सूतजी बोले - हे परमप्रिय सखाओं! उसके उपरांत ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर महादेव जी ने अग्नि की स्थापना कराई तथा अपनी प्राणवल्लभा पत्नी पार्वती को अपने आगे बैठाकर चारों वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सामवेद के मंत्रों द्वारा हवन कराकर उसमें आहुतियां दीं। उस समय पार्वती के भाई मैनाक ने उनके हाथों में खीलें दीं फिर लोक मर्यादा के अनुसार भगवान शिव और देवी पार्वती अग्नि के फेरे लेने लगे।
'उस समय परमपिता ब्रह्माजी, शिवजी की माया से मोहित हो गए।ब्रह्माजी की दृष्टि जैसे ही परम सुंदर दिव्यांगना देवी पार्वती के शुभ चरणों पर पड़ी वे काम से पीड़ित हो गए। उनको मन में बड़ी लज्जा का अनुभव हुआ। किसी की दृष्टि उनके इन भावों पर पड़ जाए इस हेतु उन्होंने अपने मन के भावों को दबा लिया परंतु भगवान शिव तो सर्वव्यापी और सर्वेश्वर हैं। भला उनसे कुछ कैसे छिप सकता है। उनकी दृष्टि ब्रह्माजी पर पड़ गई और उन्हें ब्रह्माजी के मन में उत्पन्न हुए बुरे विचार का ज्ञान हो गया। भगवान शिव के क्रोध की कोई सीमा न रही। कुपित होकर शिवजी ब्रह्माजी को मारने हेतु आगे बढ़ने लगे। उन्हें क्रोधित देखकर ब्रह्मदेव भय से कांपने लगे तथा वहां उपस्थित अन्य देवता भी भयभीत हो गए।'
भगवान शिव के क्रोध की शांति के लिए सभी देवता एक स्वर में शिवजी से बोले - हे सदाशिव! आप दयालु और करुणानिधान हैं। आप तो सदा ही अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें उनकी इच्छित वस्तु प्रदान करते हैं। भगवन्, आप तो सत्चित् और आनंद स्वरूप हैं। प्रसन्न होकर मुक्ति पाने की इच्छा से मुनिजन आपके चरण कमलों का आश्रय ग्रहण करते हैं। हे परमेश्वर! भला आपके तत्व को कौन जान सकता है। भगवन्, अपनी भूल के लिए ब्रह्माजी क्षमाप्रार्थी हैं। आप तो भक्तों के सदा वश में है। हम सब भक्तजन आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप ब्रह्माजी की इस भूल को क्षमा कर दें और उन्हें निर्भय कर दें।
'इस प्रकार देवताओं द्वारा की गई स्तुति और क्षमा प्रार्थना के फलस्वरूप भगवान शिव ने ब्रह्माजी को निर्भय कर दिया। तब ब्रह्माजी ने अपने उन भावों को सख्ती के साथ मन में ही दबा दिया। फिर भी उन भावों के जन्म से हजारों बालखिल्य (ये ऋषि अंगूठे के आकार के होते थे) ऋषियों की उत्पत्ति हो गई, जो बड़े तेजस्वी थे। यह जानकर कि कहीं उन ऋषियों को देख शिवजी क्रोधित न हो जाएं, नारदजी ने उन्हें गंधमादन पर्वत पर जाने का आदेश दे दिया। बालखिल्य ऋषियों को देवर्षि ने सूर्य भगवान की आराधना और तपस्या करने का आदेश प्रदान किया। तब वे बालखिल्य ऋषि तुरंत ब्रह्माजी और भगवान शिव को प्रणाम करके गंधमादन पर्वत पर चले गए।'
उसके पश्चात् ब्रह्माजी ने भगवान शिव की आज्ञा पाकर शिव-पार्वती विवाह के शेष कार्यों को पूरा कराया। सर्वप्रथम शिवजी व पार्वती जी के मस्तक का अभिषेक हुआ। तत्पश्चात वहां उपस्थित ब्राह्मणों ने दोनों को ध्रुव का दर्शन कराया और उसके बाद हृदय छूना और स्वस्ति पाठ आदि कार्यों को पूरा कराया। यह सब कार्य पूरे होने के बाद भगवान शिव ने देवी पार्वती की मांग में सौभाग्य और सुहाग की निशानी माने जाने वाला सिंदूर भरा। मांग में सिंदूर भरते ही देवी पार्वती का रूप लाखों कमलदलों के समान खिल उठा। उनकी शोभा देखते ही बनती थी। सिंदूर से उनके सौंदर्य में अभिवृद्धि हो गई थी। इसके पश्चात शिव-पार्वती को एक साथ एक सुयोग्य आसन पर बिठाया गया और वहां उन्होंने अन्नप्राशन किया।'
'इस प्रकार इस उत्तम विवाह के सभी कार्य विधि-विधान से संपन्न हो गए। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर, इस विवाह को सानंद संपन्न कराने हेतु ब्रह्माजी को आचार्य मानकर पूर्णपात्र दान किया। फिर गर्ग मुनि को गोदान किया तथा वैवाहिक कार्य पूरा करने में सहयोग करने वाले सब ऋषि-मुनियों को सौ-सौ स्वर्ण मुद्राएं और अनेक बहुमूल्य रत्न दान में दिए। तब सब ओर आनंद का वातावरण था। सभी बहुत प्रसन्न थे और शिव-पार्वती की जय-जयकार कर रहे थे। तब ब्रह्माजी, श्रीहरि और अन्य ऋषि-मुनि सभी देवताओं सहित शैलराज की आज्ञा लेकर जनवासे में वापिस आ गए।'
'हिमालय नगर की स्त्रियां, पुरनारियां और पार्वती की सखियां भगवान शिव और पार्वती को लेकर कोहबर (विवाह कक्ष) में गईं और वहां उनसे लोकोचार रीतियां कराने के उपरांत उन्हें कौतुकागार (क्रीडागृह या विनोदगृह अर्थात हंसी-ठिठोली का कक्ष) में ले जाकर अन्य रीति-रिवाजों और रस्मों को सानंद संपन्न कराया। उसके पश्चात उन दोनों को उत्साहपूर्वक केलिग्रह में ले जाया गया। केलिग्रह में भगवान शिव और पार्वती के गंठबंधन को खोला गया। उस समय शिव-पार्वती की शोभा देखने योग्य थी। उस समय उनकी अनुपम मनोहारी छवि देखने के लिए सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, गंगा, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुंधती, अहिल्या, तुलसी (यहाँ तुलसी पार्वती की सखी का नाम है अतः इसे पूजा के लिए उपयोग होने वाली तुलसी नहीं समझाना चाहिए), स्वाहा, रोहिणी, पृथ्वी, संज्ञा, शतरूपा तथा रति नाम की सोलह दिव्य देवांगनाएं, देवकन्याएं, नागकन्याएं और मुनि कन्याएं वहां पधारी और भगवान शिव से हास्य-विनोद करने लगीं।
सरस्वती बोलीं – भगवान शिव ! अब तो आपने चंद्रमुखी पार्वती को पत्नी रूप में प्राप्त कर लिया है। अब इनके चंद्रमुख को देख-देखकर अपने हृदय को शीतल करो।
लक्ष्मीजी बोलीं - हे देवों के देव! अब लज्जा किसलिए? अपनी प्राणवल्लभा पत्नी को अपने हृदय से लगाओ। जिसके बिछड़ने के कारण आप दुखी होकर इधर-उधर भटकते रहे। उस प्राणप्रिया के मिल जाने पर कैसी लज्जा ?
तो उधर सावित्री बोलीं - अब तो पार्वती जी को भोजन कराकर ही भोजन होगा और पार्वती को कपूर सुगंधयुक्त तांबूल (पान) भी अर्पित करना होगा।
तब जान्हवी बोलीं कि - हे त्रिलोक के स्वामी! स्वर्ण के समान सुंदर पार्वती जी के केश धोना एवं शृंगार करना भी आपका कर्तव्य है।
इस पर शची (देवराज इन्द्र की पत्नी जिन्हे इन्द्राणी भी कहा जाता है) कहने लगीं कि - हे सदाशिव ! जिन पार्वती को पाने के लिए आप सदा आतुर थे तथा जिनके वियोग के दिन आपने विलाप कर-कर बिताए हैं, आज वही पार्वती जब आपकी पत्नी बनकर आपके साथ विराजमान हैं, तो फिर काहे का संकोच? क्यों आप पार्वती को अपने हृदय से नहीं लगा रहे हैं?
देवी अरुंधती (ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की पत्नी) बोलीं - इस सती सुंदरी को मैंने आपको दिया है। अब आप इसे अपने पास रखें और उसके सुख दुख का ध्यान करें।
देवी अहिल्या (महर्षि गौतम की पत्नी) बोलीं – भगवन्! आप तो सबके ईश्वर हो। इस पूरे संसार के स्वामी हो। आपके परमब्रह्म स्वरूप को कोई नकार नहीं सकता। आप निर्गुण निराकार हैं परंतु आज सब देवताओं ने मिलकर आपको भी दास बना दिया है। प्रभो ! अब आप भी अपनी प्राणवल्लभा पार्वती के अधीन हो गए हैं।
यह सुनकर वहां खड़ी तुलसी कहने लगीं - आपने तो कामदेव को भस्म करके पार्वती का त्याग कर दिया था, फिर आपने क्यों आज उनसे विवाह कर लिया है? इस प्रकार उन देवांगनाओं की हंसी-ठिठोली चल रही थी और वे भगवान शिव से ऐसी ही बातें करके बीच-बीच में जोर-जोर से हंसती तो कभी खिलखिलाकर रह जाती ।
इस पर स्वाहा (यज्ञ देव की पत्नी) ने कहा कि - हे सदाशिव ! इस प्रकार हम सबकी हंसी-ठिठोली सुनकर आप क्रोधित मत हो जाइएगा। विवाह के समय तो कन्याएं व स्त्रियां ऐसा ही विनोद करती हैं।
तब वसुंधरा ने कहा - हे देवाधिदेव! आप तो भावों के ज्ञाता हैं। आप तो जानते ही हैं कि काम से पीड़ित स्त्रियां भोग के बिना प्रसन्न नहीं होतीं। प्रभु! अब तो पार्वती की प्रसन्नता के लिए कार्य करो। अब तो पार्वती आपकी पत्नी हो गई हैं। उन्हें खुश रखना आपका परम कर्तव्य है।
इस प्रकार स्त्रियों के विनोदपूर्ण वचन सुनते हुए भगवान शिव चुप थे परंतु जब स्त्रियां चुप न हुईं और इसी प्रकार उन्हें लक्ष्य बनाकर तरह-तरह की हंसी की बातें करती रहीं, तब भगवान शिव ने कहा - हे देवियो! आप लोग तो जगत की माताएं हैं। माता होते हुए पुत्र के सामने इस प्रकार के चंचल तथा निर्लज्ज वचन क्यों कह रही हैं? तब भगवान शिव के ये वचन सुनकर सभी स्त्रियां शरमा कर वहां से भाग गईं।
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