भाग-४५(45) भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह

 


सूतजी बोले - हे बंधुजनों ! गर्ग मुनि की आज्ञा के अनुसार शैलराज हिमालय ने कन्यादान की रस्मों को निभाना शुरू किया। शैलराज प्रिया मैना जी सुंदर वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर हाथों में सोने का कलश लेकर अपने पति हिमालय के दाहिने भाग में बैठी हुई थीं। शैलराज हिमालय ने भगवान शिव का पाद्य से पूजन करने के पश्चात सुंदर वस्त्रों, आभूषणों एवं चंदन से उन्हें अलंकृत किया तथा ब्राह्मणों से बोले कि हे ब्राह्मणो! अब आप कन्यादान हेतु संकल्प कराइए। तब श्रेष्ठ मुनिगण सहर्ष संकल्प पढ़ने लगे। 

तब गिरिश्रेष्ठ हिमालय ने आदरपूर्वक वर रूप में विराजमान भगवान शिव से पूछा - हे शिव शंकर! विधि-विधान से पार्वती का पाणिग्रहण करने हेतु आप अपने कुल का परिचय दें। आप अपना गोत्र, प्रवर, कुल नाम, वेद शाखा सबकुछ ब्राह्मणों को बता दें।

'गिरिराज का यह प्रश्न सुनकर भगवान शंकर गंभीर होकर कुछ सोचने लगे। सब देवताओं, ऋषि-मुनियों ने जब भगवान शिव को इस प्रकार चुप देखा तो वे इस संबंध में कुछ भी उत्तर नहीं दे रहे थे और शांत थे। तब यह देखकर कन्या पक्ष के कुछ लोग उन पर हंसने लगे।'  

यह देखकर नारदजी तत्काल पार्वती के पिता शैलराज के पास पहुंचे और बोले - हे पर्वतराज! आप भगवान शिव से उनका गोत्र पूछकर बहुत बड़ी मूर्खता कर रहे हैं। उनका कुल, गोत्र आदि तो ब्रह्मा, विष्णु आदि भी नहीं जानते तो और भला कोई कैसे जान सकता है? भगवान शिव तो निर्गुण और निराकार हैं। वे परमब्रह्म परमेश्वर हैं । वे निर्विकार, मायाधारी एवं परात्पर हैं। वे तो स्वतंत्र परमेश्वर हैं, जिनका कुल, गोत्र आदि से कुछ भी लेना देना नही है। ये सब तो मनुष्यों के द्वारा निर्मित आडंबर मात्र हैं। शिवजी तो अपनी इच्छा के अनुसार रूप और अवतार धारण करने वाले हैं। यह तो पार्वती के द्वारा किए हुए उग्र तप का प्रभाव है जिसके कारण आप शिवजी के साक्षात स्वरूप के दर्शन कर पा रहे हैं। शैलराज! भगवान शिव गोत्रहीन होकर भी श्रेष्ठ गोत्र वाले हैं और कुलहीन होने पर भी कुलीन हैं। इनकी विविध लीलाएं इस चराचर संसार को मोहित करने वाली हैं।

'हे गिरिश्रेष्ठ हिमालय! नाना प्रकार की लीला करने वाले इन भगवान शिव का गोत्र और कुल नाद (ॐ की धवनि ) है। शिव नादमय हैं और नाद शिवमय है। नाद और शिव में कहीं कोई अंतर नहीं है। जब भगवान शिव ने सृष्टि की रचना का विचार किया था तब सबसे पहले शिवजी ने नाद को ही प्रकट किया था। इसलिए अब आप व्यर्थ की बातों को त्यागकर अपनी पुत्री पार्वती का विवाह यथाशीघ्र शिवजी के साथ संपन्न करा दो।'

'नारदजी की बात सुनकर शैलराज हिमालय के मन में उत्पन्न हुई शंका समाप्त हो गई। तब सभी देवताओं ने देवर्षि को धन्यवाद दिया कि उन्होंने इस विषम परिस्थिति को चतुराई से संभाल लिया। यह सब जानकर वहां उपस्थित सभी विद्वान प्रसन्नतापूर्वक बोले कि हमारे अहोभाग्य हैं, जो आज हमने इस जगत को प्रकट करने वाले, आत्मबोध स्वरूप स्वतंत्र परमेश्वर, नित्य नई लीलाएं रचने वाले त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के दर्शन कर लिए हैं।' 

'आपके दर्शनों से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। इस प्रकार सब मिलकर भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। तब वहां उपस्थित मेरु आदि अनेक पर्वतों ने शैलराज हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज ! अब आप व्यर्थ का विलंब क्यों कर रहे हैं? जल्दी से अपनी कन्या पार्वती का दान क्यों नहीं करते? तब हिमालय-मैना ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती का कन्यादान कर दिया।' 

कन्यादान करते समय पर्वतराज बोले - हे परमेश्वर करुणानिधान भगवान शिव! मैं अपनी कन्या पार्वती आज आपको देता हूं। आप इसे अपनी पत्नी बनाकर मुझे और मेरे कुल को कृतार्थ करें। इस प्रकार शैलराज हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का हाथ व जल भगवान शिव के हाथों में दे दिया। तब सदाशिव ने वेद मंत्रों के वचनों के अनुसार मंत्रों को बोलते हुए देवी पार्वती का हाथ लेकर पृथ्वी का स्पर्श करते हुए लौकिक रीति से उनका पाणिग्रहण स्वीकार किया। 

'इस प्रकार गिरिराज के कन्यादान करते ही चारों ओर शिव-पार्वती की जय-जयकार की ध्वनि गूंजने लगी। गंधर्व प्रसन्नतापूर्वक उत्तम गीत गाने लगे और सुंदर अप्सराएं मगन होकर नाचने लगीं। सभी इस मंगलमय विवाह के संपन्न होने पर मन में बहुत प्रसन्न थे । ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र आदि सभी देवता भी बहुत प्रसन्न हुए। उसके बाद शैलराज हिमालय ने भगवान शिव को अनेकों वस्तुएं प्रदान कीं। रत्नों से जड़े हुए सुंदर स्वर्ण के आभूषण, पात्र एवं दूध देने वाली सवा लाख गौएं, एक लाख सुसज्जित अश्व, एक करोड़ हाथी तथा एक करोड़ सोने जवाहरातों से जड़े रथ आदि वस्तुएं सादर भेंट कीं।' 

'उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती की सेवा में लगे रहने के लिए एक लाख दासियां भी दीं। तत्पश्चात विवाह में पधारे अनेक पर्वतों ने भी अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुसार उत्तम वस्तुएं शिव-पार्वती को उपहार स्वरूप भेंट कीं। इस विवाह से सभी प्रसन्न थे। सारी दिशाएं शहनाइयों की मधुर ध्वनि से गुंजायमान थीं। आकाश से भगवान शिव और उनकी प्रिया पार्वती पर पुष्प वर्षा हो रही थी। कल्याणमयी और भक्तवत्सल भगवान शिव को अपनी प्रिय पुत्री पार्वती को समर्पित करने के बाद शैलराज हिमालय और उनकी प्रिय पत्नी मैना हर्ष से प्रफुल्लित हो रहे थे। शैलराज हिमालय ने यजुर्वेद की माध्यंदिनी में लिखे हुए स्तोत्रों द्वारा शुद्ध हृदय और भक्तिभाव से भगवान शिव की अनेकानेक बार स्तुति की। तत्पश्चात वहां उपस्थित श्रेष्ठ मुनिजनों ने उत्साहपूर्वक भगवान शिव और देवी पार्वती के सिर का अभिषेक किया। उस समय हिमालय नगरी में महान उत्सव हो रहा था। सभी नर-नारी प्रसन्नता से नाच-गा रहे थे।'

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-४५(45) समाप्त !

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