी जाती है, उससे बड़ा पाप कुछ नहीं होता है। इस बात को जानते हुए भी आप सदाचार का उल्लङ्घन करके स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो रहे हैं। महाराज! इन बेचारी अबलाओं के बन्धु बान्धवों को मारकर आप इन्हें हर लाये हैं और इधर आपका उल्लङ्घन करके - आपके सिर पर लात रखकर मधु ने मौसेरी बहिन कुम्भीनसी का अपहरण कर लिया। 

रावण बोला - मैं नहीं समझता कि तुम क्या कह रहे हो। जिसका नाम तुमने मधु बताया है, वह कौन है? 

तब विभीषण ने अत्यन्त कुपित होकर भाई रावण से कहा – सुनिये, आपके इस पापकर्म का फल हमें बहिन के अपहरण के रूप में प्राप्त हुआ है। हमारे नाना सुमाली के जो बड़े भाई माल्यवान् नाम से विख्यात, बुद्धिमान् और बड़े-बूढ़े निशाचर हैं, वे हमारी माता कैकसी के ताऊ हैं। इसी नाते वे हमलोगों के भी बड़े नाना हैं। उनकी पुत्री अनला हमारी मौसी हैं। उन्हीं की पुत्री कुम्भीनसी है। हमारी मौसी अनला की बेटी होने से ही यह कुम्भीनसी हम सब भाइयों की धर्मतः बहिन होती है। 

'राजन्! आपका पुत्र मेघनाद जब यज्ञ में तत्पर हो गया, मैं तपस्या के लिये पानी के भीतर रहने लगा और महाराज! भैया कुम्भकर्ण भी जब नींद का आनन्द लेने लगे, उस समय महाबली राक्षस मधु ने यहाँ आकर हमारे आदरणीय मन्त्रियों को, जो राक्षसों में श्रेष्ठ थे, मार डाला और कुम्भीनसी का अपहरण कर लिया।' 

‘महाराज! यद्यपि कुम्भीनसी अन्त: पुर में भलीभाँति सुरक्षित थी तो भी उसने आक्रमण करके बलपूर्वक उसका अपहरण किया। पीछे इस घटना को सुनकर भी हम लोगों ने क्षमा ही की। मधु का वध नहीं किया; क्योंकि जब कन्या विवाह योग्य हो जाये तो उसे किसी योग्य पति के हाथ में सौंप देना ही उचित है। हम भाइयों को अवश्य यह कार्य पहले कर देना चाहिये था। हमारे यहाँ से जो बलपूर्वक कन्या का अपहरण हुआ है, यह आपकी इस दूषित बुद्धि एवं पापकर्म का फल है, जो आपको इसी लोक प्राप्त हो गया। यह बात आपको भलीभाँति विदित हो जानी चाहिये।' 

विभीषण की यह बात सुनकर राक्षसराज रावण अपनी की हुई दुष्टता से पीड़ित हो तपे हुए जल वाले समुद्र के समान संतप्त हो उठा। वह रोष से जलने लगा और उसके नेत्र लाल हो गये। वह बोला - मेरा रथ शीघ्र ही जोतकर आवश्यक सामग्री से सुसज्जित कर दिया जाये। मेरे शूरवीर सैनिक रणयात्रा के लिये तैयार हो जायें। भाई कुम्भकर्ण तथा अन्य मुख्य-मुख्य निशाचर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो सवारियों पर बैठें। आज रावण का भय न मानने वाले मधु का समराङ्गण में वध करके मित्रों को साथ लिये युद्ध की इच्छा से देवलोक की यात्रा करूँगा।  

'रावण की आज्ञा से युद्ध में उत्साह रखने वाले श्रेष्ठ राक्षसों की चार हजार अक्षौहिणी सेना नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये शीघ्र लङ्का से बाहर निकली। मेघनाद समस्त सैनिकों को साथ लेकर सेना के आगे-आगे चला। रावण बीच में था और कुम्भकर्ण पीछे-पीछे चलने लगा। विभीषण धर्मात्मा थे। इसलिये वे लङ्का में ही रहकर धर्म का आचरण करने लगे। शेष सभी महाभाग निशाचर मधुपुर की ओर चल दिये।' 

'गदहे, ऊँट, घोड़े, शिशुमार (सूँस) और बड़े-बड़े नाग आदि दीप्तिमान् वाहनों पर आरूढ़ हो सब राक्षस आकाश को अवकाश रहित करते हुए चले। रावण को देवलोक पर आक्रमण करते देख सैकड़ों दैत्य भी उसके पीछे-पीछे चले, जिनका देवताओं के साथ वैर बँध गया था। मधुपुर में पहुँचकर दशमुख रावण ने वहाँ कुम्भीनसी को तो देखा, किंतु मधु का दर्शन उसे नहीं हुआ उस समय कुम्भीनसी ने भयभीत हो हाथ जोड़कर राक्षसराज के चरणों पर मस्तक रख दिया।' 

तब राक्षसप्रवर रावण ने कहा – 'डरो मत'; फिर उसने कुम्भीनसी को उठाया और कहा - मैं 'तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? 

वह बोली - दूसरों को मान देनेवाले राक्षसराज ! महाबाहो ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो आज यहाँ मेरे पति का वध न कीजिये; क्योंकि कुलवधुओं के लिये वैधव्य (विधवापन) के समान दूसरा कोई भय नहीं बताया जाता है। वैधव्य ही नारी के लिये सबसे बड़ा भय और सबसे महान् संकट है। राजेन्द्र ! आप सत्यवादी हों - अपनी बात सच्ची करें। मैं आपसे पति के जीवन की भीख माँगती हूँ, आप मुझ दु:खिया बहिन की ओर देखिये, मुझ पर कृपा कीजिये। महाराज ! आपने स्वयं भी मुझे आश्वासन देते हुए कहा था कि ‘डरो मत।' अत: अपनी उसी बात की लाज रखिये। 

यह सुनकर रावण प्रसन्न हो गया। वह वहाँ खड़ी हुई अपनी बहिन से बोला - तुम्हारे पति कहाँ हैं? उन्हें शीघ्र मुझे सौंप दो। मैं उन्हें साथ लेकर देवलोक पर विजय के लिये जाऊँगा। तुम्हारे प्रति करुणा और सौहार्द के कारण मैंने मधु के वध का विचार छोड़ दिया है। 

रावण के ऐसा कहने पर राक्षस कन्या कुम्भीनसी अत्यन्त प्रसन्न-सी होकर अपने सोये हुए पति के पास गयी और उस निशाचर को उठाकर बोली – राक्षसप्रवर! ये मेरे भाई महाबली दशग्रीव पधारे हैं और देवलोक पर विजय पाने की इच्छा लेकर वहाँ जा रहे हैं। इस कार्य के लिये ये आपको भी सहायक बनाना चाहते हैं; अत: आप अपने बन्धु बान्धवों के साथ इनकी सहायता के लिये जाइये। मेरे नाते आप पर इनका स्नेह है, आपको जामाता मानकर ये आपके प्रति अनुराग रखते हैं; अत: आपको इनके कार्य की सिद्धि के लिये अवश्य सहायता करनी चाहिये। 

'पत्नी की यह बात सुनकर मधु ने 'तथास्तु' कहकर सहायता देना स्वीकार कर लिया। फिर वह न्यायोचित रीति से निकट जाकर निशाचर शिरोमणि राक्षसराज रावण से मिला। मिलकर उसने धर्म के अनुसार उसका स्वागत-सत्कार किया। मधु के भवन में यथोचित आदर-सत्कार पाकर पराक्रमी दशग्रीव वहाँ एक रात रहा, फिर सबेरे उठकर वहाँ से जाने को उद्यत हुआ। मधुपुर से यात्रा करके महेन्द्र के तुल्य पराक्रमी राक्षसराज रावण सायंकाल तक कुबेर के निवास-स्थान कैलाश पर्वत पर जा पहुँचा। वहाँ उसने अपनी सेना का पड़ाव डालने का विचार किया। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४६(46) समाप्त !

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