अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! लौटते समय दुरात्मा रावण बड़े हर्ष में भरा था। उसने मार्ग में अनेकानेक नरेशों, ऋषियों, देवताओं और दानवों की कन्याओं का अपहरण किया। वह राक्षस जिस कन्या अथवा स्त्री को दर्शनीय रूप-सौन्दर्य से युक्त देखता, उसके रक्षक बन्धुजनों का वध करके उसे विमान पर बिठाकर रोक लेता था।
'इस प्रकार उसने नागों, राक्षसों, असुरों, मनुष्यों, यक्षों और दानवों की भी बहुत-सी कन्याओं को हरकर विमान पर चढ़ा लिया। उन सबने एक साथ ही दुःख के कारण नेत्रों से आँसू बहाना आरम्भ किया। शोकाग्नि और भय से प्रकट होनेवाले उनके आँसुओं की एक-एक बूँद वहाँ आग की चिनगारी सी जान पड़ती थी। जैसे नदियाँ सागर को भरती हैं, उसी प्रकार उन समस्त सुन्दरियों ने भय और शोक से उत्पन्न हुए अमङ्गलजनक अश्रुओं से उस विमान को भर दिया।'
'नागों, गन्धर्वों, महर्षियों, दैत्यों और दानवों की सैकड़ों कन्याएँ उस विमान पर रो रही थीं। उनके केश बड़े-बड़े थे। सभी अङ्ग सुन्दर एवं मनोहर थे। उनके मुख की कान्ति पूर्ण चन्द्रमा की छबि को लज्जित करती थी। उरोजों के तटप्रान्त उभरे हुए थे। शरीर का मध्यभाग हीरे के चबूतरे के समान प्रकाशित होता था। नितम्ब - देश रथ के कूबर-जैसे जान पड़ते थे और उनके कारण उनकी मनोहरता बढ़ रही थी। वे सभी स्त्रियाँ देवाङ्गनाओं के समान कान्तिमती और तपाये हुए सुवर्ण के समान सुनहरी आभा से उद्भासित होती थीं।'
'सुन्दर मध्यभाग वाली वे सभी सुन्दरियाँ शोक, दुःख और भय से त्रस्त एवं विह्वल थीं। उनकी गरम-गरम निःश्वास वायु से वह पुष्पक विमान सब ओर से प्रज्वलित-सा हो रहा था और जिसके भीतर अग्नि की स्थापना की गयी हो, उस अग्निहोत्र गृह के समान जान पड़ता था। दशग्रीव के वश में पड़ी हुई वे शोकाकुल अबलाएँ सिंह के पंजे में पड़ी हुई हरिणियों के समान दु:खी हो रही थीं। उनके मुख और नेत्रों में दीनता छा रही थी और उन सबकी अवस्था सोलह वर्ष के लगभग थी।'
'कोई सोचती थी, क्या यह राक्षस मुझे खा जायेगा? कोई अत्यन्त दु:ख से आर्त हो इस चिन्ता में पड़ी थी कि क्या यह निशाचर मुझे मार डालेगा? वे स्त्रियाँ माता, पिता, भाई तथा पति की याद करके दुःख शोक में डूब जातीं और एक साथ करुणा जनक विलाप करने लगती थीं। 'हाय! मेरे बिना मेरा नन्हा सा बेटा कैसे रहेगा। मेरी माँ की क्या दशा होगी और मेरे भाई कितने चिन्तित होंगे' ऐसा कहकर वे शोक के सागर में डूब जाती थीं।'
‘हाय! अपने उन पतिदेव से बिछुड़ कर मैं क्या करूँगी ? कैसे रहूँगी। हे मृत्युदेव ! मेरी प्रार्थना है कि तुम प्रसन्न हो जाओ और मुझ दुखिया को इस लोक से उठा ले चलो। हाय! पूर्व जन्म में दूसरे शरीर द्वारा हमने कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिससे हम सब की सब दुःख से पीड़ित हो शोक के समुद्र में गिर पड़ी हैं। निश्चय ही इस समय हमें अपने इस दुःख का अन्त होता नहीं दिखायी देता।'
‘अहो! इस मनुष्यलोक को धिक्कार है! इससे बढ़कर अधम दूसरा कोई लोक नहीं होगा; क्योंकि यहाँ इस बलवान् रावण ने हमारे दुर्बल पतियों को उसी तरह नष्ट कर दिया, जैसे सूर्यदेव उदय लेने के साथ ही नक्षत्रों को अदृश्य कर देते हैं। अहो! यह अत्यन्त बलवान् राक्षस वध के उपायों में ही आसक्त रहता है। अहो ! यह पापी दुराचार के पथ पर चलकर भी अपने-आपको धिक्कारता नहीं है।'
‘इस दुरात्मा का पराक्रम इसकी तपस्या के सर्वथा अनुरूप है, परंतु यह परायी स्त्रियों के साथ जो बलात्कार कर रहा है, यह दुष्कर्म इसके योग्य कदापि नहीं है। यह नीच निशाचर परायी स्त्रियों के साथ रमण करता है, इसलिये स्त्री के कारण ही इस दुर्बुद्धि राक्षस का वध होगा।'
'उन श्रेष्ठ सती-साध्वी नारियों ने जब ऐसी बातें कह दीं, उस समय आकाश में देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और वहाँ फूलों की वर्षा होने लगी। पतिव्रता साध्वी स्त्रियों के इस तरह शाप देने पर रावण की शक्ति घट गयी, वह निस्तेज - सा हो गया और उसके मन में उद्वेग-सा होने लगा। इस प्रकार उनका विलाप सुनते हुए राक्षसराज रावण ने निशाचरों द्वारा सत्कृत हो लङ्कापुरी में प्रवेश किया। इसी समय इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली भयंकर राक्षसी शूर्पणखा, जो रावण की बहिन थी, सहसा सामने आकर पृथ्वी पर गिर पड़ी।'
रावण ने अपनी उस बहिन को उठाकर सान्त्वना दी और पूछा - 'भद्रे ! तुम अभी मुझसे शीघ्रतापूर्वक कौन-सी बात कहना चाहती थी? शूर्पणखा के नेत्रों में आँसू भरे थे, उसकी आँखें रोते-रोते लाल हो गयी थीं।
वह बोली - 'राजन् ! तुम बलवान् हो, इसीलिये तुमने मुझे बलपूर्वक विधवा बना दिया है? राक्षसराज! तुमने रणभूमि में अपने बल पराक्रम से चौदह हजार कालकेय नामक दैत्यों का वध कर दिया है। तात! उन्हीं में मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर आदरणीय मेरे महाबली पति भी थे। तुमने उन्हें भी मार डाला। तुम नाममात्र के भाई हो। वास्तव में मेरे शत्रु निकले !
'राजन्! सगे भाई होकर भी तुमने स्वयं ही अपने हाथों मेरा (मेरे पतिदेव का ) वध कर डाला। अब तुम्हारे कारण मैं ' वैधव्य' शब्द का उपभोग करूँगी - विधवा कहलाऊँगी। भैया! तुम मेरे पिता के तुल्य हो। मेरे पति तुम्हारे दामाद थे, क्या तुम्हें युद्ध में अपने दामाद या बहनोई की भी रक्षा नहीं करनी चाहिये थी? तुमने स्वयं ही युद्ध में अपने दामाद का वध किया है; क्या अब भी तुम्हें लज्जा नहीं आती?'
रोती और कोसती हुई बहिन के ऐसा कहने पर दशग्रीव ने उसे सान्त्वना देकर समझाते हुए मधुर वाणीमें कहा – बहना! अब रोना व्यर्थ है, तुम्हें किसी तरह भयभीत नहीं होना चाहिये। मैं दान, मान और अनुग्रह द्वारा यत्नपूर्वक तुम्हें संतुष्ट करूँगा। मैं युद्ध में उन्मत्त हो गया था, मेरा चित्त ठिकाने नहीं था, मुझे केवल विजय पाने की धुन थी, इसलिये लगातार बाण चलाता रहा। समराङ्गण में जूझते समय मुझे अपने-पराये का ज्ञान नहीं रह जाता था। मैं रणोन्मत्त होकर प्रहार कर रहा था, इसलिये 'दामाद' को पहचान न सका।
'बहिन ! यही कारण है जिससे युद्ध में तुम्हारे पति मेरे हाथ से मारे गये। अब इस समय जो कर्तव्य प्राप्त है, उसके अनुसार मैं सदा तुम्हारे हित का ही साधन करूँगा। तुम ऐश्वर्यशाली भाई खर के पास चलकर रहो। तुम्हारा भाई महाबली खर चौदह हजार राक्षसों का अधिपति होगा। वह उन सब को जहाँ चाहेगा भेजेगा और उन सब को अन्न, पान एवं वस्त्र देने में समर्थ होगा। यह तुम्हारा मौसेरा भाई निशाचर खर सब कुछ करने में समर्थ है और आदेश का सदा पालन करता रहेगा।'
‘यह वीर मेरी आज्ञा से शीघ्र ही दण्डकारण्य की रक्षा में जानेवाला है; महाबली दूषण इसका सेनापति होगा। वहाँ शूरवीर खर सदा तुम्हारी आज्ञा का पालन करेगा और इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षसों का स्वामी होगा। ऐसा कहकर दशग्रीव ने चौदह हजार पराक्रमशाली राक्षसों की सेना को खर के साथ जाने की आज्ञा दी। उन भयङ्कर राक्षसों से घिरा हुआ खर शीघ्र ही दण्डकारण्य में आया और निर्भय होकर वहाँ का अकण्टक राज्य भोगने लगा। उसके साथ शूर्पणखा भी वहाँ दण्डकवन में रहने लगी। तभी से शूर्पणखा के मन में अपने भाई से प्रतिशोध लेने की इच्छा जागृत हुई और वह उचित समय की प्रतीक्षा करने लगी।'
'श्रीराम ! यों भी रावण ने तपस्या से जिन पुण्य कर्मों को अर्जित किया था। धीरे-धीरे वहीं उन्हें अपने पाप कर्मों द्वारा नष्ट भी कर रहा था यह सब विधवाओं और अबलाओं के शाप का प्रभाव तो जो एक दिन दशमुख वाले रावण को निगलने ही वाला था।'
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