भाग-४४(44) रावण के द्वारा निवात कवचों से मैत्री, कालकेयों का वध तथा वरुण पुत्रों की पराजय

 


अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! देवेश्वर यम को पराजित करके युद्ध का हौसला रखनेवाला दशग्रीव रावण अपने सहायकों से मिला। उसके सारे अङ्ग रक्त से नहा उठे थे और प्रहारों से जर्जर हो गये थे। इस अवस्था में रावण को देखकर उन राक्षसों को बड़ा विस्मय हुआ। 'महाराजकी जय हो' ऐसा कहकर रावण की अभ्युदय कामना करके वे मारीच आदि सब राक्षस पुष्पक विमान पर बैठे। उस समय रावण ने उन सबको सान्त्वना दी। 

'तदनन्तर वह राक्षस रसातल में जाने की इच्छा से दैत्यों और नागों से सेवित तथा वरुण के द्वारा सुरक्षित जलनिधि समुद्र में प्रविष्ट हुआ। नागराज वासुकि द्वारा पालित भोगवती पुरी में प्रवेश करके उसने नागों को अपने वश में कर लिया तब नागराज वासुकि ने रावण के भय से अपनी पुत्री सुलोचना का पाणिग्रहण उसके पुत्र मेघनाद से करने का निश्चय किया। 

रघुनन्दन ! जिस नागपाश से मेघनाद ने लक्ष्मण समेत आपको बांधा था वह अस्त्र नागराज वासुकि ने ही अपने जमाता मेघनाद को प्रदान किया था। रावण ने वहाँ से हर्षपूर्वक मणिमयीपुरी को प्रस्थान किया। उस पुरी में निवात कवच नामक दैत्य रहते थे, जिन्हें ब्रह्माजी से उत्तम वर प्राप्त थे। उस राक्षस ने वहाँ जाकर उन सबको युद्ध के लिये ललकारा।' 

'वे सब दैत्य बड़े पराक्रमी और बलशाली थे। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करते थे तथा युद्ध के लिये सदा उत्साहित एवं उन्मत्त रहते थे। उनका राक्षसों के साथ युद्ध आरम्भ हो गया। वे राक्षस और दानव कुपित हो एक-दूसरे को शूल, त्रिशूल, वज्र, पट्टिश, खड्ग और फरसों  से घायल करने लगे।' 

'उनके युद्ध करते हुए एक वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो गया; किंतु उनमें से किसी भी पक्ष की विजय या पराजय नहीं हुई। तब त्रिभुवन के आश्रयभूत अविनाशी पितामह भगवान् ब्रह्मा एक उत्तम विमान पर बैठकर वहाँ शीघ्र आये। 

पितामह भगवान् ब्रह्मा ने निवात कवचों के उस युद्ध - कर्म को रोक दिया और उनसे स्पष्ट शब्दों में यह बात कही - दानवो! समस्त देवता और असुर मिलकर भी युद्ध में इस रावण को परास्त नहीं कर सकते। इसी तरह समस्त देवता और दानव एक साथ आक्रमण करें तो भी वे तुम लोगों का संहार नहीं कर सकते। तुम दोनों में वरदानजनित शक्ति एक-सी है इसलिये मुझे तो यह अच्छा लगता है कि तुम लोगों के साथ इस राक्षस की मैत्री हो जाये; क्योंकि सुहृदों के सभी अर्थ (भोग्य पदार्थ) एक-दूसरेके लिये समान होते हैं - पृथक्-पृथक् बँटे नहीं रहते हैं। निःसंदेह ऐसी ही बात है।' 

'तब वहाँ रावण ने अग्नि को साक्षी बनाकर निवात कवचों के साथ मित्रता कर ली। इससे उसको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर निवात कवचों से उचित आदर पाकर वह एक वर्ष तक वहीं टिका रहा। उस स्थान पर दशानन को अपने नगर के समान ही प्रिय भोग प्राप्त हुए। उसने निवात कवचों से सौ प्रकार की मायाओं का ज्ञान प्राप्त किया।' 

'उसके बाद वह वरुण के नगर का पता लगाता हुआ रसातल में सब ओर घूमने लगा। घूमते-घूमते वह अश्म नामक नगर में जा पहुँचा, जहाँ कालकेय नामक दानव निवास करते थे। कालकेय बड़े बलवान् थे। रावण ने वहाँ उन सबका संहार करके शूर्पणखा के पति उत्कट बलशाली अपने बहनोई महाबली विद्युतजिव्हा को, जो उस राक्षस को समराङ्गण में चाट जाना चाहता था, तलवार से काट डाला।' 

'उसे परास्त करके रावण ने दो ही घड़ी में चार सौ दैत्यों को मौत के घाट उतार दिया। तत्पश्चात् उस राक्षसराज ने वरुण का दिव्य भवन देखा, जो श्वेत बादलों के समान उज्ज्वल और कैलाश पर्वत के समान प्रकाशमान था। वहीं सुरभि नाम की गौ भी खड़ी थी, जिसके थनों से दूध झर रहा था। कहते हैं, सुरभि के ही दूध की धारा से क्षीरसागर भरा हुआ है।' 

'रावण ने महादेवजी के वाहनभूत महावृषभ (नंदीश्वर) की जननी सुरभिदेवी का दर्शन किया, जिससे शीतल किरणों वाले निशाकर चन्द्रमा का प्रादुर्भाव हुआ है (सुरभि से क्षीरसमुद्र और क्षीरसमुद्र से चन्द्रमा का आविर्भाव हुआ है )। उन्हीं चन्द्रदेव के उत्पत्ति स्थान क्षीरसमुद्र का आश्रय लेकर फेन पीने वाले महर्षि जीवन धारण करते हैं। उस क्षीरसागर से ही सुधा तथा स्वधाभोजी पितरों की स्वधा प्रकट हुई है।' 

'लोक में जिनको सुरभि नाम से पुकारा जाता है, उन परम अद्भुत गोमाता की परिक्रमा करके रावण ने नाना प्रकार की सेनाओं से सुरक्षित महाभयंकर वरुणालय में प्रवेश किया। वहाँ प्रवेश करके उसने वरुण के उत्तम भवन को देखा, जो सदा ही आनन्दमय उत्सव से परिपूर्ण, अनेक जलधाराओं (फौवारों) से व्याप्त तथा शरत्काल के बादलों के समान उज्ज्वल था।' 

तदनन्तर वरुण के सेनापतियों ने समरभूमि में रावण पर प्रहार किया। फिर रावण ने भी उन सबको घायल करके वहाँ के योद्धाओं से कहा- तुम  लोग राजा वरुण से शीघ्र जाकर मेरी यह बात कहो - राजन्! राक्षसराज रावण युद्ध के लिये आया है, आप चलकर उससे युद्ध कीजिये अथवा हाथ जोड़कर अपनी पराजय स्वीकार कीजिये। फिर आपको कोई भय नहीं रहेगा। 

'इसी बीच में सूचना पाकर महात्मा वरुण के पुत्र और पौत्र क्रोध से भरे हुए निकले। उनके साथ 'गौ' और 'पुष्कर' नामक सेनाध्यक्ष भी थे। वे सब-के-सब सर्वगुण सम्पन्न तथा उगते हुए सूर्य के तुल्य तेजस्वी थे। इच्छानुसार चलने वाले रथों पर आरूढ़ हो अपनी सेनाओं से घिरकर वे वहाँ युद्धस्थल में आये।' 

'फिर तो वरुण के पुत्रों और बुद्धिमान् रावण में बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। राक्षस दशग्रीव के महापराक्रमी मन्त्रियों ने एक ही क्षण में वरुण की सारी सेना को मार गिराया। युद्ध में अपनी सेना की यह अवस्था देख वरुण के पुत्र उस समय बाण - समूहों से पीड़ित होने के कारण कुछ देर के लिये युद्ध - कर्म से हट गये।' 

'भूतल पर स्थित होकर उन्होंने जब रावण को पुष्पक विमान पर बैठा देखा, तब वे भी शीघ्रगामी रथों द्वारा तुरंत ही आकाश में जा पहुँचे। अब बराबर का स्थान मिल जाने से रावण के साथ उनका भारी युद्ध छिड़ गया। उनका वह आकाश-युद्ध देव- दानव-संग्राम के समान भयंकर जान पड़ता था। उन वरुण-पुत्रों ने अपने अग्नितुल्य तेजस्वी बाणों द्वारा युद्धस्थल में रावण को विमुख करके बड़े हर्ष के साथ कई प्रकार के स्वरों में महान् सिंहनाद किया।' 

'राजा रावण को तिरस्कृत हुआ देख महोदर को बड़ा क्रोध हुआ। उसने मृत्यु का भय छोड़कर युद्ध की इच्छा से वरुण पुत्रों की ओर देखा। वरुण के घोड़े युद्ध में हवा से बातें करनेवाले थे और स्वामी की इच्छा के अनुसार चलते थे। महोदर ने उनपर गदा से आघात किया। गदा की चोट खाकर वे घोड़े धराशायी हो गये।' 

'वरुण-पुत्रों के योद्धाओं और घोड़ों को मारकर उन्हें रथ हीन हुआ देख महोदर तुरंत ही जोर-जोर से गर्जना करने लगा। महोदर की गदा के आघात से वरुण - पुत्रों के वे रथ घोड़ों और श्रेष्ठ सारथियों सहित चूर-चूर हो पृथ्वी पर गिर पड़े। महात्मा वरुण के वे शूरवीर पुत्र उन रथों को छोड़कर अपने ही प्रभाव से आकाश में खड़े हो गये। उन्हें तनिक भी व्यथा नहीं हुई।' 

'उन्होंने धनुषों पर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और महोदर को क्षत-विक्षत करके एक साथ कुपित हो रावण को घेर लिया। फिर वे अत्यन्त कुपित हो किसी महान् पर्वत पर जल की धारा गिराने वाले मेघों के समान धनुष से छूटे हुए वज्र- तुल्य भयंकर सायकों द्वारा रावण को विदीर्ण करने लगे। यह देख दशग्रीव प्रलयकाल की अग्नि के समान रोष से प्रज्वलित हो उठा और उन वरुण-पुत्रों के मर्मस्थानों पर पुष्पक विमान पर बैठे हुए महाघोर बाणों की वर्षा करने लगा।' 

'उस दुर्धर्ष वीर ने उन सबके ऊपर विचित्र मूसलों, सैकड़ों भल्लों, पट्टिशों, शक्तियों और बड़ी-बड़ी शतनियों का प्रहार किया। उन अस्त्र-शस्त्रों से घायल हो वे पैदल वीर पुनः युद्ध के लिये आगे बढ़े; परंतु पैदल होने के कारण रावण की उस अस्त्र-वर्षा से ही सहसा संकट में पड़कर बड़ी भारी कीचड़ में फँसे हुए साठ वर्ष के हाथी के समान कष्ट पाने लगे।' 

'वरुण के पुत्रों को दु:खी एवं व्याकुल देख महाबली रावण महान् मेघ के समान बड़े हर्ष से गर्जना करने लगा। जोर-जोर से सिंहनाद करके वह निशाचर पुनः नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा वरुण पुत्रों को मारने लगा, मानो बादल अपनी धारावाहिक वृष्टि से वृक्षों को पीड़ित कर रहा हो। फिर तो वे सभी वरुण - पुत्र युद्ध से विमुख हो पृथ्वी पर गिर पड़े। तत्पश्चात् उनके सेवकों ने उन्हें रणभूमि से हटाकर शीघ्र ही घरों में पहुँचा दिया।' 

तदनन्तर उस राक्षस ने वरुण के सेवकों से कहा – अब वरुण से जाकर कहो कि वे स्वयं युद्ध के लिये आवें। तब वरुण के मन्त्री प्रभास ने रावण से कहा - राक्षसराज! जिन्हें तुम युद्ध के लिये बुला रहे हो, वे जल के स्वामी महाराज वरुण संगीत सुनने के लिये ब्रह्मलोक में गये हुए हैं। वीर! राजा वरुण के चले जाने पर यहाँ युद्ध के लिये व्यर्थ परिश्रम करने से तुम्हें क्या लाभ? उनके जो वीर पुत्र यहाँ उपस्थित थे, वे तो तुमसे परास्त हो ही गये। 

मन्त्री की यह बात सुनकर राक्षसराज रावण वहाँ अपने नाम की घोषणा करके बड़े हर्ष से सिंह्नाद करता हुआ वरुणालय से बाहर निकल गया।  वह जिस मार्ग से आया था, उसी से लौटकर आकाशमार्ग से लङ्का की ओर चल दिया। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४४(44) समाप्त !

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